Tuesday, 16 December 2014

ईश्वर कौन हैं ? मोक्ष क्या है ? क्या पुनर्जन्म होता है ?

   ईश्वर कौन हैं ? मोक्ष क्या है ? क्या पुनर्जन्म होता है ?

           सभी जीवों में शायद मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसमें भाव ,भावना ,वुद्धि ,काम ,क्रोध ,लोभ , मोह, घृणा , ईर्षा ,प्यार इत्यादि स्वाभाविक प्रवृत्तियां ज्यादा पाई जाती है | अन्य जीवों में भी ऐसे अनेक सहज प्रव्र्तियाँ पाई जाती हैं परन्तु मनुष्य विशेष है एक प्रवृत्ति के लिए ,वह है "मोक्ष " पाने की प्रवृत्ति अर्थात जन्म-मृत्यु के कष्ट से मुक्ति | ऐसा माना जाता है  कि आत्मा (उर्जा की इकाई ) जब (महा शक्ति पुंज ) परमात्मा में मिल (विलय ) जाती है तो उसे जन्म-मृत्यु के दुःख कष्ट से मुक्ति मिल जाती है "|यही है 'मोक्ष' की  अवधारणा |                  अब "मोक्ष" कैसे मिले  ? न ईश्वर /अल्लाह को किसी ने देखा है ,न उनकी आकृत -प्रकृति को कोई जानता है और न उनकी निवास स्थान का पता है | इस अवस्था में समाज के हर व्यक्ति अपनी वुद्धि के अनुरूप ईश्वर की कल्पना की और उनके खोज में लग गए |  कुछ विशिष्ट लोगो ने मिलकर ईश्वर की खोज के लिए कुछ अनिवार्य कार्य और नियमों का निर्धारण कर दिया | इन कायों को करना और नियमों  का पालन करना "धर्म" माना गया |  अर्थात धर्म का पालन करके ही ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है |परन्तु विडंबना यह है कि कोई भी इस रास्ते पर चलकर ईश्वर तक पहुँच नहीं पाया | धर्म-कर्म सांसारिक है और आध्यात्मिकता पारलौकिक है |  जहाँ धर्म-कर्म समाप्त होता है वहीँ से आध्यात्मिकता शुरू होती है !                   मनुष्य के क्रमिक विकास के साथ साथ मनुष्य अनेक समूह में बंट गए और हर समूह ने धर्म-कर्मों का अलग अलग सूचि बना लिए |उन कर्मों का करना ही उस "धर्म " का पालन करना माना जाता है ,जैसे हिन्दू धर्म में पूजा पाठ,हवन करना , मुश्लिम में रोजा रख्नना ,नमाज पढना ,इत्यादि |इसी प्रकार हर धर्म का अलग अलग नियम है | परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या इन धर्म -कर्मों (कर्मकांड ) से आज तक किसी धर्म में कोई व्यक्ति ईश्वर की खोज कर पाया है ? उत्तर है "नहीं '| इसका सीधा अर्थ है कि न ईश्वर इन धर्म -कर्म (कर्मकांड )से मिलता है और न कोई धर्म पुस्तक पढने से मिलता है ,अगर मिलना होता तो आदिकाल से या जब से इन धर्मों की उत्पत्ति हुई है ,तब से आज तक किसी न किसी को मिलगया होता |चूँकि किसी धर्म के माध्यम से अभीतक ईश्वर नहीं मिला इसीलिए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता है कि उसका धर्म दुसरे धर्म से अच्छा है | इसके विपरीत सभी धर्म का इष्ट एक है | हम भूल जाते हैं कि हम धर्म  का पालन ईश्वर (परमात्मा ) की प्राप्ति के लिए करते है | इसिलिये  इसमें कोई बुरा काम नहीं होना चाहिए | इसके वावजूद हर धर्म में कुछ अच्छाईयाँ हैं तो कुछ बुराइयाँ भी | धर्म -कर्म एक राह  है |हम सब अलग अलग राह के राही हैं लेकिन मंजिल एक हैं | हमारी राह में अभी ईश्वर मिले नहीं है , इसीलिए हमारा कोई हक़ नहीं बनता है कि हम दूसरों को कहे कि तुम अपना राह छोड़कर मेरे राह में आ जाओ | यह अनुचित कार्य किसी को करना नहीं चाहिए | वास्तव में ईश्वर कोई विशेष धर्म (कर्मकांड ) में बंधे नहीं है | सत्य तो यह है कि सभी धर्मों का मूल सिद्धांत एक ही है ,वह है ,"ईश्वर मानव के ह्रदय में निवास करते हैं "| अत: इंसान को अंतर्मुखी होकर उस "अहम् ब्रह्मा अस्मि'का खोज करना  चाहिए | बाहर वह कहीं नहीं मिलेगा |अपने में ईश्वर को खोजना ही आध्यात्मिकता का पहला सोपान | सिद्ध मुनि ऋषि एवं महामानव गौतम बुद्ध ने यही किया | उन्हें शायद निराकार ब्रह्म (महाशक्ति पुंज या प्रकाश पुंज ) का दर्शन हुआ होगा , जिसमे केवल भौतिक वस्तु की दशा की स्थिति परिवर्तन दिखाई दी होगी ,निराकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ होगा | उस परम सत्ता से एकात्मभाव स्थापित किया होगा और परमानन्द का अनुभव किया होगा |इसीलिए इन कर्मकांडों का पालन करना ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक नहीं लगता यदि हम अपने अन्दर के परमशक्ति पर ध्यान केन्द्रित करने  में सक्षम है | इस परमशक्ति का कोई नाम नहीं है |यह तो हम अपने सुविधा के लिए उन्हें ईश्वर,अल्लाह ,गॉड आदि अलग अलग नाम से पुकारते है | इस परमाशक्ति को खोजना ही आध्यात्मिकता है |अत; धर्म -कर्म (कर्मकाण्ड ) से ज्यादा महत्वपूर्ण आध्यात्मिकता है |                आध्यात्मिकता अपने में निहित उस शक्तिकण (आत्मा )के अस्तित्व से परिचय कराता है और अंतत:उस परमशक्ति की ओर ले जाती है |                                            जय श्री कृष्ण !

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