Monday, 1 December 2014

आनन्दवाद

आनन्दवाद भारतीय चिंतन परम्परा का एक दर्शन है। आत्मा का स्वरूप सत्, चित् तथा आनन्द का है। आनन्दवाद में आत्मा के इसी आनन्द स्वरूप पर बल दिया जाता है, तथा सत् और चित् को गौण रखा जाता है।

तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि वह तो रस ही है। वैसा रस जिसे पाकर व्यक्ति आनन्दी हो जाता है। ऐसा रस सबको आनन्दित करता है। वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया कि इस आनन्द के अंशमात्र के आश्रय से ही सभी प्राणी जीवित रहते हैं। यहां आकर आनन्द परब्रह्म का वाचक ही हो जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद् इसे और आगे ले जाता है और कहता है कि आनन्द ही जगत का कारण, आधार और लय है।

आनन्द आत्मा का स्वाभाविक गुण है। वह अपने आप में स्थित है - संस्कृत में स्व स्थ, जो हिन्दी में जाकर स्वस्थ हो गया। यही अवस्था आनन्द की अवस्था है क्योंकि अन्य किसी अवस्था में, जैसे शोक, भय, रोग, क्रोध, लोभ, मोह, दुःख आदि, अपने आप में स्थित नहीं रह पाता। तभी हम उसे कहते हैं कि व्यक्ति स्व स्थ नहीं है या स्वस्थ नहीं है।

जबतक दो या द्वैत, जीवात्मा और परमात्मा, को बोध रहता है तब तक व्यक्ति में एक भय बना रहता है, इसलिए उसे आनन्द की प्राप्ति नहीं होती। जैसे ही व्यक्ति योगस्थ हो जाता है, अत्मा और परमात्मा में भेद का भान नहीं रहता, तथा व्यक्ति आनन्द की अवस्था में स्थित हो जाता है।

आनन्द को नित्य माना गया है। यह व्यक्ति में हर अवस्था में कुछ न कुछ रहता है। अत्मा का यही स्वभाविक लक्षण है। दुःख तो उपलक्षण है जो अनित्य है, आता है और जाता है। सुख दुःख का द्वन्द्व विषय भोग के कारण रहता है। जब व्यक्ति की विषयी अवस्था नहीं रहती, अर्थात् जब वह विषयभोग से परे चला जाता है तो वह सुख-दुःख से परे आनन्द में चला जाता है। सुषुप्ति की अवस्था एक उदाहरण के रूप में है जब शरीर और मन विषयी नहीं रह जाता, तथा व्यक्ति आनन्द में रहता है। कहते हैं योगी की अवस्था भी अनन्द की अवस्था हो जाती है क्योंकि वह भी योगस्थ अवस्था में विषयों तथा विषयभोगों से परे अवस्थित रहता है।

आनन्द सुख-दुःख को द्वंद्व से मुक्त है। यह सुख की तरह सातिशय नहीं बल्कि निरतिशय है। आनन्द सुख की तरह क्षणिक नहीं बल्कि नित्य है, परिवर्तनशील नहीं बल्कि स्थिर है। सुख का सम्बंध शरीर और इन्द्रियों से है, परन्तु इससे अलग आनन्द एक रसानुभूति है जो इन्द्रियों से परे आत्मा में स्थित है। इस प्रकार आनन्द सुख की तरह सांसारिक नहीं बल्कि अलौकिक है। आनन्द आत्मनिर्भर है, तथा सुख आनन्द पर। आनन्द श्रेयस की प्राप्ति कराता है न कि सुख की तरह प्रेयस की। आनन्द का सत्गुण से कभी विरोध नहीं होता जबकि सुख सत्गुण के विपरीत कर्मों से भी हो सकता है।

आध्यात्म में इसी आनन्द की अनुभूति की जाने की बात कही गयी है, जिसे प्राप्त कर लेने वाला व्यक्ति संसार के अन्य सभी सुखों को तुच्छ समझता है।

माना जाता है कि यह आनन्द आत्मज्ञान से आता है और इसकी प्राप्ति ही मोक्ष माना जाता है। आनन्द को ही एकमात्र और परम मूल्य माना गया है।

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