दु:खों का मूल है इश्वर के प्रति अविश्वाश
इस संसार में समस्त दु:ख पापों के ही परिणाम है। मनुष्य अपने किये पापों का दण्ड भुगतता है या फ़िर दूसरों केपापों के लपेट में आ जाता है। दोनों प्रकार के दु:खों के कारण पाप ही होते हैं।यदि पापों को मिटाया जा सके तोसमस्त दु:ख दूर हो सकते हैं। यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति के दु:खों में निश्चय ही कमी हो सकतीहै। कुविचारों और कुकर्मो पर नियंत्रण धर्म बुद्धि के विकसित होने से ही संभव होता है। और यह धर्म बुद्धि परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास रखने से उत्पन्न होती है। जो निष्पक्ष न्यायकारी, परमात्मा को घट-घटवासी और सर्वव्यापी समझेगा, उसे सर्वत्र ईश्वर ही उपस्थित दिखाई पड़ेगा, ऐसी दशा में पाप करने कासाहस भी उसे कैसे होगा? पुलिस को सामने खड़ा देखकर तो दुस्साहसी भी अपनी हरकतें बंद कर देता है। इसीप्रकार जो व्यक्ति परमात्मा को निष्ठा पूर्वक कर्म फल देने वाला और सर्वव्यापी समझ लेगा, वह आस्तिक व्यक्ति पापकरने की बात सोच भी कैसे सकेगा?
ईश्वर के प्रति अविश्वास ही पापों की जड़ है, इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति के लिए स्वेच्छाचारी बन जाता है। आत्मनियंत्रण के लिए ईश्वर-विश्वास अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। व्यकितगत सदाचार और सामूहिक कर्त्तव्य परायणता के पालन केलिए ईश्वर विश्वास के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता। इसलिए मनीषीयों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यककत्तर्व्यों में इर्श्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है। जो इसकी उपेक्षा करते है, उनकी भत्सर्ना की हैऔर उन्हें कई प्रकार के दण्ड़ों का भय भी बताया है।
खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है। भौतिकतावादी विचारधाराओं ने यहप्रतिपादित किया है कि इर्श्वर न तो आँखों से दिखाई पड़ता है और न प्रयोगशालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है,इसलिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं। अति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते है। न तो वे कर्मफल पर विश्वास करते है, और न उपासना की कोई आवश्यकता अनुभव करते है।
दूसरे प्रकार के नास्तिक इनसे भी गये-बीते हैं। वे अपने को आस्तिक कहते और किसी इर्श्वर को मानते भी है, परउनका यह कल्पित इर्श्वर वास्तविक इर्श्वर से भिन्न होता है। वे समझते हैं कि इर्श्वर तो केवल पूजा-स्तुति ही चाहताहै, इतने से ही प्रस्न्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता। पूजा करने वालों के समस्त पाप किसीसामान्य धार्मिक कमर्काण्ड के कर लेने से दूर हो जाते हैं। साथ ही वे इर्श्वर से यह आशा रखते हैं कि वह जरा सेपाठ-पूजन से बदले बिना योग्यता, पुरूषार्थ और लगन की जाँच किए मनमाना वरदान दे सकता है और उनकीसमस्त कामनाओं की पूर्ती कर सकता है। यह लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु, ब्राह्मण, परमात्मा के अधिक निकटहैं, इसलिए यदि उन्हें दान-दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाए तो अपनी तगड़ी सिफारिश परमात्मा के यहाँ पहुँचजाती है और फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दण्ड से बचने की सुविधा हो सकती है। हम देखते है कि आजकल नाममात्र की आस्तिकता इसी विडम्बना की धुरी पर घूम रही है।
यह प्रच्छन्न नाविकता दिखाई तो इर्श्वर विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होतीहै। आस्तिकता का असली लाभ पाप से भय उत्पन्न करना है। इसके विपरित जिस मान्यता के अनुसार दस-पाँच मिनट में पूरे हो सकने वाले कमर्काण्डों द्वारा ही समस्त पापों का फल नष्ट हो सकने का आश्वासन दिया गया हो,उससे तो उलटे पाप के प्रति निर्भयता ही बढ़ेगी। जब पाप-फल से बच सकना इतन सरल मान लिया गया, तोदुष्कर्मो द्वारा प्राप्त होने वाले आकषर्णों को छोड़ना कौन पसंद करेगा? ऐसी मान्यता से प्रभावित होकर मध्यकालीनराजाओं और सरदारों ने बबर्र अत्याचार और अनैतिक आचरण करने के साथ-साथ पूजा-पाठ के भी बड़े-बड़ेआयोजन किए थे। उन्होंने मंदिर भी बनवाये और भगवान को प्रसन्न करने वाले उत्सव आदि भी किये। पंडितों औरब्राह्मणों को कथा-भजन करने के लिए वृत्तियाँ भी दीं। सम्भवत: वे यही समझते थे कि उनका पहाड़ के बराबर अनैतिकता का कायर्क्रम इस प्रकार धन द्वारा रचाई पूजा-पाठ की धूमधाम के पीछे छिप जाएगा। पंडितों और पुजारियोंने अपनी आजीविका की दृष्टि से ऐसे आश्वासन भी गढ़ कर रख् दिए, जिससे कुमार्गामी व्यक्ति थोड़ा-बहुत दान-पुण्य करते रहने को तत्पर रहें। दान-पुण्य की परिभाषा भी इन लोगों ने बड़े विचित्र ढंग से की कि केवल ब्राह्मणवंश में उत्पन्न हुये व्यक्ति को जो कुछ दिया जाएगा, वह अवश्य पुण्य माना जाएगा।
विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार की अज्ञानमूलक धारणा व्यक्ति और समाज के लिए हानिकारकपरिणाम ही उपस्थित कर सकती है। पापों के दण्ड से बच निकलने का आश्वासन पाकर लोग चरित्रगठन की उपेक्षाकरने लगे, उनमें पापों का भय जाता रहा। ऐसी अनेक कथा-कहानियाँ गढ़ी गइर्, जिनमें निकृष्ट से निकृष्ट कमर्जीवन भर करते रहने वाले व्यक्ति केवल एक बार अनजाने-धोखे से- ‘‘नारायण’’ का नाम लेने से मुक्त हो गये इनकथाओं से सत्कमोर्ं की व्यथर्ता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगता है कि जीवन-शोधन के लिए श्रम और त्यागकरने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ कर लेना ही अधिक सुविधाजनक है। ऐसी शिक्षा देने वाला आध्यात्मवस्तुत: अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है।
आस्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य का सदाचारी और कत्तर्व्य परायण बनाना है। यदि इस बात को भुलाकर लोगदेवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान की रिश्वत देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें तो यह मानाजाएगा की उन्होंने इर्श्वर को भी रिश्वत लेकर उल्टा-सीधा, काम करने वाला मान लिया है। फिर तप, त्याग, संयम,धमर् कत्तर्व्य आदि के कष्टसाध्य मार्ग की उपयोगिता क्या रह जाएगी, जब इर्श्वर अपनी प्रतिमा के दशर्न करने वाले,स्तुति गाने वाले और भोग लगाने वाले पर ही प्रसन्न होने लगा तो फिर यही मागर् हर किसी का पसन्द आने लगेगा।फिर कोइर् क्यों उस सद्धमर् के नाम पर कष्ट सहने की प्रस्तुत होगा जिसमें सवर्स्व त्याग और तिल-तिल कर जलनेकी अग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।
( पुस्तक ‘अमर वाणी’ से )
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