Thursday, 18 December 2014

शक्तिस्वरूपा माँ आनंदमयी

शक्तिस्वरूपा माँ आनंदमयी

संयम में अदभुत सामर्थ्य है। जिसके जीवन में संयम है, जिसके जीवन में ईश्वरोपासना है। वह सहज ही में महान हो जाता है। आनंदमयी माँ का जब विवाह हुआ तब उनका व्यक्तित्व अत्यंत आभासंपन्न थी। शादी के बाद उनके पति उन्हें संसार-व्यवहार में ले जाने का प्रयास करते रहते थे किंतु आनंदमयी माँ उन्हें संयम और सत्संग की महिमा सुनाकर, उनकी थोड़ी सेवा करके, विकारों से उनका मन हटा देती थीं।
इस प्रकार कई दिन बीते, हफ्ते बीते, कई महीने बीत गये लेकिन आनंदमयी माँ ने अपने पति को विकारों में गिरने नहीं दिया।
आखिरकार कई महीनों के पश्चात् एक दिन उनके पति ने कहाः “तुमने मुझसे शादी की है फिर भी क्यों मुझे इतना दूर दूर रखती हो?”

तब आनंदमयी माँ ने जवाब दियाः “शादी तो जरूर की है लेकिन शादी का वास्तविक मतलब तो इस प्रकार हैः शाद अर्थात् खुशी। वास्तविक खुशी प्राप्त करने के लिए पति-पत्नी एक दूसरे के सहायक बनें न कि शोषक। काम-विकार में गिरना यह कोई शादी का फल नहीं है।”
इस प्रकार अनेक युक्तियों और अत्यंत विनम्रता से उन्होंने अपने पति को समझा दिया। वे संसार के कीचड़ में न गिरते हुए भी अपने पति की बहुत अच्छी तरह से सेवा करती थीं। पति नौकरी करके घर आते तो गर्म-गर्म भोजन बनाकर खिलातीं।

वे घर भी ध्यानाभ्यास किया करती थीं। कभी-कभी स्टोव पर दाल चढ़ाकर, छत पर खुले आकाश में चंद्रमा की ओर त्राटक करते-करते ध्यानस्थ हो जातीं। इतनी ध्यानमग्न हो जातीं कि स्टोव पर रखी हुई दाल जलकर कोयला हो जाती। घर के लोग डाँटते तो चुपचाप अपनी भूल स्वीकार कर लेतीं लेकिन अन्दर से तो समझती कि ‘मैं कोई गलत मार्ग पर तो नहीं जा रही हूँ…’ इस प्रकार उनके ध्यान-भजन का क्रम चालू ही रहा। घर में रहते हुए ही उनके पास एकाग्रता का कुछ सामर्थ्य आ गया।
एक रात्रि को वे उठीं और अपने पति को भी उठाया। फिर स्वयं महाकाली का चिंतन करके अपने पति को आदेश दियाः “महाकाली की पूजा करो।” उनके पति ने उनका पूजन कर दिया। आनंदमयी माँ में उन्हें महाकाली के दर्शन होने लगे। उन्होंने आनंदमयी माँ को प्रणाम किया।

तब आनंदमयी माँ बोलीं- अब महाकाली को तो माँ की नजर से ही देखना है न?”

पतिः “यह क्या हो गया।”

आनंदमयी माँ- “तुम्हारा कल्याण हो गया।”

कहते हैं कि उन्होंने अपने पति को दीक्षा दे दी और साधु बनाकर उत्तरकाशी के आश्रम में भेज दिया।

कैसी दिव्य नारी रही होंगी माँ आनंदमयी ! उन्होंन अपने पति को भी परमात्मा के रंग में रँग दिया। जो संसार की माँग करता था उसे भगवान की माँग का अधिकारी बना दिया। इस भारतभूमि में ऐसी भी अनेक सन्नारियाँ हो गयीं ! कुछ वर्ष पूर्व ही आनंदमयी माँ ने अपना शरीर त्यागा है। हरिद्वार में एक करोड़ बीस लाख रुपये खर्च करके उनकी समाधि बनवायी गयी है।

ऐसी तो अनेकों बंगाली लड़कियाँ थीं, जिन्होंने शादी की, पुत्रों को जन्म दिया, पढ़ाया-लिखाया और मर गयीं। शादी करके संसार व्यवहार चलाओ उसकी ना नहीं है, लेकिन पति को विकारों में गिराना या पत्नी के जीवन को विकारो में खत्म करना, यह एक-दूसरे के मित्र के रूप में एक-दूसरे के शत्रु का कार्य है। संयम से संतति को जन्म दिया यह अलग बात है। किंतु विषय-विकारों में फँस मरने के लिए थोड़े ही शादी की जाती है।

बुद्धिमान नारी वही है जो अपने पति को ब्रह्मचर्य पालन में मदद करे और बुद्धिमान पति वही है जो विषय विकारों से अपनी पत्नी का मन हटाकर निर्विकारी नारायण के ध्यान में लगाये। इस रूप में पति पत्नी दोनों सही अर्थों में एक दूसरे के पोषक होते हैं, सहयोगी होते हैं। फिर उनके घर में जो बालक जन्म लेते हैं वे भी ध्रुव, गौरांग, रमण महर्षि, रामकृष्ण परमहंस या विवेकानंद जैसे बन सकते हैं।

माँ आनंदमयी को संतों से बड़ा प्रेम था। वे भले प्रधानमंत्री से पूजित होती थीं किंतु स्वयं संतों को पूजकर आनंदित होती थीं। श्री अखण्डानंदजी महाराज सत्संग करते तो वे उनके चरणों में बैठकर सत्संग सुनती। एक बार सत्संग की पूर्णाहूति पर माँ आनंदमयी सिर पर थाल लेकर गयीं। उस थाल में चाँदी का शिवलिंग था। वह थाल अखण्डानंदजी को देते हुए बोलीं-

“बाबाजी ! आपने कथा सुनायी है, दक्षिणा ले  लीजिए।”

माँ- “बाबाजी और भी दक्षिणा ले लो।”

अखण्डानंदजीः “माँ ! और क्या दे रही हो?”

माँ- “बाबाजी ! दक्षिणा में मुझे ले लो न !”

अखण्डानंदजी ने हाथ पकड़ लिया एवं कहाः

“ऐसी माँ को कौन छोड़े? दक्षिणा में आ गयी मेरी माँ।”

कैसी है भारतीय संस्कृति !

हरिबाबा बड़े उच्चकोटि के संत थे एवं माँ आनंदमयी के समकालीन थे। वे एक बार बहुत बीमार पड़ गये। डॉक्टर ने लिखा हैः “उनका स्वास्थ्य काफी लड़खड़ा गया और मुझे उनकी सेवा का सौभाग्य मिला। उन्हें रक्तचाप भी था और हृदय की तकलीफ भी थी। उनका कष्ट इतना बढ़ गया था कि नाड़ी भी हाथ में नहीं आ रही थी। मैंने माँ को फोन किया कि ‘माँ ! अब बाबाजी हमारे बीच नहीं रहेंगे। 5-10 मिनट के ही मेहमान हैं।’ माँ ने कहाः ‘नहीं, नहीं। तुम ‘श्रीहनुमानचालीसा’ का पाठ कराओ मैं आती हूँ।’

मैंने सोचा कि माँ आकर क्या करेंगी? माँ को आते-आते आधा घण्टा लगेगा। ‘श्रीहनुमानचालीसा’ का पाठ शुरु कराया गया और चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हरिबाबा पाँच-सात मिनट में ही चल बसे। मैंने सारा परीक्षण किया। उनकी आँखों की पुतलियाँ देखीं। पल्स (नाड़ी की धड़कन) देखी। इसके बाद ‘श्रीहनुमानचालीसा’ का पाठ करने वालों के आगेवान से कहा कि अब बाबाजी की विदाई के लिए सामान इकट्ठा करें। मैं अब जाता हूँ।

घड़ी भर माँ का इंतजार किया। माँ आयीं बाबा से मिलने। हमने माँ से कहाः “माँ ! बाबाजी नहीं रहे… चले गये।”

माः “नहीं,नहीं…. चले कैसे गये? मैं मिलूँगी, बात करूँगी।”

मैं- “माँ ! बाबा जी चले गये हैं।”

माँ- “नहीं। मैं बात करूँगी।”

बाबाजी का शव जिस कमरे में था, माँ उस कमरे में गयीं। अंदर से कुण्डा बंद कर दिया। मैं सोचने लगा कि कई डिग्रियाँ हैं मेरे पास। मैंने भी कई केस देखे हैं, कई अनुभवों से गुजरा हूँ। धूप में बदले सफेद नहीं किये हैं, अब माँ दरवाजा बंद करके बाबाजी से क्या बात करेंगी?

मैं घड़ी देखता रहा। 45 मिनट हुए। माँ ने कुण्डा खोला एवं हँसती हुई आयीं। उन्होंने कहाः “बाबाजी मेरा आग्रह मान गये हैं। वे अभी नहीं जायेंगे।”

मुझे एक धक्का सा लगा ! ‘वे अभी नहीं जायेंगे? यह आनंदमयी माँ जैसी हस्ती कह रही हैं ! वे तो जा चुके हैं !

मैं- “माँ ! बाबाजी तो चले गये हैं।”

माँ- “नहीं, नहीं…. उन्होंने मेरा आग्रह मान लिया है।  अभी नहीं जायेंगे।”

मैं चकित होकर कमरे में गया तो बाबाजी तकिये को टेका देकर बैठे-बैठे हंस रहे थे। मेरा विज्ञान वहाँ तौबा पुकार गया ! मेरा अहं तौबा पुकार गया !

बाबाजी कुछ समय तक दिल्ली में रहे। चार महीने बीते, फिर बोलेः “मुझे काशी जाना है।”

मैंने कहाः “बाबाजी ! आपकी तबीयत काशी जाने के लिए ट्रेन में बैठने के काबिल नहीं है। आप नहीं जा सकते।”

बाबाजीः “नहीं… हमें जाना है। हमारा समय हो गया।”

माँ ने कहाः “डॉक्टर ! इन्हें रोको मत। इन्हें मैंने आग्रह करके चार महीने तक के लिए ही रोका था। इन्होंने अपना वचन निभाया है। अब इन्हें मत रोको।”

बाबाजी गये काशी। स्टेशन से उतरे और अपने निवास पर रात के दो बजे पहुँचे। प्रभात की वेला में वे अपना नश्वर देह छोड़कर सदा के लिए अपने शाश्वत रूप में व्याप गये।“

‘बाबाजी व्याप गये’ ये शब्द डॉक्टर ने नहीं लिखे, ‘नश्वर’ आदि शब्द नहीं लिखे लेकिन मैं जिस बाबाजी के विषय में कह रहा हूँ वे बाबाजी इतनी ऊँचाईवाले रहे होंगे।

कैसी है महिमा हमारे महापुरुषों की ! आग्रह करके बाबा जी तक को चार महीने के लिए रोक लिया माँ आनंदमयी ने ! कैसी दिव्यता रही है हमारे भारत की सन्नारियों की !

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

घटोत्कच

घटोत्कच भीम और राक्षस कन्या हिडिम्बा का पुत्र था. पांडवों के वंश का वो सबसे बड़ा पुत्र था और महाभारत के युध्द में उसने अहम भूमिका निभाई. हालाँकि कभी भी उसकी गिनती चंद्रवंशियों में नहीं की गयी (इसका कारण हिडिम्बा का राक्षसी कुल था) लेकिन उसे कभी भी अन्य पुत्रों से कम महत्वपूर्ण नहीं समझा गया. महाभारत के युद्ध में कर्ण से अर्जुन के प्राणों की रक्षा करने हेतु घटोत्कच ने अपने प्राणों की बलि दे दी.

लाक्षाग्रह की घटना के बाद पांडव वनों में भटक रहे थे. चलते चलते कुंती का धैर्य जाता रहा और सब ने विश्राम की इच्छा जाहिर की. कुंती सहित सभी भाई गहरी नींद सो गए और भीम वहां पहरे पर बैठ गए. वहीँ पास में हिडिम्ब नमक राक्षस अपनी बहन हिडिम्बा के साथ रहता था. जब पांडव वहां विश्राम कर रहे थे तो हिडिम्ब को मानवों की गंध मिल गयी और उसने हिडिम्बा को इसका पता लगाने भेजा. हिडिम्बा हालाँकि राक्षसी थी लेकिन अहिंसा प्रिय थी. केवल अपने भाई के भय से वो उसका साथ देती थी. जब हिडिम्बा मनुष्यों को खोजती वहां तक पहुंची तो वहां पर भीम के रूप और बलिष्ठ शरीर को देख कर वो उसपर आसक्त हो गयी. वो एक सुन्दर स्त्री का रूप धर कर भीम के पास गयी और उसे कहा कि वो जल्द से जल्द अपने परिवार के साथ वहां से चला जाए नहीं तो वे सभी उसके भाई के ग्रास बन जाएँगे. भीम कहा कि उसका परिवार दिन भर की थकान के बाद विश्राम कर रहा है इसीलिए वो उन्हें उठा नहीं सकते. भीम ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि उसे किसी से भी घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है.

उधर जब हिडिम्बा वापस लौट कर नहीं आयी तो हिडिम्ब स्वयं उसे ढूंढ़ता हुआ वहां पर पहुच गया. क्रोध में वो पहले हिडिम्बा को हीं मारना चाहता था पर भीम ने उसे ऐसा करने नहीं दिया. कोलाहल से उनका परिवार उठ ना जाए इसीलिए भीम उसे घसीटता हुआ वहां से दूर ले गया पर उन दोनो में ऐसा भयानक युध्द होने लगा कि आसपास के वृक्ष टूट कर गिर पड़े और सभी लोग जाग गए. पहले तो उन्हें कुछ समझ में हीं नहीं आया लेकिन हिडिम्बा ने उन्हें सारी बातें बता दी. भीम को लेकर सभी निश्चिन्त थे क्योंकि विश्व की कोई भी शक्ति उसे परास्त नहीं कर सकती थी. ऐसा हीं हुआ और भीम ने जल्द ही हिडिम्ब का अंत कर दिया.

उसकी मृत्यु के बाद हिडिम्बा ने कुंती से कहा कि उसकी भाई की मृत्यु के बाद वो बिलकुल असहाय हो गयी है. भीम के प्रति अपनी आसक्ति के बारे में भी उसने सब को बताया और उससे विवाह करने की अपनी इच्छा व्यक्त की. अब एक अजीब स्थिति पैदा हो गयी. पहली ये कि विपत्ति के इस समय में पांडवों का बल भीम हीं था और दूसरी ये कि अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के अविवाहित रहते भीम विवाह नहीं कर सकता था. कुंती ने ये समस्या युधिष्ठिर को बताई तो उसने कहा कि ये तो सत्य है कि उनके अविवाहित रहते भीम रीतिगत तरीके से विवाह नहीं कर सकता किन्तु किसी की रक्षा हेतु धर्म उसे गन्धर्व विवाह करने की छूट देता है. उन्होंने दो शर्तों पर भीम का विवाह हिडिम्बा से करना स्वीकार किया कि एक तो हिडिम्बा प्रत्येक रात्रि उसे उसके परिवार के पास वापस छोड़ आएगी और दूसरे भीम उसके पास केवल एक संतान की उत्पत्ति तक हीं रहेगा. इन शर्तों को हिडिम्बा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया.

कुछ समय के बाद हिडिम्बा ने घटोत्कच को जन्म दिया जो पैदा होते हीं वयस्क हो गया. उसके सर पर एक भी बाल नहीं था इसीलिए भीम ने उसका नाम घटोत्कच रखा जिसका अर्थ होता है घड़े के सामान चिकने सर वाला. शर्त के अनुसार भीम अपने परिवार के पास वापस चला गया. जब घटोत्कच को पांडवों के साथ हुए अन्याय का पता चला तो वो अत्यंत क्रोधित हो उठा. वह उसी समय कौरवों पर आक्रमण करना चाहता था किन्तु युधिष्ठिर ने उसे समझा बुझा कर शांत किया. घटोत्कच ने पांडवों को वचन दिया कि जब भी संकट के समय वे उसे याद करेंगे, वो उपस्थित हो जाएगा.

महाभारत के युध्द में घटोत्कच ने कौरव सेना का बड़ा विनाश किया. कौरव की तरफ से अलम्बुष राक्षस ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की परन्तु अंत में वो घटोत्कच के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ. भीष्म के सेनापति रहते तो भीष्म ने घटोत्कच को जैसे तैसे रोके रखा किन्तु भीष्म के धराशायी होने के बाद तो उसने कौरव सेना की बड़ी बुरी गत की. महाभारत में कहा गया है कि भीष्म के पतन के बाद घटोत्कच ने कौरवों की सेना में ऐसा उत्पात मचाया कि दुर्योधन ने बांकी सभी को छोड़ कर केवल उसे मारने का आदेश दिया. घटोत्कच ने ऐसा हाहाकार मचाया कि अंत में दुर्योधन ने कर्ण से उसे मारने का अनुरोध किया. कर्ण ने दुर्योधन को वचन दिया कि वो आज घटोत्कच को अवश्य मार गिरायेगा लेकिन कर्ण को ये जल्द हीं पता चल गया कि घटोत्कच को मारना उसके लिए भी सहज नहीं है. कर्ण ने साधारण बाणों से घटोत्कच को मारने का बड़ा प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाया. अंत में दुर्योधन के बार बार उपालंभ देने पर और पाने वचन की रक्षा के लिए उसने घटोत्कच पर इन्द्र के द्वारा दी गयी अमोघ शक्ति का प्रयोग किया जिससे आखिरकार घटोत्कच की मृत्यु हो गयी.

ऐसा कहा जाता है कि अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए स्वयं श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को कौरव सेना में हाहाकार मचाने के लिए उत्साहित किया. उन्हें पता था कि जबतक कर्ण के पास इंद्र की दी गयी शक्ति थी, अर्जुन उसे कभी परास्त नहीं कर सकता था और कर्ण अर्जुन के प्राण कभी भी ले सकता था. जब कर्ण ने घटोत्कच का वध किया तो कौरव सेना में सभी हर्षित थे केवल कर्ण को छोड़ कर क्योंकि उसे पता था कि अब अर्जुन की निश्चित मृत्यु उसके हाथ से निकल चुकी है, वहीँ पांडव सेना में सभी दुखी थे केवल श्रीकृष्ण को छोड़ कर क्योंकि उन्हें पता था कि घटोत्कच ने अर्जुन को निश्चित मृत्यु से बचा लिया है.

Tuesday, 16 December 2014

दु:खों का मूल है इश्वर के प्रति अविश्वाश

दु:खों का मूल है इश्वर के प्रति अविश्वाश

इस संसार में समस्त दु:ख पापों के ही परिणाम है। मनुष्य अपने किये पापों का दण्ड भुगतता है या फ़िर दूसरों केपापों के लपेट में आ जाता है। दोनों प्रकार के दु:खों के कारण पाप ही होते हैं।यदि पापों को ​मिटाया  जा सके तोसमस्त दु:ख दूर हो सकते हैं। यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति  के दु:खों में निश्चय  ही कमी हो सकतीहै। कुविचारों  और कुकर्मो  पर ​नियंत्रण  धर्म  बुद्धि  के विकसित ​ होने से ही संभव होता है। और यह धर्म   बुद्धि  परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास  रखने से उत्पन्न होती है। जो निष्पक्ष  न्यायकारी, परमात्मा को घट-घटवासी और सर्वव्यापी समझेगा, उसे सर्वत्र  ईश्वर ही उपस्थित   दिखाई  पड़ेगा, ऐसी दशा में पाप करने कासाहस भी उसे कैसे होगा? पुलिस को सामने खड़ा देखकर तो दुस्साहसी भी अपनी हरकतें बंद कर देता है। इसीप्रकार जो व्यक्ति परमात्मा को निष्ठा पूर्वक ​ कर्म फल देने वाला और सर्वव्यापी समझ लेगा, वह आस्तिक व्यक्ति पापकरने की बात सोच भी कैसे सकेगा?

ईश्वर के प्रति अविश्वास ही पापों की जड़ है, इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन  करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति  के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है। आत्मनियंत्रण के लिए ​ ईश्वर-​विश्वास अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। व्यकितगत सदाचार और सामूहिक कर्त्तव्य परायणता के पालन केलिए ईश्वर ​विश्वास के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता। इसलिए मनीषीयों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यककत्तर्व्यों में इर्श्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है। जो इसकी उपेक्षा करते है, उनकी भत्सर्ना की हैऔर उन्हें कई प्रकार के दण्ड़ों का भय भी बताया है।

खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है। भौतिकतावादी ​विचारधाराओं ने यहप्र​तिपा​दित ​किया है ​कि इर्श्वर न तो आँखों से ​दिखाई पड़ता है और न प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा ​सिद्ध होता है,इस​लिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं। अ​ति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते है। न तो वे कर्मफल पर ​विश्वास करते है, और न उपासना की कोई आवश्यकता अनुभव करते है।

दूसरे प्रकार के ना​स्तिक इनसे भी गये-बीते हैं। वे अपने को आ​स्तिक कहते और ​किसी इर्श्वर को मानते भी है, परउनका यह कल्पित इर्श्वर वास्त​विक इर्श्वर से भिन्न होता है। वे समझते हैं  कि इर्श्वर तो केवल पूजा-स्तु​ति ही चाहताहै, इतने से ही प्रस्न्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता। पूजा करने वालों के समस्त पाप ​किसीसामान्य धार्मिक कमर्काण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं। साथ ही वे इर्श्वर से यह आशा रखते हैं कि वह जरा सेपाठ-पूजन से बदले ​बिना योग्यता, पुरूषार्थ और लगन की जाँच ​किए मनमाना वरदान दे सकता है और उनकीसमस्त कामनाओं की पूर्ती कर सकता है। यह लोग ऐसा भी सोचते हैं ​कि साधु, ब्राह्मण, परमात्मा के अ​धिक ​निकटहैं, इस​लिए य​दि उन्हें दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए तो अपनी तगड़ी ​सिफा​रिश परमात्मा के यहाँ पहुँचजाती है और ​फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दण्ड से बचने की सु​विधा हो सकती है। हम देखते है ​कि आजकल नाममात्र की आ​स्तिकता इसी विडम्बना की धुरी पर घूम रही है।

यह प्रच्छन्न ना​विकता ​दिखाई तो इर्श्वर ​विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हा​नि ही अधिक होतीहै। आ​स्तिकता का असली लाभ पाप से भय उत्पन्न करना है। इसके ​विप​रित ​जिस मान्यता के अनुसार दस-पाँच ​मिनट में पूरे हो सकने वाले कमर्काण्डों द्वारा ही समस्त पापों का फल नष्ट हो सकने का आश्वासन ​दिया गया हो,उससे तो उलटे पाप के प्रति ​निर्भयता ही बढ़ेगी। जब पाप-फल से बच सकना इतन सरल मान ​लिया गया, तोदुष्कर्मो द्वारा प्राप्त होने वाले आकषर्णों को छोड़ना कौन पसंद करेगा? ऐसी मान्यता से प्रभावित होकर मध्यकालीनराजाओं और सरदारों ने बबर्र अत्याचार और अनै​तिक आचरण करने के साथ-साथ पूजा-पाठ के भी बड़े-बड़ेआयोजन ​किए थे। उन्होंने मं​दिर भी बनवाये और भगवान को प्रसन्न करने वाले उत्सव आ​दि भी किये। पं​डितों औरब्राह्मणों को कथा-भजन करने के  लिए वृ​त्तियाँ भी दीं। सम्भवत: वे यही समझते थे कि उनका पहाड़ के बराबर अनै​तिकता का कायर्क्रम इस प्रकार धन द्वारा रचाई पूजा-पाठ की धूमधाम के पीछे ​छिप जाएगा। पं​डितों और पुजा​रियोंने अपनी आजी​विका की दृ​ष्टि से ऐसे आश्वासन भी गढ़ कर रख् ​दिए, ​जिससे कुमार्गामी व्य​क्ति थोड़ा-बहुत दान-पुण्य करते रहने को तत्पर रहें। दान-पुण्य की प​रिभाषा भी इन लोगों ने बड़े ​वि​चित्र ढंग से की कि केवल ब्राह्मणवंश में उत्पन्न हुये व्यक्ति को जो कुछ ​दिया जाएगा, वह अवश्य पुण्य माना जाएगा।

​विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है ​कि इस प्रकार की अज्ञानमूलक धारणा व्य​क्ति और समाज के ​लिए हा​निकारकप​रिणाम ही उप​स्थित कर सकती है। पापों के दण्ड से बच ​निकलने का आश्वासन पाकर लोग च​रित्रगठन की उपेक्षाकरने लगे, उनमें पापों का भय जाता रहा। ऐसी अनेक कथा-कहा​नियाँ गढ़ी गइर्, ​जिनमें  निकृष्ट से ​निकृष्ट कमर्जीवन भर करते रहने वाले व्य​क्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से- ‘‘नारायण’’ का नाम लेने से मुक्त हो गये इनकथाओं से सत्कमोर्ं की व्यथर्ता ​सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगता है कि जीवन-शोधन के ​लिए श्रम और त्यागकरने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ कर लेना ही अ​धिक सु​विधाजनक है। ऐसी ​शिक्षा देने वाला आध्यात्मवस्तुत: अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है।

आ​स्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य का सदाचारी और कत्तर्व्य परायण बनाना है। यदि  इस बात को भुलाकर लोगदेवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान की रिश्वत  देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें तो यह मानाजाएगा  की उन्होंने इर्श्वर को भी रिश्वत  लेकर उल्टा-सीधा, काम करने वाला मान लिया​ है। फिर  तप, त्याग, संयम,धमर् कत्तर्व्य आदि  के कष्टसाध्य मार्ग  की उपयोगिता  क्या रह जाएगी, जब इर्श्वर अपनी प्र​तिमा के दशर्न करने वाले,स्तु​ति गाने वाले और भोग लगाने वाले पर ही प्रसन्न होने लगा तो ​फिर यही मागर् हर ​किसी का पसन्द आने लगेगा।​फिर कोइर् क्यों उस सद्धमर् के नाम पर कष्ट सहने की प्रस्तुत होगा जिसमें सवर्स्व त्याग और ​तिल-तिल कर जलनेकी अ​ग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।

                       ( पुस्तक ‘अमर वाणी’ से  )