Saturday, 27 September 2014

●©● मिल गया महाभारत काल का पीपल का वृक्ष ●©●

सेक्यूलर और अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े लोग..... खुद को सर्वाधिक ज्ञानवान और बुद्धिमान
साबित करते हुए..... अक्सर हम हिन्दुओं को ये समझाने का प्रयास करते हैं कि....
रामायण और महाभारत जैसी घटनाएं कभी हुई ही नहीं थी..... और, वे बस काल्पनिक
महाकाव्य हैं...!
दरअसल... वे ऐसे कर के .... भगवान और कृष्ण के को काल्पनिक बताना चाहते हैं... और,
साथ ही ये भी प्रमाणित करना चाहते हैं कि..... हम हिन्दू काल्पनिक दुनिया में जीते हैं...!
लेकिन.... हम हिन्दू भी हैं कि....
ऐसे सेक्यूलरों के मुंह पर तमाचा जड़ने के लिए..... कहीं न कहीं से ..... सबूत जुगाड़ कर ही
लाते हैं....!
जिन्होंने थोड़ी भी महाभारत पढ़ी होगी उन्हें वीर बर्बरीक वाला प्रसंग जरूर याद होगा....!
उस प्रसंग में हुआ कुछ यूँ था कि.....
महाभारत का युद्घ आरंभ होने वाला था और भगवान श्री कृष्ण युद्घ में पाण्डवों के साथ
थे....... जिससे यह निश्चित जान पड़ रहा था कि कौरव सेना भले ही अधिक शक्तिशाली है,
लेकिन जीत पाण्डवों की ही होगी।
ऐसे समय में भीम का पौत्र और घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक ने..... अपनी माता को वचन दिया
कि... युद्घ में जो पक्ष कमज़ोर होगा वह उनकी ओर से लड़ेगा !
इसके लिए, बर्बरीक ने महादेव को प्रसन्न करके उनसे तीन अजेय बाण प्राप्त किये थे।
परन्तु, भगवान श्री कृष्ण को जब बर्बरीक की योजना का पता चला तब वे ...... ब्राह्मण का
वेष धारण करके बर्बरीक के मार्ग में आ गये।
श्री कृष्ण ने बर्बरीक को उत्तेजित करने हेतु उसका मजाक उड़ाया कि..... वह तीन वाण से
भला क्या युद्घ लड़ेगा...?????
कृष्ण की बातों को सुनकर बर्बरीक ने कहा कि ......उसके पास अजेय बाण है और, वह एक
बाण से ही पूरी शत्रु सेना का अंत कर सकता है ..तथा, सेना का अंत करने के बाद उसका बाण
वापस अपने स्थान पर लौट आएगा।
इस पर श्री कृष्ण ने कहा कि..... हम जिस पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हैं... अगर, अपने बाण से

उसके सभी पत्तों को छेद कर दो तो मैं मान जाउंगा कि.... तुम एक बाण से युद्घ का
परिणाम बदल सकते हो।
इस पर बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार करके......भगवान का स्मरण किया और बाण चला दिया.।
जिससे, पेड़ पर लगे पत्तों के अलावा नीचे गिरे पत्तों में भी छेद हो गया....।
इसके बाद वो दिव्य बाण भगवान श्री कृष्ण के पैरों के चारों ओर घूमने लगा... क्योंकि, एक
पत्ता भगवान ने अपने पैरों के नीचे दबाकर रखा था...।
भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि धर्मरक्षा के लिए इस युद्घ में विजय पाण्डवों की होनी
चाहिए..... और, माता को दिये वचन के अनुसार अगर बर्बरीक कौरवों की ओर से लड़ेगा तो
अधर्म की जीत हो जाएगी.
इसलिए, इस अनिष्ट को रोकने के लिए ब्राह्मण वेषधारी श्री कृष्ण ने बर्बरीक से दान की
इच्छा प्रकट की....।
जब बर्बरीक ने दान देने का वचन दिया... तब श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उसका सिर मांग लिया...
जिससे बर्बरीक समझ गया कि ऐसा दान मांगने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता है।
और, बर्बरीक ने ब्राह्मण से वास्तविक परिचय माँगा.....और, श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि वह कृष्ण हैं।
सच जानने के बाद भी बर्बरीक ने सिर देना स्वीकार कर लिया लेकिन, एक शर्त रखी कि, वह
उनके विराट रूप को देखना चाहता है ....तथा, महाभारत युद्घ को शुरू से लेकर अंत तक
देखने की इच्छा रखता है,,,,।
भगवान ने बर्बरीक की इच्छा पूरी करते हुए, सुदर्शन चक्र से बर्बरीक का सिर काटकर सिर पर
अमृत का छिड़काव कर दिया और एक पहाड़ी के ऊंचे टीले पर रख दिया... जहाँ से बर्बरीक के
सिर ने पूरा युद्घ देखा।
============
और, ये सारी घटना ........ आधुनिक वीर बरबरान नामक जगह पर हुई थी.... जो हरियाणा के
हिसार जिले में हैं...!
अब ये .... जाहिर सी बात है कि .... इस जगह का नाम वीर बरबरान........ वीर बर्बरीक के नाम
पर ही पड़ा है...!
आश्चर्य तो इस बात का है कि..... अपने महाभारत काल की गवाही देते हुए..... वो पीपल का
पेड़ आज भी मौजूद है..... जिसे वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण भगवान के कहने पर... अपने वाणों से
छेदन किया था... और, आज भी इन पत्तो में छेद है । ( चित्र संलग्न)
साथ ही..... सबसे बड़ी बात तो ये है कि....... जब इस पेड़ के नए पत्ते भी निकलते है ......तो
उनमे भी छेद होता है !
सिर्फ इतना ही नहीं.... बल्कि, इसके बीज से उत्पन्न नए पेड़ के भी पत्तों में छेद होता है...!

अब बोलो सेक्यूलरों ... लग गया ना तुम्हारे मुंह पर ढक्कन ...??????

जय महाकाल...!!!

Friday, 26 September 2014


जितने भी लोग महाभारत को काल्पनिक बताते हैं.... उनके मुंह पर पर एक जोरदार तमाचा

है आज का यह पोस्ट...!
महाभारत के बाद से आधुनिक काल तक के सभी राजाओं का विवरण क्रमवार तरीके से नीचे
प्रस्तुत किया जा रहा है...!
आपको यह जानकर एक बहुत ही आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी होगी कि महाभारत युद्ध के पश्चात्
राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया था.....
जिसका पूरा विवरण इस प्रकार है :
क्र................... शासक का नाम.......... वर्ष....माह.. दिन

1. राजा युधिष्ठिर (Raja Yudhisthir)..... 36.... 08.... 25
2 राजा परीक्षित (Raja Parikshit)........ 60.... 00..... 00
3 राजा जनमेजय (Raja Janmejay).... 84.... 07...... 23
4 अश्वमेध (Ashwamedh )................. 82.....08..... 22
5 द्वैतीयरम (Dwateeyram )............... 88.... 02......08
6 क्षत्रमाल (Kshatramal)................... 81.... 11..... 27
7 चित्ररथ (Chitrarath)...................... 75......03.....18
8 दुष्टशैल्य (Dushtashailya)............... 75.....10.......24
9 राजा उग्रसेन (Raja Ugrasain)......... 78.....07.......21
10 राजा शूरसेन (Raja Shoorsain).......78....07........21
11 भुवनपति (Bhuwanpati)................69....05.......05
12 रणजीत (Ranjeet).........................65....10......04
13 श्रक्षक (Shrakshak).......................64.....07......04
14 सुखदेव (Sukhdev)........................62....00.......24
15 नरहरिदेव (Narharidev).................51.....10.......02
16 शुचिरथ (Suchirath).....................42......11.......02
17 शूरसेन द्वितीय (Shoorsain II)........58.....10.......08
18 पर्वतसेन (Parvatsain )..................55.....08.......10
19 मेधावी (Medhawi)........................52.....10......10
20 सोनचीर (Soncheer).....................50.....08.......21
21 भीमदेव (Bheemdev)....................47......09.......20
22 नरहिरदेव द्वितीय (Nraharidev II)...45.....11.......23
23 पूरनमाल (Pooranmal)..................44.....08.......07
24 कर्दवी (Kardavi)...........................44.....10........08
25 अलामामिक (Alamamik)...............50....11........08
26 उदयपाल (Udaipal).......................38....09........00
27 दुवानमल (Duwanmal)..................40....10.......26
28 दामात (Damaat)..........................32....00.......00
29 भीमपाल (Bheempal)...................58....05........08
30 क्षेमक (Kshemak)........................48....11........21

इसके बाद ....क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार
में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया जिसका
विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 विश्व (Vishwa)......................... 17 3 29
2 पुरसेनी (Purseni)..................... 42 8 21
3 वीरसेनी (Veerseni).................. 52 10 07
4 अंगशायी (Anangshayi)........... 47 08 23
5 हरिजित (Harijit).................... 35 09 17
6 परमसेनी (Paramseni)............. 44 02 23
7 सुखपाताल (Sukhpatal)......... 30 02 21
8 काद्रुत (Kadrut)................... 42 09 24
9 सज्ज (Sajj)........................ 32 02 14
10 आम्रचूड़ (Amarchud)......... 27 03 16
11 अमिपाल (Amipal) .............22 11 25
12 दशरथ (Dashrath)............... 25 04 12
13 वीरसाल (Veersaal)...............31 08 11
14 वीरसालसेन (Veersaalsen).......47 0 14

इसके उपरांत...राजा वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य
को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक
राज्य किया जिसका विरवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन

1 राजा वीरमाह (Raja Veermaha)......... 35 10 8
2 अजितसिंह (Ajitsingh)...................... 27 7 19
3 सर्वदत्त (Sarvadatta)..........................28 3 10
4 भुवनपति (Bhuwanpati)...................15 4 10
5 वीरसेन (Veersen)............................21 2 13
6 महिपाल (Mahipal)............................40 8 7
7 शत्रुशाल (Shatrushaal).....................26 4 3
8 संघराज (Sanghraj)........................17 2 10
9 तेजपाल (Tejpal).........................28 11 10
10 मानिकचंद (Manikchand)............37 7 21
11 कामसेनी (Kamseni)..................42 5 10
12 शत्रुमर्दन (Shatrumardan)..........8 11 13
13 जीवनलोक (Jeevanlok).............28 9 17
14 हरिराव (Harirao)......................26 10 29
15 वीरसेन द्वितीय (Veersen II)........35 2 20
16 आदित्यकेतु (Adityaketu)..........23 11 13

ततपश्चात् प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने
अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया
जिसका विवरण इस प्रकार है ..

क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा धनधर (Raja Dhandhar)...........23 11 13
2 महर्षि (Maharshi)...............................41 2 29
3 संरछि (Sanrachhi)............................50 10 19
4 महायुध (Mahayudha).........................30 3 8
5 दुर्नाथ (Durnath)...............................28 5 25
6 जीवनराज (Jeevanraj).......................45 2 5
7 रुद्रसेन (Rudrasen)..........................47 4 28
8 आरिलक (Aarilak)..........................52 10 8
9 राजपाल (Rajpal)..............................36 0 0

उसके बाद ...सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया।
अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य
किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह
27 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 समुद्रपाल (Samudrapal).............54 2 20
2 चन्द्रपाल (Chandrapal)................36 5 4
3 सहपाल (Sahaypal)...................11 4 11
4 देवपाल (Devpal).....................27 1 28
5 नरसिंहपाल (Narsighpal).........18 0 20
6 सामपाल (Sampal)...............27 1 17
7 रघुपाल (Raghupal)...........22 3 25
8 गोविन्दपाल (Govindpal)........27 1 17
9 अमृतपाल (Amratpal).........36 10 13
10 बालिपाल (Balipal).........12 5 27
11 महिपाल (Mahipal)...........13 8 4
12 हरिपाल (Haripal)..........14 8 4
13 सीसपाल (Seespal).......11 10 13
14 मदनपाल (Madanpal)......17 10 19
15 कर्मपाल (Karmpal)........16 2 2
16 विक्रमपाल (Vikrampal).....24 11 13

टिप : कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि
उसके दो नाम रहे हों।
इसके उपरांत .....विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर
आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया।
मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया जिसका
विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 मालकचन्द (Malukhchand) 54 2 10
2 विक्रमचन्द (Vikramchand) 12 7 12
3 मानकचन्द (Manakchand) 10 0 5
4 रामचन्द (Ramchand) 13 11 8
5 हरिचंद (Harichand) 14 9 24
6 कल्याणचन्द (Kalyanchand) 10 5 4
7 भीमचन्द (Bhimchand) 16 2 9
8 लोवचन्द (Lovchand) 26 3 22
9 गोविन्दचन्द (Govindchand) 31 7 12
10 रानी पद्मावती (Rani Padmavati) 1 0 0

रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम
वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया !
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 हरिप्रेम (Hariprem) 7 5 16
2 गोविन्दप्रेम (Govindprem) 20 2 8
3 गोपालप्रेम (Gopalprem) 15 7 28
4 महाबाहु (Mahabahu) 6 8 29

इसके बाद.......राजा महाबाहु ने सन्यास ले लिया । इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके
राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह
2 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 अधिसेन (Adhisen) 18 5 21
2 विल्वसेन (Vilavalsen) 12 4 2
3 केशवसेन (Keshavsen) 15 7 12
4 माधवसेन (Madhavsen) 12 4 2
5 मयूरसेन (Mayursen) 20 11 27
6 भीमसेन (Bhimsen) 5 10 9
7 कल्याणसेन (Kalyansen) 4 8 21
8 हरिसेन (Harisen) 12 0 25
9 क्षेमसेन (Kshemsen) 8 11 15
10 नारायणसेन (Narayansen) 2 2 29
11 लक्ष्मीसेन (Lakshmisen) 26 10 0
12 दामोदरसेन (Damodarsen) 11 5 19

लेकिन जब ....दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की
सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों
ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 दीपसिंह (Deepsingh) 17 1 26
2 राजसिंह (Rajsingh) 14 5 0
3 रणसिंह (Ransingh) 9 8 11
4 नरसिंह (Narsingh) 45 0 15
5 हरिसिंह (Harisingh) 13 2 29
6 जीवनसिंह (Jeevansingh) 8 0 1

पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार
प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 0 माह 20 दिन तक राज्य किया
जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 पृथ्वीराज (Prathviraj) 12 2 19
2 अभयपाल (Abhayapal) 14 5 17
3 दुर्जनपाल (Durjanpal) 11 4 14
4 उदयपाल (Udayapal) 11 7 3
5 यशपाल (Yashpal) 36 4 27

विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग

के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।

Tuesday, 23 September 2014

स्फ़टिक शिवलिंग-भाग्योदय साधना.

मनुष्य मूलत: पृथ्वी का ही भाग है,और इसी तत्व से उसमे मानसिक तथा शारीरिक स्थायित्व आती है.इस प्रकार स्फ़टिक पृथ्वि तथा अन्य तत्वो से ग्रहो से उर्जा ग्रहण कर मनुष्य मे पुन: सन्चारीत करने कि शक्ति रखती है.एक प्रकार से यह ''शक्ति केंन्द्र'' है,जो उर्जा को ग्रहण कर नियन्त्रित करती है.उसे इस प्रकार से प्रवाहीत करती है कि व्यक्ती उस उर्जा को ग्रहण कर सके और देह कि उर्जा मे गुणात्मक परिवर्तन कर सके.यहा तक कि उच्च कोटि के शिवलिंग स्फ़टिक शिवलिंग होते है.जिसके सामने बैठने मात्र से उर्जा भाव संचारित होति है.
किसी महा-शिवरत्रि कि शिवीर मे सदगुरुजीने तीन श्लोक बताये थे,ज्यो इस प्रकार है......................

स्फ़टिक लिंगमाराघ्यं सर्वसौभाग्यदायकम |
धनं धान्यं प्रतिष्ठाम च आरोग्यं प्रददाती स: ||
स्फटिक लिंगं प्रतिष्ठांप्य याजती यो पुमान |
रोगं शोकं च दारिद्रयं सर्व नश्चती तद गृहात ||
पूजनादास्य लिंगस्य अभ्यर्चनात सश्रध्दया |
सर्वपाप विनिर्मुक्तः शिव सायुज्यमाप्नुयात ||

साधना विधि :-

किसी भी सोमवार को स्फटिक शिवजी को अक्षत के आसन पे स्थापित कीजिये,दक्षिणमुख होकर आसन पर बैठे.फिर दूध,दही घी,शहद, और शक्कर से निम्न मंत्रो के साथ स्नान कीजिये .

ॐ शं सद्दोजाताय नम:दुग्धं स्नानं समर्पयामि |
ॐ वं वामदेवाय नम:दधि स्नानं समर्पयामि |
ॐ यं अघोराय नम:घृत स्नानं समर्पयामि |
ॐ नं तत्पुरुषाय नम:मधु स्नानं समर्पयामि |
ॐ मं ईशानाय नम:शर्करा स्नानं समर्पयामि |
 फिर शुद्ध जल से स्नान कीजिये तथा दुसरे पात्र में कुंकुंम से स्वस्तिक बनाकर शिवलिंग को स्थापित कीजिये.धुप दीप पुष्प तथा अक्षत आदि से ''ॐ नम:शिवाय'' बोलते हुए संक्षिप्त पूजन कीजिये.इसके बाद दूध से बने नैवेद्य का भोग अर्पित कीजिये.फिर शिवलिंग पर दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करते हुए निम्न मंत्र की १००८ बार जप करे.

मंत्र :-
|| ॐ शं शंकराय स्फटिक प्रभाय ॐ ह्रीं नम:||

अभिषेक वाले जल देवता को प्रणाम करते हुए प्रसाद रूप में ग्रहण कीजिये,यह प्रयोग २१ दिन का है ,इसके बाद शिवालिंग जी को पूजा स्थान में स्थापित कर दीजिये.

Friday, 19 September 2014

What are Mantras and how they work ?

Kavacha mantras
Every mantra has a kavacha mantra and hrudhaya mantra. Kavacha mantras contain prayers that seeks to protect us in all respects.Every kavacha mantra is unique in its own way. Kavacha mantras are great boon to humanity given by our rishis. Our life is full of risks. When we analyse the risks that are well known and risks which we are not in a position to imagine about we may find it not possible to remain alert always. Also when astrologers forewarn about any impending difficult times in near future we look forward to some means or tools to face the situation without much damage. Some tantricks give talisman to protect us from difficulties.
Going to a tantric is also not free from risks, because it is possible that he may like to make busyness out of our difficulties. In these situations Kavacha mantras become very handy and usefull tool for protection.
When we observe the lives of our saints rishis we can find that they prefer life only in secluded places espcially jungles.They wanted to be free from hassels of regular human life in towns villages and cities. Still they are not free from risks. They may face life endangering risks from wild animals.Of course one can jovially remark that life in cities along with fellow humans may be more dangerous than life with wild animals. Still one will be defenitely seek protection from ferocious wild animals like tigers,lions and elephants etc.
In these situations kavacha mantras help very much. Once we know the secrecy of Gayatri kavacha and its potential capablity towards protection we will not miss the oppurtunity to miss it. Unfortunately people lack faith on one side and being misguided by so called friends on the other side. This is the malady in kaliyuga.
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In these situations kavacha mantras help very much. Once we know the secrecy of Gayatri kavacha and its potential capablity towards protection we will not miss the oppurtunity to miss it. Unfortunately people lack faith on one side and being misguided by so called friends on the other side. This is the malady in kaliyuga.
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There are two important issues for success. Faith in mantra and faith in Guru and following his guidelines. Of course guideline from great texts like Srimadh Bhagawath Githa should also be taken into heart. Guru is a live person whom we can interact with and some principles any related issues which we are not able to easy comprehend can be made easy and symplified by guru.
Generally it is good that Guru should be a person totally acceptable to all members of family. The desciple should be able to handle any competetive situation successfully in the absence of Guru. Guruji must be able to shape the shisya that way with selfless process. Combination of Guru, shisya,faith,rhighteousnes
s,attitude along with faith in mantra will work wonders and great people are shaped only this way.
Kavacha mantras also make a person to be himself or herself. They protect from being lured by selfish individuals in sourroundings either relative, friend or any other aquaintance. In this world especially in kaliyuga activities of people are generally influenced by various desire, motivations and selfish purposes in total. Exploitations are rampant. People with knowledge in certain fields tend to exploit innocence of others. People who tend to exploit the other persons always resort to sweet words and flattery. Persons protected by kavacha mantras can easily smell the rat if found himself or herself flattered
Faith is the most required quality before proceeding on any specific mission. The real mission of every soul born in this world in flesh and blood should getting united with the consolidated soul ie "Parabrahmam" shedding away the need to be reborn in this world called "Mruthyulog"
Mantra is colourless odourless package of energy which can lift us to eternal bliss. It is a powerfull vehicle for us to travel in the ocean of social life in the mruthyulog which can only deliver distress at the end.
While travelling we can find and encounter many hindrances and disturbances through fellow creations and it requires our intelligence to ascertain and assess our own mission in this world and over come those disturbances in pursuit of our mission. People who are born in this world and think that they are born only to enjoy what they see here for enjoyments and feel that achievements of tools for their enjoyments are their birth rights also use mantras as tools. But ultimately they only accumulate their karmas and sow seeds for rebirth.
Recognition of logics behind the analysis of any topic relies much on the acceptablity to the reasoning of common man in respect of that topic. Relevance of mantras to human activities is an issue which I would like to highlight for the benefit of readers. It is my belief that we Indians have lot to contribute to the welfare of inhabitants of this planet but we are lagging behind because of still continuing of persistance of thoughts and cultural minglings of colonial rule. We are not fully Independant yet is what i believe based on our inability to make the world listen to what we have to say. I believe we can come out with wonderfull presentations for the benefit of humanity if we apply our research mind on what is said in our Vedic theories.
According to Hindu philosophy, when creation was considered after deluge A devine entity called Sri Bhrahma was created first, with directions to proceed with further creations based on concept called "Pancha thanmatras". Sabtam,sparsam,roopam, rasam and Gandham are those pancha thanmatras. So secrecy of creation lies within these fice concepts. Sabtam is sound,sparsam is feelings,roopam is light,rasam is essence and Gandham is smell. Then earth,water,fire,air and space was created to facilitate life and so on.
Saptam has an inherent capacity to influence all of rest and that is the essence of mantra and its working. When we take a living body there are five fields of activity called "Pancha koshas" in relegious terms. 428th Name in Sri Lalitha Sahasranama says "pancha koshantharasthithaayai nama". Following are the pancha koshas.
1.Anna maya kosham.2, Prana maya kosham,3,Manomaya kosham,4, Vignaana maya kosham,5,Aanandha maya kosham. Analysis of these five fields will bring out the beauty of creation and funtional relevance of mantras.

Sri Vidhyaranyar has constructed verses on these pancha koshas.They contain informations on these pancha koshas. I am not interested in quoting those slokas. My effort here is to make the readers to understand what I have understood on those five fields. Creation is of two nature. One is visible and the other is invisible,like sound,smell etc. Body is visible and living body thrives on food. Annam is food and body made of pancha boothas are annamaya kosham. Medical science has gone extensively into that and that science is limited to this kosham only. To some extent it speaks on Manomaya kosha with the nomenclature "Phsycology" . Still it is most attached with annamaya kosham only. All the activities including scientific analysis logics etc come within the purview of Vignanamaya kosham and our science which paves way for "Development" never goes beyond that. It has not even made any effort that way.
It is my view that if we consider relegion itself is a science and put our faith relegious theories we can peep into anandha mayakosham which paves way for access to knowledge about "Atma" as detailed in Srimadh Bhagawath geetha. Once we have faith relegion gives us a wonderfull tool called "mantra" with some beejaksharas. Practising these mantras gives us access to all areas of creation and finally leads to eternal pleasure or happyness.
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Mantras initiated by sadhguru help us lift ourselves,improve slowly, to the knowledge of atma and get ourselves reunited with "paramatha" the consolidated soul.In this kaliyuga every thing and all activities revolve around this annamaya kosham only ie body.Because it is the visible structure.
Though Annamaya kosham is mainly on material side there is spiritual angle also.Its activities can bring benefits to soul and help its mission towards total liberation.There is an inherent link among all the five koshas. The annamaya kosham or body is just like a system like computor,televesion set etc. The pranamaya kosham activates the annamaya kosham by its presence. Presence of pranamaya kosham only ensures readiness of annamaya kosham ie body for activation which becomes live and energetic only through manomaya kosham. Manomaya kosham finds source of improvements through Vignanamaya kosham by gaining knowledge through logistic analysis of various issues.
Hindu relegioun gives a different name to annamaya kosham ie body. It is considered a "Kshethram". Kshethram means place where the atma is tied up with. In Sridhmadh githa there is a separate chapter called "Kshethram kshethragna vibaaga yoga"

Body is Kshethram and God within body is Kshethragna
Once we realise the truths behind spritual side of body we can avoid many difficulties we face in real life. Those details are elobrated in Sri madh Bhagawath Githa

Thursday, 18 September 2014

एक उत्तम लेख । श्री महाकालेश्वर उज्जैन ।।

श्मशानमूषरं क्षेत्रं पीठं तु वनमेव च।
पंचैकत्र न लभ्यंते महाकालवनाद्‌ ऋते॥

प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जयिनी यदि नाभिदेश है तो भूलोक के प्रधान पूज्यदेव महाकाल हैं। सृष्टि का प्रारंभ उन्हीं से हुआ है-कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः। वस्तुतः भगवान्‌ महाकाल की प्रतिष्ठा और महिमा से जुड़े अनेक पौराणिक आख्यान मिलते हैं, जिनसे अवंती क्षेत्र में शैव धर्म की प्राचीनता के संकेत मिलते हैं । शिवपुराण के अनुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल के प्रथम चरण में हिरण्याक्ष की विजययात्रा के दौरान उसके सेनापति दूषण ने अवंती पर आक्रमण किया था। उस समय उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज्य था। पुरोहितों ने इस संकट के निवारण के लिए भगवान्‌ शिव की पूजा की सलाह दी, तब राजा ने स्वयं शिवजी का चमत्कार एक ग्वाले की शिवभक्ति में प्रत्यक्ष देखा। ग्वाला जहाँ शिव की पूजा किया करता था। वहीं वैदिक अनुष्ठानपूर्वक शिव मंदिर की स्थापना करवाई गई। संभवतः वही भगवान महाकालेश्वर के देवालय की स्थापना का प्रथम दिन था। विभिन्न युगों की गणना के आधार पर यह समय आज से करीब ग्यारह हजार नौ सौ वर्ष पहले अनुमानित है। त्रेता युग में सम्राट भरत के मित्र चित्ररथ अवंती क्षेत्र के राजा थे। भरत की चौथी पीढी के राजा रन्तिदेव ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया था। त्रेतायुग में अयोध्या में राजा हरिद्गचंद्र हुए थे, उनसे कुछ ही समय बाद महेश्वर (माहिष्मती) में हैहयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन जैसे प्रतापी सम्राट हुए, जो सहस्रबाहु के नाम से प्रख्यात हैं। उन्हीं के सौ पुत्रों में से एक आवंत या अवंती थे, जिनके नाम पर यह क्षेत्र अवंती कहलाया। त्रेतायुग में राम के पुत्र कुश स्वयं महाकालेश्वर के दर्शन के लिए अवंतिका में आए थे।


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं भगवान राम और श्रीकृष्ण ने महाकालेश्वर का पूजन किया था। महाकालेश्वर की प्राचीनता को लेकर अनेक पौराणिक, साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं, जो शैव साधना की दृष्टि से इस स्थान की महिमाशाली स्थिति को रेखांकित करते हैं। महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, इसीलिए उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने से 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है। पुराणों का संकेत साफ है-'प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी।' मृत्युलोक के स्वामी महाकाल इस नगरी के तब से ही अधिष्ठाता हैं, जब सृष्टि का समारंभ हुआ था। उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल तो स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं- 'नाभिदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः... इत्येषा तैत्तिरीश्रुतिः।' महाकाल का उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, गरुड़ पुराण, भागवत पुराण, लिंग पुराण, वामन पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण, सौर पुराण सहित अनेकानेक पुराण एवं प्राचीन ग्रंथों में सहज ही उपलब्ध है। भागवत में उल्लेख मिलता है कि श्रीकृष्ण, बलराम और मित्र सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में विद्याध्ययन पूर्ण कर स्वघर लौटने के पूर्व गुरुवर के साथ जाकर महाकाल की भक्ति भावनापूर्वक पूजा की थी। उन्होंने एक सहस्र कमल शिव जी के सहस्रनाम के साथ अर्पित किए थे।

पुराणकाल में तो महाकालेश्वर की विशिष्ट महिमा थी ही, पुराणोत्तर दौर में प्रद्योत युग, मौर्य युग, शुंग, शक, विक्रमादित्य, सातवाहन, गुप्त, हर्षवर्धन, प्रतिहार, परमार, मुगल, मराठा आदि सभी युगों में वे बहुलोकपूजित रहे हैं। विभिन्न युगों में उज्जैन में विकसित कला परम्पराएँ भी शैव धर्म के विविधायामी रूपांतर का साक्ष्य देती आ रही हैं।

सम्राट विक्रमादित्य की रत्नसभा के अनूठे रत्न महाकवि कालिदास (प्रथम शती ई. पू.) ने अपनी प्रिय नगरी उज्जयिनी और महाकालेश्वर मंदिर का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। उनके समय में यह पुण्य नगरी अपार वैभव और सौंदर्य से मंडित थी। इसीलिए वे इसे स्वर्ग के कांतिमान खण्ड के रूप में वर्णित करते हैं- 'दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्‌'। कालिदास के पूर्व भी यह नगरी अवन्ती या मालव क्षेत्र की प्रमुख नगरी थी ही, इसे राजधानी होने का भी गौरव मिला हुआ था। यहाँ सम्राट का राजप्रसाद भी था, कालिदास ने जिसके महाकाल मंदिर से अधिक दूर न होने का केत किया है-'असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः।' उज्जयिनी के राजभवन और हवेलियाँ भी दर्शनीय थे, जिनके आकर्षण में मेघदूत को बाँधने की कोशिश स्वयं कालिदास ने की है।

कालिदास के समय उज्जयिनी शैव मत का प्रमुख केन्द्र थी। महाकवि के समय से शताब्दियों पूर्व से ही इस नगरी में शैव साधना एवं शैव स्थलों की प्रतिष्ठा रही थी। इसके अनेक पौराणिक साहित्यिक, पुरातात्त्विक एवं मुद्रा शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं। महाकवि कालिदास ने भी शैव मत की प्रतिष्ठा की दृष्टि से उज्जयिनी की महिमा को विशेष तौर पर रेखांकित किया है। उनके काल में उज्जयिनी की पहचान महाकाल मंदिर और क्षिप्रा से जुड़ी हुई थी। लोकमानस में महाकाल की प्रतिष्ठा तीनों लोकों के स्वामी और चण्डी के पति के रूप में थी। उनका मंदिर घने वृक्षों से भरे-पूरे महाकाल वन के मध्य में था। वनवृक्षों की शाखाएँ बहुत ऊपर तक फैली हुई थीं। मंदिर का परिसर सुविस्तृत था, जिसके आँगन में सायंकाल को महाकाल के अर्चन एवं संध्या आरती के बाद नृत्यांगनाओं का नर्तन होता था। उन नर्तकियों के पैरों की चाल के साथ-साथ मेखलाएँ झनझनाती रहती थीं। उनके हाथों में रत्न जटित हत्थियों वाले चँवर रहते थे। नर्तन-पूजन के पश्चात्‌ वे मंदिर से बाहर निकलती थीं। मंदिर के अन्दर शिव-कथा पर आधारित प्रस्तर-शिल्प भी थे। महाकाल मंदिर में साँझ की पूजा विशेष महिमाशाली मानी जाती थी। उस समय नगाड़ों के गर्जन के साथ महाकालेश्वर की सुहावनी आरती होती थी। उधर महाकाल वन के वृक्षों पर साँझ की लालिमा छा जाती थी, जो श्रद्धालुओं को मोहित कर देती थी। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी इस प्रसंग को रेखांकित किया है -

महाकाल मंदिरेर माझे
तखन गंभीरमन्द्रे संध्यारति बाजे।

महाकाल की पूजा पद्धति का संकेत भी कालिदास साहित्य में प्राप्त होता है। रघुवंश तथा मेघदूत से ज्ञात होता है कि महाकाल के सुप्रसिद्ध मंदिर में पशुपति शिव की प्रतिमा रही। सन्ध्या के समय उस पर धूप आ जाने से ऐसा लगता है, मानो उसने गजचर्म पहन लिया हो। इससे स्पष्ट है कि मंदिर में महाकाल की प्रतिमा इस प्रकार प्रतिष्ठित थी कि उस पर संध्या का प्रकाश पड़ता था। या तो वह प्रतिमा बिना छत के देवायतन में प्रतिष्ठित थी अथवा पूर्व-पश्चिम में गर्भगृह ऐसा खुला था कि भीतर की प्रतिमा पर पूरी धूप आती रहती थी। मेघदूत का एक श्लोक तो स्पष्ट संकेत करता है कि महाकाल मंदिर में नृत्य करते शिवजी की अनेक भुजाओं वाली प्रमुख प्रतिमा थी जिसे भवानी भक्तिपूर्वक निहार रही हैं।

पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः।

नृत्यारम्भे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेह्णवां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या॥

कालिदास नीललोहित से मुक्ति की कामना भी करते हैं। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड (अध्याय-2) में नीललोहित का स्वरूप दिया गया है। तदनुसार उसमें पाँच मुख, दस भुजा, पन्द्रह आँखें, साँप की यज्ञोपवीत, जटा, चन्द्र और सिंहचर्म का वस्त्र बताया गया है। यह रूप महाकाल पशुपति का नहीं है। नटराज शिव की उज्जैन से प्राप्त आठवीं शती की एक खण्डित प्रतिमा ग्वालियर में सुरक्षित है। किन्तु कालिदास से यह प्रतिमा सदियों बाद बनी। कालिदास के युग में महाकाल की प्रतिमा रही, यह बृहत्कथा के संस्करणों से भी पुष्ट होता है। उसमें एक व्यक्ति महाकाल प्रतिमा के घुटनों पर सिर टिकाकर रोता है। उसमें महाकाल के हाथों की भी चर्चा है। मेघदूत में शिवलिंग का संकेत तो नहीं मिलता है, किन्तु ज्योतिर्लिंग अवश्य रहा होगा। पौराणिक परम्परा इस बात की बार-बार पुष्टि करती है।

गुप्त और हर्षवर्धन युग (335-848 ई.) में भी उज्जयिनी शैव मत का एक प्रमुख केन्द्र रही। महाकवि वाण ने अपनी कादम्बरी में उल्लेख किया है कि यहाँ महाकाल स्वरूप में शिव की आराधना की जाती है। यहाँ शंकर के अनेक मंदिर थे तथा प्रमुख चौराहों पर भी शिवलिंग स्थापित थे। यहाँ पर आधिपत्य रखने वाले यशोवर्धन, हर्षवर्धन जैसे अनेक शासक शिव के उपासक थे। हर्षवर्धन किसी भी सैनिक अभियान के पूर्व नील-लोहित शिव की पूजा किया करता था। यहाँ शिव के साथ शक्ति की पूजा का भी समन्वय रहा है।गुप्त युग में महाकाल मंदिर अत्यंत प्रशस्त और भव्य था। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के अनेक मंदिर थे। मंदिरों पर स्वर्ण-कलश और श्वेत पताकाएँ सुशोभित होती थीं। उनकी भित्तियों पर देव, दानव, सिद्ध, गंधर्व आदि के चित्र बने थे। यहाँ शिव की कामदेव के रूप में भी पूजा की जाती थी।

महाकाल वन जहाँ देश-दुनिया के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता रहा है, वहीं एक दौर में यहाँ आक्रांताओं ने हमले भी किए। एक मान्यता के अनुसार 1235 ई. के आसपास आततायी शासकों ने मालवा पर हमले के दौरान उज्जैन को भी लूटा था। महाकाल मंदिर में भी लूट-खसोट की गई थी, जिसका उल्लेख अंग्रेज इतिहासकारों ने किया है। परवर्ती काल में यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम सद्‌भावना का केन्द्र भी बना। अनेक मुस्लिम शासकों ने महाकाल सहित उज्जैन के विभिन्न मंदिरों में पूजा-प्रबंध के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध करवाई। शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सहित एक दर्जन मुस्लिम शासकों की ऐसी सनदें मिली हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने शाही खजाने से महाकालेश्वर एवं अन्य मंदिरों में पूजा आदि के लिए मदद की थी। देश के प्रमुख मंदिरों में नंदादीप (निरंतर प्रदीप्त रहने वाला दीपक) लगाने की प्रथा रही है। उसका निर्वाह महाकाल मंदिर में आज भी हो रहा है। इस परम्परा के निमित्त 1061 हिजरी में सम्राट आलमगीर ने चार सेर घी रोजाना जलाने के लिए एक सनद के माध्यम से राशि स्वीकृत की थी, जो धार्मिक सहिष्णुता का नायाब उदाहरण है।

मराठाकाल में राणोजी शिंदे के दीवान रामचंद्र बाबा सुखटनकर (या शेणवी) ने उज्जयिनी में धार्मिक पुनर्जागरण किया। उन्होंने 1730 के आसपास महाकाल के वर्तमान मंदिर, रामघाट, पिशाचमुक्तेश्वर घाट आदि का निर्माण करवाया था। इसी प्रकार पुराणोक्त चौरासी महादेव तथा अनेक शाक्त तथा शैव स्थलों के जीर्णोद्धार या नवीन प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य भी मराठाकाल में संभव हुआ। सिंधिया राज्य के संस्थापक महादजी ने महाकाल मंदिर और उसके पुजारी वर्ग का आस्थापूर्वक पोषण किया। भोज, ग्वालियर, होल्कर राज्य के राजवंशियों की ओर से महाकालेश्वर के पूजन आदि के लिए निरंतर सहायता प्राप्त होती रही थी।

वर्तमान महाकालेश्वर मंदिर एवं परिसर सुविस्तृत, विशाल और अलग-अलग युगों की कला संपदा को सहेजे हुए है। महाकाल के दक्षिण मूर्ति शिवलिंग की विस्तीर्ण रजत निर्मित जलाधारी अत्यंत कलामय और नागवेष्टित निर्मित हुई है। शिवजी के सम्मुख नंदी की पाषाणमूर्ति धातुपत्रवेष्टित विशाल प्रतिमा है। गर्भगृह में पश्चिम की ओर गणेश जी, उत्तर की ओर भगवती पार्वती और पूर्व में कार्तिकेय की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में निरंतर दो नंदादीप तेल एवं घी के प्रज्वलित रहते हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश के लिए पुरातन गलियारे के साथ ही अब विशाल सभागारयुक्त गलियारे बन गए हैं, जहाँ एक साथ सैकड़ों लोग दर्शन-आरती का आनंद ले सकते हैं महाकालेश्वर के ठीक ऊपरी भाग में ओंकारेश्वर की प्रतिमा है तथा सबसे ऊपरी तल पर नागचन्द्रेश्वर की। नागचंद्रेश्वर के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही होते हैं।

महाकालेश्वर परिसर में वृद्धकालेश्वर (जूना महाकाल), राम-जानकी, अवंतिका देवी, अनादिकल्पेश्वर, साक्षी गोपाल, स्वप्नेश्वर महादेव, सिद्धि विनायक, हनुमान, लक्ष्मी-नृसिंह आदि सहित अनेक लघु मंदिर भी हैं। मंदिर परिसर में विशाल कोटितीर्थ कुंड भी है, पुराणों में जिसकी बड़ी महिमा वर्णित है। कुंड के चहुँ ओर अनेक शिव मंदरियाँ हैं, जो इस स्थान के कला वैभव को बहुगुणित करती आ रही हैं। महाकाल मंदिर तथा आसपास के अन्य मंदिरों में परमारकालीन शिलालेख लगे हुए है जिनमें राजाभोज, उदयादित्य, नरवर्मन, निर्वाणनारायण, विज्जसिंह आदि राजाओं के भग्न शिलालेख प्राप्त हुए है। एक शिलालेख गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह का भी है, जिसने उज्जयिनी पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्‌ जिसकी स्मृति में यह अभिलेख मंदिर में लगवाया होगा। परमारकाल की अनेक कलात्मक प्रतिमाएँ मंदिर क्षेत्र में स्थान-स्थान पर लगी हुई हैं, जिनमें शेषशायी विष्णु, गरुडासीन विष्णु, उमा-महेश, कल्याण सुंदर, शिव-पार्वती, नवग्रह, अष्टदिक्‌पाल, पंचाग्नि तप करती पार्वती, गंगा-यमुना आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। पूर्व में यहाँ परमार राजाओं की प्रतिमाएँ भी लगी हुई थीं जिनमें से एक वर्तमान में विक्रम कीर्ति मंदिर स्थित पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है।

महाकाल मंदिर में त्रिकाल पूजा होती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले शिव पर चिताभस्म का लेपन किया जाता है। यह पूजा महिम्नस्तोत्र के 'चिताभस्मालेपः' श्लोक के अनुरूप होती है। इस पूजा हेतु किसी विशिष्ट चिताभस्म की निरंतर प्रज्वलित रहने वाली अग्नि से योजना की जाती है। तत्पश्चात्‌ क्रमशः प्रातः आठ बजे, मध्याह्‌न में और सायंकाल के समय महाकाल की पूजा, शृंगार आदि किया जाता है। रात्रि में 10 बजे शयन आरती होती है। विभिन्न व्रत, पर्व और उत्सवों के समय महाकालेश्वर मंदिर का परिसर असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था की विशेष केन्द्र बन जाता है। प्रतिवर्ष श्रावण मास के चार और भादौ मास के दो सोमवार पर निकलने वाली सवारियाँ देश-दुनिया के भक्तों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। इन सवारियों का मूल भाव यही है कि महाकाल राजाधिराज हैं और वे उज्जयिनी की मुखय सड़कों पर निकलकर प्रजा का हाल-चाल जानते हैं। इसी प्रकार की सवारियाँ कार्तिक मास में निकलती हैं। दशहरा पूजन के लिए महाकाल नए उज्जैन में पहुँचते हैं। महाशिवरात्रि, हरिहर मिलाप, रक्षाबंधन, वैशाख मास, नागपंचमी जैसे अनेक पर्वोत्सव भी इस मंदिर को विशेष आभा देते हैं। बारह वर्षों में उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के समय लाखों श्रद्धालु महाकालेश्वर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं।

महाकाल कालगणना के अधिष्ठाता देव भी है। खगोलशास्त्रीय दृष्टि से उज्जयिनी का महत्त्व सुदूर अतीत से बना हुआ है। इसी स्थान से कर्क रेखा गुजरती है, जो भू-मध्य रेखा को काटती है। इसी दृष्टि से उज्जैन को पृथ्वी और कालगणना का केन्द्र माना गया है। क्षिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। यह स्थान महाकाल मंदिर से अधिक दूर नहीं है। स्पष्ट है कि महाकाल पृथ्वी के केन्द्र बिन्दु पर स्थित हैं और वे ही कालगणना के प्रमुख यंत्र 'शंकु यंत्र' के मूल स्थान हैं।

श्लोक से लोक तक सभी की आस्था का केन्द्र हैं महाकालेश्वर। लोक और लोकोत्तर सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए भक्तगण अपनी-अपनी इच्छा उनके सम्मुख रखते हैं और उनकी पूर्ति के लिए मानवलोकेश्वर महाकाल का भंडार कभी रिक्त नहीं होता है।

Monday, 15 September 2014

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                अघोर
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अघोर – अर्थात जो घोर न हो, सरल हो, सहज हो

अघोर का ही अपभ्रंश शब्द है—औघड़। औघड़ और अघोर शब्द समानार्थी हैं। इसका अर्थ है जो घोर न हो अर्थात् जो भयानक, क्रूर, कठोर, दुरुह, कठिन पीड़ादायक न हो यानि सरल, सुहावना, मंगलकारी हो।
आप मेरे द्वारा की जा रही अघोर शब्द की व्याख्या पर चौंके रहे होंगे, परन्तु यह सत्य अर्थ है कि जो भयानक न हो, यानी जो घोर न हो, वही अघोर होता है।

किन्तु लोग अधोर या औघड़ का अर्थ लेते हैं, कठोर, अति घोर, अति भयानक, अत्यन्त विचित्र, महाक्रूर अर्थात् जो रंचमात्र भी सरल या सामान्य न हो, वही अघोर या औघड़ होता है। औघड़ या अघोर के ये दोनों प्रकार के अर्थ एक-दूसरे से विपरीत हो गये हैं। अतः पाठकों का चौंकना स्वाभाविक है। एक ही शब्द को विभिन्न विपरीत अर्थों में प्रयोग कैसे किया जा सकता है, यह सोचना भी स्वाभाविक है। वैसे अब तक आपने औघड़ या अघोर शब्द की पूर्ण व्याख्या की हो या न की हो, परन्तु इतना तो अवश्य समझते रहे होंगे कि औघड़ का, अघोर का अर्थ एक गन्दे, भयानक और क्रूर दिखने वाला व्यक्ति या साधु से है, क्योंकि समाज में प्राप्त होने वाले अघोरी या औघड़ दिखते ही ऐसे विचित्र एवं भयानक हैं जिनकी वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, चाल-चलन, बोल-चाल, कार्य-व्यापार, सभी कुछ अन्य संन्यासियों, संतों, साधुओं, उपासकों, एवं साधकों से भिन्न तथा विचित्र दिखाई पड़ता रहा है।

यह भी सत्य है कि औघड़ व अवधूत का सब कुछ विचित्र असामान्य एवं अन्य साधु-सन्तों से भिन्न होता है। भले ही वे स्वयं में सच्चे अघोर साधक हैं भी या नहीं। परन्तु उनका स्वरूप और व्यक्तित्व में औघडों की तरह होता और वह सब कुछ अन्य साधु-सन्तों से भिन्न होता है। यही भिन्नता तो उन्हें असामान्य बनाकर अघोर या औघड़ बनाती है। अन्य साधु-संतों से यहाँ तक कि अन्य शैव-साधकों एवं उपासकों से भी भिन्न तथा विचित्र होते हैं—अघोर साधक ! औघड़ तथा अवधूतों का अपना अलग संसार ही होता है।

अब यह जान लें कि अघोर शब्द को सरल और कठिन, भय रहित और भयानक, कोमल और कठोर, भावुक और शुष्क, दयालु और क्रूर जैसे विपरीत अर्थों में बाँधते हैं जो कि सर्वथा असंभव है नहीं, क्योंकि मनुष्य के दो व्यक्तित्व होते हैं। एक बाह्य व्यक्तित्व और दूसरा आन्तरिक व्यक्तित्व। आन्तरिक व्यक्तित्व में दोनों प्रकार की विरोधी विचारधाराओं एवं भावनायें भी होती हैं। सुख-दुख, हर्ष-विषाद, कोमल, -कठोर, दया-क्रोध सत्-असत, सरल, कठिन, आतंक, कृपा, वरदान, शाप जैसी विरोधी भावनायें समय-समय पर अपना सर उठाती ही रहती हैं। अघोर या औघड़ भी इसी प्रकार की भावनाओं एवं अर्थों से परिपूर्ण होते हैं। शिव के अघोर एवं अवधूत अवतार से अघोर एवं औघड़, साधना एवं शक्ति का जन्म हुआ था। अघोर साधना तथा शक्ति घोर योग को सिद्ध करने पर प्राप्त होती हैं। घोर योग का अर्थ है—कठिन योग साधना। यानी साधारण योग नहीं। असाधारण योग की साधना करके ही कोई शैव अघोर बन सकता है।

अघोर शक्ति प्राप्त करने के लिए साधक को योगसाधना के प्रत्येक अंग का परिमार्जन कर प्रथम सोपान से, चढ़ता हुआ चरम सीमा के अंतिम सोपान तक पहुंचना होता है। साधारण योग साधना से ही साधक को तन-मन और समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। ऐसा योग साधक अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने मर्जी के अनुसार ही अनुशासित बना लेता है। किन्तु घोर योग की साधना में सफल हुआ घोर साधक यानी अवधूत या औघड़ उससे भी उच्चकोटि का हो जाता है। उसकी इन्द्रियाँ उसके वश में ही नहीं होती, वरन् वह अपनी कुछ या सभी इन्द्रियों को निष्क्रिय कर देता है। इन्द्रियाँ जब पूर्णतया निष्क्रिय हो जाती हैं तो उनमें किसी प्रकार की संवेदनशीलता नहीं रह जाती। इसे हम और सरल ढंग से समझें तो यह कि त्वचा रूपी इन्द्रिय जब पूरी तरह संवेदनशील हो गयीं तब उस त्वचा पर चाहे कोमल स्पर्श हो या कठोर दोंनो ही पूरी तरह बराबर हैं।

ऐसी त्वचा को मच्छर डसें या साँप समान हैं। ऐसी त्वचा पर चाहे चंदन का लेप हो या मल का, फूल चुभें या काँटे। इत्र लगे या मूत्र सब अर्थहीन है या उनका प्रभाव एक-सा ही होगा। इसी प्रकार नासिका रूपी इन्द्रिय के लिए भी होता है। चाहे सुगन्ध मिले या दुर्गन्ध समान है। जिह्वा और कंठ के लिए संवेदनशीलता एक समान हो जायेगी। जिह्वा ने जब अपनी, संवेदनशीलता त्याग दी तब साधक नमक, मिठाई, खट्टा, तीखा, गर्म, ठण्डा, कसैला, सुगन्धित, दुर्गन्धित कुछ भी आये, समान स्वाद देगा। इसी प्रकार पाँचों कर्मेन्द्रियां और ज्ञानेन्द्रियों के विषय में जान सकते हैं। जब घोर योग द्वारा समस्त इन्द्रियों को निष्क्रिय कर लिया जाता है, तब आध्यात्मिक शक्ति का विकास हो जाता है और प्राण वायु मूलाधार में स्थित कुंडलिनी को जाग्रत कर सहस्त्रासार तक पहुँचा देती है। फिर तो शून्य शिखर में कुंडलिनी विराजमान हो परमानंद की अनुभूति कराती रहती है।

घोर योग की उपरोक्त विधि से साधना करके साधक अघोर बन जाता है। ऐसे अघोर, औघड़ एवं अवधूत को संसार में रहते हुए भी संसार और सांसारिकता की कोई चिन्ता नहीं रहती है। उसके लिए सारा विश्व, समस्त सृष्टि एक-सी ही लगती है। वह जीव में, निर्जीव में, चैतन्य में शिव की सत्ता अघोरेश्वर का दर्शन ही करता है। उसके कंठ में सुगन्धित पुष्पों की माला हो या विषधर, रुद्राक्ष हो, हीरे-मोती हों या कि कंकाल की अस्थियाँ सब समान होंगी। वह वस्त्र या मृगचर्म या व्याग्रचर्म धारण किये हो अथवा दिगम्बर हों क्या फर्क पड़ता है ?

वह नग्न हो या दिव्य राजसी वस्त्र पहने हो, एक समान रहेगा। व सुस्वादु व्यंजन ग्रहण कर रहा हो या सड़ा हुआ पशु मानव का माँस दोनों एक जैसे ही लगेंगे। उसे गंगाजल और मदिरा में कोई भेद नहीं दिखता, वह फूलों की सेज में सोये या शिला पर अथवा काँटों पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। कहने का तात्पर्य यह है कि अघोर शक्ति प्राप्त हो जाने पर औघड़ को सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, गर्मी-सर्दी का अनुभव ही नहीं होता। इतना ही नहीं, उसका मन निर्विकार भाव से परिपूर्ण हो जाता है। सामान्य से असामान्य और मानव से शिव समान बना देने वाली इस महान अघोर साधना से जो शक्ति प्राप्त होती है, वही अघोर शक्ति है।

अघोर शक्ति की पूर्णता प्राप्त करने वाले सच्चे सिद्ध अवधूतों में अग्नि तत्त्व कभी बढ़ने या हावी नहीं होने देते। ये सिद्ध औघड़ संतों की तरह शान्त, सरल और भय रहित होते हैं। ऐसे लोग समाज से सम्बन्ध ही नहीं रखते। ये अवधूतेश्वर शिव की उपासना में अधिकांश समय ध्यान एवं समाधि में व्यतीत करते है और हिमालय, मानसरोवर या जंगलों में निर्जन स्थानों पर निवास करते हैं। यह बात अवश्य होती है कि यदि कोई व्यक्ति ऐसे सिद्ध अवधूतों के सम्पर्क में आ जाता है। और वे उसकी सेवा से प्रसन्न हो जाते हैं या कोमल भावना का जागरण हो जाता है, तो वे मात्र अपने चिंतन (सोच-विचार) या वाणी से ही व्यक्ति का हित, साधन एवं कल्याण कर देते हैं। स्वतंत्र एवं सांसारिकता से निर्लिप्त होने के कारण इन लोगों की वाणी में स्वच्छन्दता बनी रहती है। इसके साथ ही इनके अपशब्द या गालियाँ भी प्रेम एवं स्नेह से भरे रहते हैं। ये लोग किसी की परवाह नहीं करते, क्योंकि यह स्वयं शिव हो जाते हैं।

ऐसे लोगों की वाणी से निकला वरदान या शाप कभी निष्फल नहीं जाता है। वे जो कुछ कहते हैं, सोचते हैं वह सत्य एवं सुलभ हो जाता है। अघोर शक्ति प्राप्त सिद्ध औघड़ स्वयं में परम ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। तब वह शिवोऽहम की श्रेणी में आकर ही अवधूतेश्वर समान हो जाता है। इसीलिए बड़ी प्रबल होती है—औघड़ शक्ति
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         सप्त चक्र भेदन – एक सहज, सरल तथा सुरक्षित तांत्रिक योग विधि -2
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चक्रों मे ध्यान सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखे!

मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र पर तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए! मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अब मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोकना नही है! मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती है! मूलाधारचक्र को व्यष्टि मे पाताललोक और समिष्टि मे भूलोक कहते है! जब तक मनुष्य ध्यान नही करता तब तक वह शुद्र ही कहलाता है! उस मनुष्य का ह्र्दय काला अर्थात अन्धकारमय है, कलियुग मे है!

जब मनुष्य ध्यान साधना शुरु करता है तब वो क्षत्रिय यानि योद्धा बनजाता है, उसका हृदय चालक हृदय बन जाता है और वह साधक फिर भी कलियुग मे ही है! मूलाधारचक्र पृथवी तत्व का प्रतीक है यानि गंध तत्व है! मूलाधारचक्र पीले रंग का होता है, मिठे फल सी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे सहदेवचक्र कहते है! कुंडलिनी को पांडवपत्नी द्रौपदि कहते है! श्री सहदेव का शंख मणिपुष्पक है! ध्यान कर रहे साधक को जो नकारात्मक शक्तियाँ रोक रही होती है उन का दमन करते है श्री सहदेव! कुंडलिनी शक्ति जो शेष नाग जैसी होती है वह मूलाधारचक्र के नीचे अपना फ़ण नीचे की ओर एवम पुँछ उपर की और करके साढे तीन लपेटे लिये हुए सुषुप्ती अवस्था मे रह्ती है! साधना के कारण ये शेषनाग अब जागना आरंभ करता है! जाग्रत हो रहा शेष नाग मूलाधारचक्र को पार करेगा और स्वाधिस्ठानचक्र की ओर जाना शुरु करेगा! मूलाधारचक्र शेष के उपर होता है, इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे कुंडलिनी को श्री पद्मावति देवी कहते है और मूलाधारचक्र को शेषाद्रि कहते है! यहा जो समाधि मिलती है उस को सविकार संप्रज्ञात समाधि कहते है!

मूलाधारचक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है! पृथ्वी तत्व का अर्थ गंध है! संप्रज्ञात का अर्थ मुझे परमात्मा के दर्शन लभ्य होगे या नही होगे ऐसा संदेह होना! इस चक्र मे ध्यान साधक को इच्छा शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल को साधक को अपने पास नही रखना चाहिये, इसी कारण ‘’ध्यानफल श्री विघ्नेश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! मूलाधारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 96 मिनटों मे 600 हंस होते है! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए! तनाव डाले! वरुण मुद्रा लगाए! कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार छः बार लंबी श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही! स्वाधिस्ठानचक्र को व्यष्टि मे महातल लोक और समिष्टि मे भुवर लोक कहते है! साधक अब द्वापर युग मे है!

स्वाधिस्ठानचक्र मे छः पंखडियाँ होती है! स्वाधिस्ठानचक्र सफेद रंग का होता है, साधारण कडवी सी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीनकुलजी का चक्र कहते है! श्रीनकुलजी का शंख सुघोषक है! यह चक्र ध्यान कर रहे साधक को आध्यात्मिक सहायक शक्तियों की तरफ मन लगा के रखने मे सहायता करता है! स्वाधिस्ठान चक्र मे ध्यान करने से पवित्र बंसुरिवादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय पवित्र बंसुरिवादन सुनके स्थिर होने लगते है, साधक को इधर द्विज कहते है! द्विज का अर्थ दुबारा जन्म लेना! इधर साधक को पश्चाताप होता है कि मैने इतना समय बिना साधना किए व्यर्थ ही गवाया, इसी कारण द्विज कहते है! सुनाई देने को संस्कृत भाषा मे वेद कहते है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे स्वाधिस्ठानचक्र को वेदाद्रि कहते है! इधर जो समाधि मिलती है उस को सविचार संप्रज्ञात समाधि या सामीप्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान करने से साधक को क्रिया शक्ति की प्राप्ति होती है! इस का अर्थ हाथ, पैर, मुख, शिश्न( मूत्रपिडों मे) और गुदा यानि कर्मेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री ब्रह्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! स्वाधिस्ठान चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 144 मिनटों मे 6000 हंस होते है!

अब मणिपुर चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, अग्नि मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डाले! मणिपुरचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार दस बार लंबी श्वास लेवे और छोडे ! श्वास को रोके नही! मणिपुरचक्र को व्यष्टि मे तलातल लोक और समिष्टि मे स्वर लोक कहते है! साधक अब त्रेता युग मे है! मणिपुर चक्र मे दस पंखडियाँ होती है! इसी कारण इसे रावण चक्र भी कहते है! मणिपुरचक्र लाल रंग का होता है, कडवा रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीअर्जुनजी का चक्र कहते है! श्रीअर्जुनजी का शंख दैवदत्त है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य आत्मनिग्रह शक्ति लभ्य कराते है श्रीअर्जुनजी! मणिपुरचक्र मे ध्यान करने से वीणा वादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस वीणा वाद्य नाद को सुन कर भक्तिवान हृदय बनेगा! साधक विप्र बन जायेगा! इधर जो समाधि मिलती है उस को सानंद संप्रज्ञात समाधि या सायुज्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को ज्ञान शक्ति की प्राप्ति होती है! इस का अर्थ कान (शब्द), त्वचा (स्पर्श), आँख (रूप), जीब (रस) और नाक (गंध), ये ज्ञानेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री श्रीविष्णुदेवार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! मणिपुर चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर ज्ञान(ग) आरूढ(रुड) होता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे मणिपुर चक्र को गरुडाद्रि कहते है!

अब अनाहतचक्र मे जाए, उस चक्र मे तनाव डाले, वायु मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।अनाहतचक्र मे तनाव डाले! अनाहतचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार बारह बार लंबी श्वास लेवे और छोडे! अनाहत चक्र को व्यष्टि मे रसातल लोक और समिष्टि मे महर लोक कहते है! साधक अब सत्य युग मे है! अनाहत चक्र मे बारह पंखडियाँ है! श्री भीम और आंजनेय दोनों वायु देवता के पुत्र है! इसी कारण इसे वायु चक्र, आंजनेयचक्र भी कहते है! अनाहत चक्र नीले रंग का होता है, खट्टी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीभीम का चक्र भी कहते है! श्रीभीमजी का शंख पौंड्रं है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य प्राणायाम नियंत्रण शक्ति को लभ्य कराते है

अनाहत चक्र मे ध्यान करने से घंटा वादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस घंटावाद्य नाद को सुनकर शुद्ध हृदय बनेगा! साधक ब्राह्मण बन जायेगा! कुंडलिनी अनाहत चक्र तक नही आने तक साधक ब्राह्मण नही बन सकता! मनुष्य जन्म से ब्राह्मण नही बनता, प्राणायाम क्रिया करके कुंडलिनी अनाहत चक्र तक आने पर ही ब्राह्मण बनता है! इधर जो समाधि मिलती है उस को सस्मित संप्रज्ञात समाधि या सालोक्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को बीज शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल साधक को “ध्यानफल श्री रुद्रार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिए! अनाहत चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 288 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर साधक को वायु मे उड रहा हू जैसी भावना आती है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे अनाहतचक्र को अंजनाद्रि कहते है! अब विशुद्ध चक्र मे जाए, इस चक्र पर तनाव डाले, शून्य यानि आकाश मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्ध चक्र मे तनाव डाले! अनाहत चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार सोलह बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोक्ना नही है!विशुद्धचक्र को व्यष्टि मे सुतल लोक और समिष्टि मे जन लोक कहते है! विशुद्धचक्र मे सोलह पंखडियाँ होती है! विशुद्धचक्र सफेद मेघ रंग का होता है, कालकूटविष जैसी अति कडवी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीयुधिस्ठिर का चक्र कहते है! श्रीयुधिस्ठिर का शंख अनंतविजय है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य शांति लभ्य कराते है श्रीयुधिस्ठिरजी! विशुद्धचक्र मे ध्यान करने से प्रवाह ध्वनी सुनाई देगी! इधर असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि लभ्य होती है! असंप्रज्ञात का अर्थ निस्संदेह! साधक को सगुण रूप मे यानि अपने अपने इष्ट देवता के रूप मे परमात्मा दिखायी देते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को आदि शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल को साधक ‘’ध्यानफल श्री आत्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! विशुद्धचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 384 मिनटों मे 1000 हंस होते है! असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि लभ्य होने से संसार चक्रों से विमुक्त हो के साधक सांड के जैसा परमात्मा के तरफ दौड पडता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे विशुद्ध चक्र को वृषभाद्रि कहते है!

अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए! शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें। आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपने शक्ति के अनुसार 18 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही! अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे ही बैठे रहे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 20 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही!आज्ञा पाजिटिव को व्यष्टि मे वितल लोक और समिष्टि मे तपो लोक कहते है! श्री योगानंद, विवेकानंद .लाहिरी महाशय जैसे महापुरुष सूक्ष्म रूपों मे इधर तपस करते है! इसी कारण इस को तपोलोक कहते है! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे दो पंखडियाँ है! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे प्रकाश ही प्रकाश दिखायी देता है! इस को श्रीकृष्ण चक्र कहते है! श्रीकृष्ण का शंख पांचजन्य है! पंचमहाभूतों को कूटस्थ मे एकत्रीत करके दुनिया रचाते है, इसी कारण इस को पांचजन्य कहते है! सविकल्प समाधि अथवा स्रष्ठ समाधि लभ्य होती है! यहा परमात्मा और साधक आमने सामने है! इस चक्र मे ध्यान साधक को परा शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल साधक को ‘’ध्यानफल श्री ईश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 48 मिनटों मे 1000 हंस होते है! इस चक्र से ही द्वंद्व शुरु होता है! केवल एक कदम पीछे जाने से फिर संसार चक्र मे पड सकता है साधक! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे आज्ञा पाजिटिव चक्र को वेंकटाद्रि कहते है! एक कदम आगे यानि अपने ध्यान को और थोडा करने से अपने लक्ष्य परमात्मा मे लय हो जाता है

साधक अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, लिंग मुद्रा मे बैठे! मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे। सहस्रार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 21 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! सहस्रारचक्र को व्यष्टि मे अतल लोक और समिष्टि मे सत्य लोक कहते है! ये एक ही सत्य है बाकी सब मिथ्या है, इसी कारण इस को सत्यलोक कहते है! सहस्रारचक्र मे हजार पंखडियाँ होती है! यहा निर्विकल्प समाधि लभ्य होती है! परमात्मा, ध्यान और साधक एक हो जाते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को परमात्म शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान के फल को साधक ‘’ध्यानफल सदगुरू परमहंस श्री श्री योगानंद देवार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! सहस्रारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 1000 हंस होते है! तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे सहस्रार चक्र को नारयणाद्रि कहते है!

Sunday, 14 September 2014

सप्त चक्र भेदन – एक सहज, सरल तथा सुरक्षित तांत्रिक योग विधि

ज्ञानेंद्रियों के व्यापार को बंद करना—ज्ञानेंद्रिय शक्ति प्रदान क्रियाए……..
सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखीए! मन जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए!
मूलाधार चक्र पर तनाव डालकर पृथ्वीमुद्रा लगाए! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र मे तनाव डालिए! 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! यानि चार दीर्घ हंसा लीजिए! मूलाधारचक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है! पृथ्वी तत्व गंध को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है नाक बंद हो गई एवम मुलाधारचक्र का करंट उपसंहरण होकर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है!
अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए, वरुणमुद्रा लगाए! कनिष्ठा
अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।स्वाधिस्ठानचक्र पर तनाव डालिये! छः बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र वरुण तत्व का प्रतीक है! वरुण तत्व रस या रुचि को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है जीभ बंद हो गई एवम स्वाधिस्ठानचक्र का करंट उपसंहरण हो कर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है!

अब मणिपुर चक्र मे चले! अग्नि या सुर्यमुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुलि को मोडकर अंगुष्ठ के मूल भाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।मणिपुरचक्र पर तनाव डालिये! 10 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मणिपुरचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र अग्नि तत्व का प्रतीक है! अग्नि तत्व रूप या द्रष्टि को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है आँख बंद हो गई एवम मणिपुरचक्र का करंट उपसंहरण होकर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाता है! अब अनाहतचक्र मे चले एवम वायुमुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।अनाहत चक्र मे तनाव डालिये! 12 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब अनाहतचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र वायु तत्व का प्रतीक है! वायु तत्व स्पर्श या त्वचा को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है त्वचा बंद हो गई एवम अनाहतचक्र का करंट उपसंहरण हो कर सुषुम्ना द्वारा सहस्रार चक्र मे पहुंच जाएगा! अब विशुद्ध चक्र मे चले और शून्य या आकाशमुद्रा मे बैठे!मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल भाग मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।विशुद्धचक्र पर तनाव डाले! 16 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब विशुद्ध चक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! विशुद्धचक्र आकाश तत्व का प्रतीक है! आकाश तत्व शब्द या सुनने को प्रदर्शित करता है! इस का तात्पर्य है कान बंद हो गया और विशुद्धचक्र का करंट उपसंहरण हो केर सुषुम्ना द्वारा सहस्रारचक्र मे पहुंच जाएगा!
अब विशुद्धचक्र मे ही मन लगाके इसी शून्य मुद्र मे बैठे! 16 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! विशुद्धचक्र पर से तनाव छोड देवे! इस का मतलब शब्द या कान फिर से चालू हो गया! अब अनाहत चक्र मे जाकर वायुमुद्र मे बैठीए!
तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखे! अनाहत चक्र मे तनाव डालिये! 12 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब अनाहतचक्र मे मन लगाकर कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अनाहतचक्र पर तनाव छोड देवे! इसका मतलब स्पर्श या त्वचा फिर से चालू हो गए!
अब मणिपुर चक्र मे चले! अग्निमुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुर चक्र मे तनाव डालिये! 10 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मणिपुरचक्र मे मन लगावे, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मणिपुरचक्र पर से तनाव छोड देवे! इसका मतलब रूप या आँख फिर से चालू हो गए!
अब स्वाधिस्ठान चक्र मे जाए! वरुणमुद्र मे बैठे! कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे तनाव डाले! 6 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! स्वाधिस्ठानचक्र पर से तनाव छोड देवे! इसका मतलब रस या जीभ फिर चालू हो गए!
अब मूलाधारचक्र मे जाए! पृथ्वीमुद्रा मे बैठे!
अनामिका अंगुलि के अग्रभाग को अंगुष्ठ के अग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मूलाधारचक्र पर तनाव डालिए! 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! अब मूलाधार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मूलाधारचक्र पर से तनाव छोड देवे, इसका मतलब गंध या नाक फिर से चालू हो गए!
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध फिर से चालू हो गए!
नियमित रुप से ये क्रियाए करने से समस्त इंद्रियों की शक्ति मे अभिवृद्धि होती है! ये प्राणायाम पद्धतियाँ इंद्रियो की समस्त नकारात्मकता को समाप्त कर सकारात्मक क्रियाओ को फिर से चालु कर देती है!

Saturday, 13 September 2014

कुंडलिनी जागरण के प्रारंभिक अनुभव


संयम और सम्यक नियमों का पालन करते हुए लगातार ध्यान करने से धीरे धीरे कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है और जब यह जाग्रत हो जाती है तो व्यक्ति पहले जैसा नहीं रह जाता। वह दिव्य पुरुष बन जाता है।

कुंडलिनी एक दिव्य शक्ति है जो सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार में स्थित है। जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक व्यक्ति सांसारिक विषयों की ओर भागता रहता है। परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जो घूमती हुई ऊपर उठ रही है। यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है। 

हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं। कुंडलिनी का एक छोर मूलाधार चक्र पर है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ लिपटा हुआ जब ऊपर की ओर गति करता है तो उसका उद्देश्य सातवें चक्र सहस्रार तक पहुंचना होता है, लेकिन यदि व्यक्ति संयम और ध्यान छोड़ देता है तो यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है।

जब कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले व्यक्ति को उसके मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है। फिर वह कुंडलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुकती है उसके बाद फिर ऊपर उठने लग जाती है। जिस चक्र पर जाकर वह रुकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों में स्थित नकारात्मक उर्जा को हमेशा के लिए नष्ट कर चक्र को स्वस्थ और स्वच्छ कर देती है।

कुंडलिनी के जाग्रत होने पर व्यक्ति सांसारिक विषय भोगों से दूर हो जाता है और उसका रूझान आध्यात्म व रहस्य की ओर हो जाता है। कुंडलिनी जागरण से शारीरिक और मानसिक ऊर्जा बढ़ जाती है और व्यक्ति खुद में शक्ति और सिद्धि का अनुभव करने लगता है।

कुंडलिनी जागरण के प्रारंभिक अनुभव : जब कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है तो व्यक्ति को देवी-देवताओं के दर्शन होने लगती हैं। ॐ या हूं हूं की गर्जना सुनाई देने लगती है। आंखों के सामने पहले काला, फिर पील और बाद में नीला रंग दिखाई देना लगता है।

उसे अपना शरीर हवा के गुब्बारे की तरह हल्का लगने लगता है। वह गेंद की तरह एक ही स्थान पर अप-डाउन होने लगता है। उसके गर्दन का भाग ऊंचा उठने लगता है। उसे सिर में चोटी रखने के स्थान पर अर्थात सहस्रार चक्र पर चींटियां चलने जैसा अनुभव होता है और ऐसा लगता है कि मानो कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है। रीढ़ में कंपन होने लगता है। इस तरह के प्रारंभिक अनुभव होते हैं।

Thursday, 11 September 2014

आत्म बोध और तत्त्व बोध की दैनिक साधना

‘आत्म बोध’ और तत्त्व बोध’ सद्ज्ञान की यह दो धाराएँ हिमालय से निकलने वाली पतित पावनी गंगा और तरण तारिणी यमुना की तरह है। आत्म-बोध का अर्थ है अपने उद्गम, स्वरूप, उत्तरदायित्व एवं लक्ष्य को समझना, तद्नुरूप दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप का निर्धारण करना। तत्त्व बोध का अर्थ है शरीर उसके उपयोग एवं अन्त के सम्बन्ध में वस्तुस्थिति से परिचित होना। साँसारिक पदार्थों एवं सम्बन्धित व्यक्तियों के साथ जुड़े हुए सम्बन्धों में घुसी हुई भ्रान्तियों का निराकरण करना तथा इनके सम्बन्ध में बरती जाने वाली नीति का नये सिरे से मूल्यांकन आत्म-बोध ओर उसके काम आने वाले पदार्थों एवं प्राणियों के साथ उचित तालमेल बिठाने को तत्त्वबोध कहते हैं। यदि इतना भर ठीक तरह जान लिया जाय तो समझना चाहिए कि ज्ञान साधना का उद्देश्य पूरा हो गया।

“हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत” का सूत्र आत्म-बोध और तत्त्वबोध की दोनों साधनाओं का प्रयोजन पूरा करता है। प्रातःकाल नींद खुलते ही हर रोज यह भावना जागृत करनी चाहिए कि आज हमारा नवीनतम जन्म हुआ है और वह सोते समय तक एक रोज के लिए ही है। इसे हर दृष्टि से श्रेष्ठतम और आदर्श रीति-नीति अपनाते हुए जिया जाय। इसके लिए शैया त्याग से लेकर रात को सोते समय तक का कार्यक्रम बनाना चाहिए। दिनचर्या ऐसी हो जिसमें आलस्य के लिए तनिक भी गुँजाइश न हो। पूरी तरह व्यस्तता रहे। आजीविका-उपार्जन नित्य कर्म, पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह, लोक कल्याण के लिए अधिकतम योगदान, उपासना, स्वाध्याय, आदि के क्रिया कलापों का समुचित समन्वय करते हुए इस प्रकार निर्धारण करना चाहिए जिसमें आलस्य प्रमाद के लिए कोई गुँजाइश न रहे। विश्राम के लिए रात्रि का समय ही पर्याप्त है। जल्दी सोने और जल्दी उठने की आदत डाली जानी चाहिए। समय का एक क्षण भी बर्बाद न जाने पावे और उसका उपयोग निरर्थक कामों में नहीं वरन् जीवन को सार्थक बनाने वाले निर्वाह की उचित आवश्यकता पूरी करने वाले कार्यों की ही प्रमुखता रहे। मनोरंजन के लिए-थकान दूर करने के लिए-बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा उचित अवकाश देने के लिए गुँजाइश रखी जा सकती है। किन्तु गपशप, मटरगश्ती, यारबाजी में, आलस्य ऊँघने में बेकार समय न गँवाना पड़े इसकी समुचित सतर्कता बरतनी चाहिए। समय ही जीवन है श्रम ही सम्पत्ति है-इस मंत्र को पूरी तरह ध्यान में रखा जाय। निर्धारित समय विभाजन को अनिवार्य अड़चन आ पड़े तो बात दूसरी है अन्यथा यथा सम्भव पूरा करने का ही प्रयत्न करना चाहिए।

जो काम किया जाय उसमें पूरा-पूरा मनोयोग लगाया जाय। हाथ में लिए काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर इस कुशलता के साथ संपन्न किया जाय कि उसका स्तर ऊँचा बना रहे। आधे-अधूरे मन से उपेक्षापूर्वक, बेगार भुगतने की तरह लापरवाही के साथ जो भी काम किये जायेंगे वे फूहड़, भौंड़े, अस्त-व्यस्त और अनगढ़ होंगे। ऐसे काम कर्ता के गयेगुजरेपन के प्रमाण है। काम का स्तर अच्छा रहना इस बात पर निर्भर है कि उसे पूरी मनोयोग के साथ पूरी जिम्मेदारी के लिए-अपनी कुशलता और सतर्कता का समुचित समावेश करते हुए सम्पन्न किया जाय। जिस कार्य को उत्साहपूर्वक तन्मयता के साथ किया जाएगा उसमें समय भी कम लगेगा और चित्त प्रसन्न रहेगा। अन्यथा बेगार भुगतने पर थोड़े से काम में बेहद थकान चढ़ेगी और थोड़े से काम में ढेरों समय लग जाएगा आलस्य और प्रमाद हमारे सबसे बड़े शत्रु है। आलस्य शरीर को अपाहिज की तरह बना देता है और. विक्षिप्त जैसे आचरण वह करता है जिस पर प्रमाद चढ़ा रहता है। ऐसे आदमी पग-पग पर असफल होते हैं और अपनी कर्म हीनता के कारण उपेक्षित रहते और तिरस्कृत बनते हैं।

प्रातः उठते ही हमें अपनी सुसंतुलित दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिए। साथ ही इस बात का ध्यान रखा जाय कि उन्हें करते समय आदर्शवादी दृष्टिकोण का समन्वय बना रहे। तृष्णा, लिप्सा, स्वार्थ परता, धूर्तता, अनैतिकता का दृष्टिकोण लेकर किये जाने वाले कार्य भले ही उपयोगी ही क्यों न लगते हों उनमें ऐसी त्रुटियाँ बनी रहेगी, जिनसे समाज का अहित होना और अपना स्तर गिरता स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे। सामान्य कार्यों को भी यदि लोक हित और आत्म-कल्याण के आदर्शवादी सिद्धान्तों का समावेश करते हुए किया जाय तो वे कर्म-योग की श्रेणी में गिने जायेंगे और प्रत्यक्ष परमार्थ न लगते हुए भी लगभग वैसे ही उद्देश्य की पूर्ति करेंगे। दैनिक कार्यों में यह ध्यान रखा जाय कि जिन पर भी उनका प्रभाव पड़े-सम्बन्ध रहे-वे दुष्टता और दुर्बुद्धि का आक्षेप न लगा सके। अपने हर कृत्य में, ईमानदारी, सचाई, कर्तव्य परायणता और सद्भावना का समावेश होना चाहिए। इस दृष्टि को अपनाते हुए जो कुछ किया जाएगा वह नैतिक भी होगा और लोकोपयोगी भी। जिनके सोचने का ढंग ऊँचा है, वे समाज के लिए अहित कर काम कभी चुनेंगे ही नहीं, भले ही उन्हें भूखा क्यों न मरना पड़े। लोकोपयोगी कार्य करते हुए उचित पारिश्रमिक लेकर यदि भलमनसाहत का जीवनयापन किया जा सके तो उसे क्रिया-कलाप को, कर्मयोग की ही संज्ञा दी जाएगी

दिन भर के उत्तम काम उत्कृष्ट दृष्टिकोण रखते हुए सम्पन्न किये जाते रहें जिन्हें उस दिनचर्या को उस दिन को सार्थक बनाने वाली कहा जा सकता है। बीच-बीच में जब भी कुसंस्कारों की प्रबलता से आलस्य प्रमाद अथवा अनैतिक दृष्टिकोण का समावेश होने लगे तो उसे तत्काल रोका जाय। जिस तरह मुँह पर मक्खी बैठते ही तत्काल उसे उड़ाने का प्रयत्न किया जाता है। उसी प्रकार अवांछनीयता का अपने क्रियाकृत्य एवं चिन्तन में तनिक भी समावेश न होने पाये, इस पर तीखे नजर रखी जाय। जब कुछ ऐसा होता दिखाई पड़े तो उसे रोकने के लिए अपने आपको सजग किया जाय। अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों से हर घड़ी जूझते रहने के लिए जागरूक प्रहरी की हमें भूमिका निबाहनी चाहिए। चोर घर में घुसने न पाये, घुसने का दुस्साहस करे तो मार भगाया जाय इसी में सतर्कता की सराहना है। इस संदर्भ में हमें निरन्तर जागरूक रहना चाहिए। दिन भर यह ध्यान रखा जाय कि आज का दिन हमें श्रेष्ठतम आदर्शवादी रीति-नीति अपनाते हुए- पुण्य परमार्थ से भरा-पूरा बनाना है। उसमें शरीर निर्वाह एवं परिवार पालन के लिए जितना अनिवार्य रूप से आवश्यक है उतना ही संलग्न रहना है। प्रातःकाल इसी आधार पर दिन भर का कार्यक्रम बनाया जाय और उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहा जाय तो निःसन्देह संकल्प के अनुरूप वह दिन ऐसा ही व्यतीत होगा जिस पर गर्व एवं सन्तोष व्यक्त किया जा सके।

रात्रि को सोते समय यह मानकर निद्रा की गोद में जाना चाहिए कि यह जीवन के एक अध्याय का सन्तोषजनक अन्त हुआ। अब मृत्यु जैसी शान्ति को गले से लगाना है। रात्रि निद्रा को दैनिक मृत्यु माना जाय। इससे अति महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ मिलता है। हम मृत्यु को एक प्रकार से भूले रहते हैं। अस्तु जीवन का मूल्य और स्वरूप समझ पाना ही हमारे लिए सम्भव नहीं हो पाता। आमतौर से जब तक वस्तु हाथ में रहती है तब तक उसका न तो महत्त्व समझ में आता है और न उपयोग। जब वह छिन जाती है तब पता चलता है कि वह उपलब्धि कितना बड़ा सौभाग्य थी। उसका समय रहते कितना अच्छा सदुपयोग हो सकता था।

प्रगति पथ पर धीरे-धीरे बढ़ते हुए मनुष्य जन्म तक पहुँच सकना सम्भव हुआ है। यह उपहार ईश्वर का सर्वोपरि अनुग्रह है। इसमें जो सुविधाएँ हैं वे किसी भी अन्य योनि में नहीं है। बहुमूल्य अनुदानों का सदुपयोग कर सकने की दूरदर्शिता जिनमें हो उन्हें और भी श्रेष्ठ अवसर मिलने की अपेक्षा करनी चाहिए। यह हमारी अग्नि परीक्षा है कि प्रदत्त मनुष्य जन्म को हम किन प्रयोजनों के लिए किस प्रकार उपयोग में लाते हैं। पेट और प्रजनन में तो सृष्टि के निकृष्ट प्राणी भी संलग्न हैं। मानवी गरिमा की सफलता इसमें है कि इस जन्म को आत्मकल्याण और लोककल्याण के उच्च प्रयोजनों में ईश्वर की इच्छा के अनुरूप लगाये रखा जाय। जो इसके लिए प्रयत्नशील रहते हैं उन्हें महात्मा-देवात्मा के उच्च पद प्राप्त करते हुए अन्ततः परमात्मा बनने का अवसर मिलता है। जो पशु-प्रवृत्तियों में ही उलझे रह जाते हैं, उनके हाथ से यह भी छिन जाता है। पात्रता सम्पादन के लिए उन्हें फिर निम्न योनियों में भटकना पड़ता है। यह बहुमूल्य तथ्य विदित रहने पर भी अविदित जैसे बने रहते हैं। वह जानकारी व्यर्थ है जो क्रिया को प्रभावित न कर सके।

रात्रि को सोते समय, दैनिक निद्रा को चिर-निद्रा-मृत्यु के समतुल्य मान कर चलना चाहिए। शैया पर जाते ही कल्पना करनी चाहिए कि ‘हर दिन नया जन्म- हर रात नई मौत’ जीवन सूत्र के अनुसार अब भरण काल आ गया। एक दिन का जीवन अब समाप्त हो चला। निद्रा रूपी मृत्यु अपने अंचल में प्राण को ढक लेने के लिए निकट आ गई।

इस अवसर के लिए कल्पना यह होनी चाहिए कि शरीर में से जीव निकल कर ऊँचे प्रकाश में उड़ने लगा। मृत शरीर शैया पर पड़ा है। उसके जलने, गलाने, गाड़ने का अन्त्येष्टि होने जा रही है। अपनी जीव सत्ता पृथक है और शरीर कलेवर का अस्तित्व उसके प्रयोग में आते रहने पर भी उससे सर्वथा भिन्न है। शरीर और आत्मा की भिन्नता यों कहने-सुनने में सदैव आती रहती है, पर उसकी अनुभूति कभी भी नहीं होती। किसी मृत को श्मशान में पहुँचाते समय उसके अग्नि-संस्कार के समय शरीर आत्मा की भिन्नता-जीवन की नश्वरता एक हल्की झाँकी की तरह अन्तःकरण में उभरती है किन्तु कुछ ही क्षण में बिजली की कौंध की तरह विस्मृति में विलीन हो जाती है। अपनी स्वयं की मृत्यु का भावना दृश्य यदि गम्भीरतापूर्वक देखा जाय उससे आत्म-ज्ञान का वह प्रकाश उदय हो सकता है जो आध्यात्मिकता का मूलभूत आधार है। मृत्यु को निद्रा के रूप में अपनी नित्य सहचरी होने की बात सोचते हुए शयन किया जाय और उसके फलितार्थों पर विचार करते रहा जाय तो इसकी प्रतिक्रिया आत्मोत्कर्ष का पथ प्रशस्त कर सकती है।

नित्य सोते समय अपनी मृत्यु की अनुभूति करने की भावना यदि गहरी हो तो उसके साथ ही कई प्रश्न उभरते हैं। मनुष्य जीवन ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ अनुदान होने और उसके अमानत की तरह विश्व उद्यान को समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने के लिए दिये जाने की बात अधिक स्पष्ट रूप से समझ में आती है। शरीर की ही साज-सज्जा में लगे रहने, आत्म-कल्याण का तथ्य भुजा देने की मूर्खता को छोड़ने के लिए व्याकुलता उत्पन्न होती है। शरीर उपकरण मात्र है, वह आत्मा के उच्च क्रियाकलाप पूरे करने भर के लिए मिला है। इन्द्रियों की वासना ओर मनोगत तृष्णा अहंता जैसे क्षुद्र कार्यों में यह अलभ्य अवसर नष्ट हो जाय और आत्मिक लक्ष्य पूरा ही न हो सके तो यह एक भयानक दुर्घटना ही कही जाएगी इस प्रकार सोच सकना तभी सम्भव होता है जब मृत्यु को शिर पर खड़ी देखा जाय। इसके बिना आत्म विस्मृति की खुमारी ही छाई रहती है और मौज मजा करते हुए दिन गुजारने के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही नहीं पड़ता लक्ष्य भ्रष्ट जीव के लिए लोभ और मोह की पूर्ति करते रहना ही परम प्रिय बना रहता है।

सोते समय मृत्यु को सहचरी की तरह साथ लेकर सोया जाय तो वह सद्गुरु की तरह जीवन का मूल्य, स्वरूप एवं सदुपयोग इतनी अच्छी तरह समझाती है, जितना कोई अन्य ज्ञानी विज्ञानी भी नहीं समझा सकता। उन घड़ियों में बैरागी की, अनासक्त कर्मयोगी की भावनाएँ मन में भरी रहनी चाहिए। बैरागी, संन्यासी उसे कहते हैं जो सम्बद्ध पदार्थों और प्राणियों पर से स्वामित्व की भावना हटा लेता है। मालिकी छोड़कर माली का पद स्वीकार करता है। इस चिन्तन से विवेक दृष्टि उपलब्ध होती है। कर्तव्य पालन ही अपनी आकांक्षा बन कर रह जाता है। स्वामित्व भगवान का -सेवा धर्म अपना” इतना सोच लिया जाय तो समूचा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। तृष्णा- अहंता के कारण जो अकर्म करने पड़ते हैं और अनावश्यक चिन्ताओं के बोझ शिर पर लदे रहते हैं, उन सबसे सहज ही छुटकारा मिल जाता है।

जीवन का आनन्द उसे मिलता है जो उसे खिलाड़ियों द्वारा खेले जाने वाले खेल की तरह जीता है। नाटक के पात्रों को तरह-तरह के अभिनय करने पड़ते हैं, वे उनसे अत्यधिक प्रभावित नहीं होते। विवेकशीलता इसी में है कि अपना प्रत्येक कर्त्तव्य पूरी ईमानदारी और तत्परतापूर्वक सम्पन्न करते रहा जाय और उतने भर को अपने सन्तोष एवं उत्तरदायित्व निर्वाह का केन्द्र बिन्दु मानते रहा जाय। मनोकामनाओं को कर्त्तव्य पालन तक सीमित कर दिया जाय और परिणामों की बात परिस्थितियों पर निर्भर होने को तथ्य स्वीकार कर लिया जाय तो शिर पर चढ़ी रहने वाली भविष्य की अनावश्यक चिन्ताएँ अनायास ही तिरोहित हो जाती है। सफलता और असफलता दोनों का जो समान रूप से स्वागत करने को तैयार हैं, उस सन्तुलित मनःस्थिति के व्यक्ति को तत्त्वदर्शी और विज्ञानी कह सकते हैं। ऐसा व्यक्ति ही जीवन नाटक का आनन्द ले सकता है। स्वयं प्रसन्न रहना व साथियों को प्रसन्न रखना उसी के लिए सम्भव होता है। वैराग्य, संन्यास, इसी मनःस्थिति का नाम है। अनासक्त कर्मयोगी एवं स्थिति प्रज्ञ-प्रज्ञावान् ऐसे ही लोगों को कहा जाता है। रात्रि को सोते समय अपनी मनःस्थिति ऐसी ही बनाकर सोया जाय तो गहरी नींद आयेगी-चित्त बहुत हलका रहेगा और प्रातःकाल ताजगी के साथ उठना सम्भव हो सकेगा।

भारतीय धर्म वर्णाश्रम धर्म है। उसकी मर्यादा है कि जीवन के अन्तिम अध्याय में संन्यासी होकर मरना चाहिए। अब तो वे परम्पराएँ तिरोहित ही होती जाती है। पर जब तब वे मान्यताएँ जीवित थीं तब यह प्रचलन भी था कि यदि कोई व्यक्ति मरने जा रहा है और संन्यास नहीं ले सका है तो उसे ‘त्वरा संन्यास’ दिलाया जाता था। संन्यास लेने की प्रक्रिया कुछ ही समय में चिह्न पूजा की तरह सम्पन्न कर दी जाती थी। वह कृत्य हम प्रतिदिन सोते समय स्वयं ही कर लिया करें, तो इसे एक उच्चकोटि की आध्यात्मिक साधना ही कहा जाएगा दिन भर जिस परिवार की सेवा की गई वह ईश्वर का उद्यान था। उसे सुविकसित बनाने के लिए अपना उत्तरदायित्व निबाहा गया, अब मालिक को सौंपकर छुट्टी पर जाया जा रहा है। धन वैभव जो कुछ भी अपने सुपुर्द था वह ईश्वर की सम्पत्ति थी उसे उसी के हवाले करके स्वयं खाली हाथों विदाई ली जा रही है। शरीर और मन यह औजार-वाहन भी ईश्वर के कारखाने से किराये पर मिले थे, उन्हें भी यथा स्थान जमा करके एकाकी अपने घर लौटा जा रहा है। यह भावनाएँ सोते समय की हैं। उनके कल्पना चित्र मनःक्षेत्र पर उतरते हुए शयन करने को नित्य नियम बना लिया जाय तो संन्यासी, एवं वैरागी की वह कुछ समय के लिए उत्पन्न की गई मनःस्थिति अगले चौबीस घण्टों तक आत्म-जागृति का उत्साह बनाये रह सकती है। दूसरे दिन फिर इसी प्रकार उसे सजग-सजीव किया जा सकता है।

प्रातःकाल उठते ही एक दिन के लिए मिला जीवन रूपी सौभाग्य और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की बात मनःक्षेत्र पर भली प्रकार उभारी जाय। आँख खुलने से लेकर शैया त्याग कर जमीन पर पैर रखने तक के नये जीवन की प्रसन्नता और उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की सुव्यवस्था बनाने की बात ही सोचते रहा जाय। उतने ही समय में दिनचर्या का निर्धारण उसके साथ मनोयोग पूर्वक आदर्शवादी चिन्तन का नियोजन किस प्रकार होगा इसकी रूपरेखा बना लेनी चाहिए। यह कार्य प्रातःकालीन ब्रह्म संध्या की तरह है। इसे अवकाश न मिलने की शिकायत किये बिना, कोई भी बिना किसी कठिनाई, विधि-विधान या साधन उपकरण के अत्यन्त सरलतापूर्वक करता रह सकता है। इसे आत्म-बोध की योग साधना कहा जाता है।

साँय सन्ध्या के लिए रात्रि को सोते समय ‘हर रात नई मौत के सूत्र को अंतःक्षेत्र में भावनापूर्वक चित्रित किया जाना चाहिए, सम्वेदना जितनी गहरी होगी प्रतिक्रिया उतनी ही प्रखरता पूर्वक उभरेगी। वस्त्र साधारण पहनते हुए भी-काम काज गृहस्थों जैसा करते हुए भी संन्यासी की अनासक्त कर्मयोगी की मनःस्थिति इस साधना के आधार पर जितनी सरलतापूर्वक बन सकती है, उतनी अन्य किसी प्रकार नहीं। तत्त्व-बोध की यह-साधना भी ऐसी है। जिसके लिए समय न मिलने, न साधन होने, मन न लगने जैसी शिकायत करने का कोई अवसर नहीं है।

सूर्योदय और सूर्यास्त काल को संध्या कहते हैं। उस पुण्य बेला को आत्म-साधना के लिए सुरक्षित रखे जाने का विधान है। इसी विधान की, निद्रा को रात्रि और जागृति को दिन मानते हुए उनकी सन्धि बेला को संध्याकाल कहा जा सकता है। इस प्रकार उठते समय का आत्म-बोध और सोते समय को तत्त्व बोध’ साधना की व्यावहारिक जीवन को प्रभावित करने वाली उच्चस्तरीय साधना कहा जा सकता है। सरलता और प्रभावोत्पादक क्षमता की दृष्टि से उसे अद्वितीय माना जा सकता है ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’ का जीवन सूत्र जो जितनी गहराई के साथ हृदयंगम और कार्यान्वित कर सकेगा वह उतनी ही तीव्रतापूर्वक आत्मिक प्रगति की दिशा में अग्रसर होगा, यह निश्चित है।

●©●  त्राटक साधना से दिव्य दृष्टि की जागृति  ●©●

मानवी विद्युत का अत्यधिक प्रवाह नेत्रों द्वारा ही होता है, अस्तु जिस प्रकार कल्पनात्मक विचार शक्ति को सीमाबद्ध करने के लिए ध्यान योग की साधना की जाती है, उसी प्रकार मानवी विद्युत प्रवाह को दिशा विशेष में प्रयुक्त करने के लिए नेत्रों की ईक्षण शक्ति को सधाया जाता है। इस प्रक्रिया को त्राटक का नाम दिया गया है।

सरसरे तौर से और चंचलतापूर्वक उथली दृष्टि से हम प्रति क्षण असंख्यों वस्तुएँ देखते रहते हैं। इतने पर भी उनमें से किन्हीं विशेष आकर्षक वस्तुओं की ही मन पर छाप पड़ती है। अन्यथा सब कुछ यो ही आँख के आगे से गुजर जाता है। देखने की क्रिया होते रहने पर भी दृश्य पदार्थों एवं घटनाओं का नगण्य सा प्रभाव मस्तिष्क पर पड़े, इसका कारण देखते समय मन की चंचलता , उथलापन, उपेक्षा, अन्यमनस्कता आदि कारण ही मुख्य होते हैं। यदि गम्भीरता और स्थिरतापूर्वक किसी पदार्थ या घटना का निरीक्षण किया जाय, तो उसी में से बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य, उभरते हुए दिखाई देंगे।

त्राटक साधना का उद्देश्य अपनी दृष्टि क्षमता में इतनी तीक्ष्णता उत्पन्न करना है कि वह दृश्य की गहराई में उतर सके और उसके अन्तराल में अति महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा है उसे पकड़ने और ग्रहण करने में समर्थ हो सके। वैज्ञानिकों, कलाकारों, तत्त्वदर्शियों में यही विशेषता होती है कि सामान्य समझी जाने वाली घटनाओं को अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हैं और उसी में से ऐसे तथ्य ढूँढ़ निकालते हैं जो अद्भुत एवं असाधारण सिद्ध होते हैं।

पेड़ पर से फल टूट कर नीचे ही गिरते रहते हैं। यह दृश्य बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक सभी देखते हैं। इसमें कोई नई बात नहीं। किन्तु आइज़ैक न्यूटन ने पेड़ पर से सेव का फल जमीन पर गिरते देखा तो उसकी सूक्ष्म दृष्टि इसका कारण तलाश करने में लग गई और अन्ततः उसने पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होने का क्रान्तिकारी सिद्धान्त प्रतिपादित करके विज्ञान जगत में एक अनूठी हलचल उत्पन्न कर दी। इस आधार पर आगे चलकर विज्ञान की भावी प्रगति का पथ-प्रशस्त होता चला गया है। कलाकारों और तत्त्वदर्शियों की दृष्टि भी ऐसी ही होती है। महर्षि चरक ने जमीन पर उगती रहने वाली सामान्य जड़ी-बूटियों के ऐसे गुण धर्म खोज निकाले जिनके सहारे आरोग्य विज्ञान की प्रगति में भारी सहायता मिली। मनीषियों ने एक से एक बढ़कर विज्ञान क्षेत्र में रहस्योद्घाटन किये है। इस सूक्ष्म अवलोकन में दिव्य दृष्टि तो काम करती है, पर उसके उत्पादन अभिवर्धन में चर्म चक्षुओं में उत्पन्न होने वाली वेधक दृष्टि की भूमिका भी एक महत्त्वपूर्ण नहीं होती। त्राटक इसी विभूति विशेषता के उत्पादन को ध्यान में रखते हुए किया जाता है।

बुद्धि का महत्त्व सर्वविदित है। पर मानवी विद्युत जिसे प्रतिभा का स्रोत माना जाता है, व्यक्तित्व के निर्माण एवं प्रयत्नों की सफलता में किसी भी प्रकार कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मनुष्य शरीर एक अच्छा-खासा बिजली घर है। उससे लोहे की मशीनें नहीं चलाई जातीं, पर शरीर यन्त्र में जो एक से एक अद्भुत कलपुर्जे लगे है उनके सुसंचालन में यही शक्ति कितना काम करती है, इसे देखते हुए भौतिक विद्युत की क्षमता को तुच्छ ही कहा जा सकता है। मानवी विद्युत का वस्तुओं और प्राणियों पर कितना भारी प्रभाव पड़ता है-उससे वातावरण का निर्माण किस तरह उभरता है और व्यक्तित्व के विकास में कितनी सहायता मिलती है, इस सबको यदि क्रमबद्ध किया जा सके तो प्रतीत होगा कि मनुष्य शरीर में काम करने वाली बिजली कितनी सूक्ष्म और कितनी महत्त्वपूर्ण है।

यों तो मनुष्य शरीर के रोम रोम में विद्युत प्रवाह काम करता है, पर नेत्र, जननेन्द्रियाँ, वाणी यह तीन द्वार मुख्य है जिनमें होकर वह प्रवाह बाहर निकलता है और परिस्थितियों को प्रभावित करता है। मस्तिष्क का ब्रह्मरंध्र भाव उत्तरी ध्रुव की तरह निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण को खींचकर अपने में धारण करता है। इसके उपरान्त उसके प्रयोग के आधार नेत्र, जिव्हा एवं जननेन्द्रिय छिद्रों में होकर बनते हैं।

जिव्हा की वाक् साधना के लिए जप, पाठ, मौन जैसे कितने ही अभ्यास है। जननेन्द्रिय में सम्बन्धित काम शक्ति को ब्रह्मचर्य से संयमित किया जाता है और कुण्डलिनी जागरण के रूप में उभारा जाता है। इनका उल्लेख यहाँ अभीष्ट नहीं। त्राटक द्वारा नेत्र गोलकों से प्रवाहित होने वाली विद्युत शक्ति को किस प्रकार केन्द्रीभूत एवं तीक्ष्ण बनाया जाता है। यहाँ तो इसी प्रसंग पर चर्चा की जानी है। मनुष्य का अंतरंग नेत्र गोलकों में होकर बाहर झाँकता है। उन्हें अन्तरात्मा की खिड़की कहा गया है। प्रेम, द्वेष एवं उपेक्षा जैसी अंतःस्थिति को आँख मिलाते ही देखा समझा जाता है। काम-कौतुक का सूत्र संचार नेत्रों द्वारा ही होता है। नेत्रों के सौंदर्य एवं प्रभाव की चर्चा करते-करते कवि कलाकार थकते नहीं, एक से एक बड़े उपमा, अलंकार उनके लिए प्रस्तुत करते रहते हैं। दया, क्षमा, करुणा, ममता, पवित्रता, सज्जनता सहृदयता जैसी आत्मिक सद्भावनाओं को अथवा इनके ठीक विपरीत दुष्ट दुर्भावनाओं को किसी के नेत्रों में नेत्र डालकर जितनी सरलतापूर्वक समझा जा सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं।

कहा जा चुका है कि दिव्य चक्षुओं से सम्भव हो सकने वाली सूक्ष्म दृष्टि और चर्म चक्षुओं की एकाग्रता युक्त तीक्ष्णता के समन्वय की साधना को त्राटक कहते हैं। इसका योगाभ्यास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है।

छोटे बच्चों को नजर लग जाने, बीमार पड़ने-नये सुन्दर मकान को नजर लगने से दरार पड़ जाने जैसी किम्वदन्तियाँ अक्सर सुनी जाती है। इनमें प्रायः अन्धविश्वासों का ही पट रहता है फिर भी मानवी विद्युत विज्ञान की दृष्टि से ऐसा हो सकना असम्भव नहीं है। वेधक दृष्टि में हानिकारक और लाभदायक दोनों तत्त्व यह तो सामान्य स्तर के त्राटक उपचार का किया कौतुक हुआ। अध्यात्म क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले इसी प्रयोग की उच्च भूमिका में प्रवेश करके दिव्य दृष्टि विकसित करते हैं और उस अदृश्य को देख पाते हैं जिसे देख सकना चर्म चक्षुओं के लिए सम्भव नहीं हो सकता।

दृष्टि के स्थूल भाग की भी विशेषता है, पर वस्तुतः उसकी वास्तविक शक्ति सूक्ष्म दृष्टि पर निर्भर रहती है। प्रेम, द्वेष, घृणा, उपेक्षा आदि के भाव आँखों की बनावट या पुतली संचालन क्रम में अन्तर नहीं करते। वह स्थिति तो सदा एक सी ही रहती है। अन्तर पड़ता है उस भाव सन्दोह का जो आँखों में सूक्ष्म प्रक्रिया बनकर झाँकता है और सामने वाले को अपने अन्तरंग के सारे भेद बताकर स्थिति से अवगत कर देता है। स्थूल दृष्टि के पीछे सूक्ष्म दृष्टि ही अपना काम कर रही होती है। अस्तु भारतीय योगदर्शन ने त्राटक के माध्यम से सूक्ष्म दृष्टि को एकाग्र एवं प्रभावशाली बनाने का उद्देश्य सामने रखा है जब कि पाश्चात्य शैली में चर्म चक्षु ही सब कुछ है और उन्हीं की दृष्टि से वेधक क्षमता उत्पन्न करके अभीष्ट प्रयोजन सम्पन्न किये जाते हैं।

त्राटक का वास्तविक उद्देश्य दिव्य दृष्टि को ज्योतिर्मय बनाता है। उसके आधार पर सूक्ष्म जगत की झाँकी की जा सकती है। अन्तः क्षेत्र में दबी हुई रत्न राशि को खोजा और पाया जा सकता है। देश, काल, पात्र की स्थूल सीमाओं को लाँघ कर अविज्ञात और अदृश्य का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आँखों के इशारे तो मोटी जानकारी भर दी जा सकती है, पर दिव्य दृष्टि से तो किसी के अन्तः क्षेत्र को गहराई में प्रवेश करके वहाँ ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है जिससे जीवन का स्तर एवं स्वरूप ही बदल जाय। इस प्रकार त्राटक की साधना यदि सही रीति से सही उद्देश्य के लिए की जा सके तो उससे साधक को अन्त चेतना के विकसित होने का असाधारण लाभ मिलता है साथ ही जिस प्राणी या पदार्थ पर इस दिव्य दृष्टि का प्रभाव डाला जाय उसे भी विकासोन्मुख करके लाभान्वित किया जा सकता है।
कुण्डलिनी योग और अजपा गायत्री
अखण्ड ज्योति
कुण्डलिनी साधना गायत्री महाविद्या के अंतर्गत एक आत्मशक्ति संवर्धक प्रयोग है। अस्तु उसे गायत्री विज्ञान के अंतर्गत एक विशेष विधान के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
गायत्री एक स्वरूप जप परक है, जिसके आधार पर नित्य जप, अनुष्ठान, पुरश्चरण आदि के विधान सम्पन्न किये जाते हैं। इसका दूसरा स्वरूप है- ‘अजपा’ अजपा अर्थात् वह जप जो बिना प्रयत्न के अनायास ही होता रहता हो। योगियों का मत है कि जीवात्मा अचेतन अवस्था में अनायास ही इस जप प्रक्रिया में निरत रहता है। यह अजपा गायत्री है- सोऽहम् की ध्वनि जो श्वास प्रश्वास के साथ-साथ स्वयमेव होती रहती हैं इसी को प्रयत्नपूर्वक विधि- विधान सहित किया जाय तो वह प्रयास ‘हंस योग’ कहलाता है। हंस योग के अभ्यास का असाधारण महत्त्व है। उसे कुण्डलिनी जागरण साधना का एक अंग ही माना गया है।
बिभर्ति कुण्डली शक्ति रात्मानं हं सयाँश्रिता तन्त्र सार
कुण्डलिनी शक्ति आत्म क्षेत्र में हंसारूढ़ होकर विचरती है।
गायत्री का वाहन हंस कहा गया है। यह पक्षी विशेष न होकर हंस योग ही समझा जाना चाहिए। यों हंस पक्षी में भी स्वच्छ धबलता-नीर क्षीर विवेक मुक्तक आहार विशेषताओं की ओर इंगित करते हुए निर्मल जीवन सत् असत् निर्धारण एवं नीति युक्त उपलब्धियों को ही अंगीकार किया जाना जैसी उत्कृष्टताओं का प्रतीत माना गया है किन्तु तात्त्विक दृष्टि से गायत्री का हंस-वाहिनी होना उसकी प्राप्ति के लिए हंस योग की सोऽहम् की साधना का निर्देश माना जाना ही उचित है।
नैवायं चक्षुषाग्राह्य नापदैरिन्द्रियैय रपि। मनसैव प्रदीहोन महानात्मावसीयते॥
तित्नेषुवायथा तैलं दध्निवा सर्पिरर्पितम। यथायः स्रोतसि व्याप्तो यथारण्याँ हुताशतः॥
एवमेंव महात्मान मात्मन्यात्म विलक्षणम्। सत्येन तपसाँ चैव नित्ययुक्तोऽनुपश्यति-शिव पु0 वायु राँ0अ04
न तो वह भगवान आँखों से देखा जा सकता है न अन्य इन्द्रियों से ग्रहण किया जा सकता है, प्रकाशित मन से ही वह महानता प्राप्त की जा सकती है, जैसे तिलों में तेल व दही में घृत छुपा रहता है, जैसे पानी श्रोत में तथा जैसे अरणि में अग्नि छुपी रहती है, वैसे ही विलक्षण परमात्मा आत्मा में छिपा रहता है, उसको योगी सत्य और तप, से नित्य अपनी आत्मा में देखा करता है।
देहों देवालयः प्रोक्त जीवों नामा सदा शिवः। त्यजेद ज्ञानं निर्मालयं सोहं भावेन पूज्येत्-ड़ड़ड़ड़ तंत्र
देह देवालय है। इसमें जीव रूप में शिव विराजमान् है। इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं सोऽहम् साधना से करनी चाहिए।
अन्तः करण में हंस वृत्ति की स्थापना की यह साधना अजपा गायत्री भी कहीं जाती है।
अजपा गायत्री का महत्त्व बताते हुए शास्त्रकार कहते है-
अजपा नाम गायत्री ब्रह्मविष्णुमहेश्वरी। अजपाँ जपते यस्ताँ पुनर्जन्म न विद्यते-अग्नि पुराण
अजपा गायत्री ब्रह्मा, विष्णु रुद्र की शक्तियों से परिपूर्ण है। इसका जप करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता
अजपा नाम गायत्री योगिनाँ माक्षदायिनी। अस्याः संकल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते-गोरक्षसंहिता
इसका नाम ‘अजपा’ गायत्री है, जो कि योगियों के लिए मोक्ष के देने वाली है। इसके संकल्प मात्र से सर्व पापों से छुटकारा हो जाता है।
अनया सद्दशी विद्या अनया सद्दशो जपः। अनया सद्दशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति॥- गोरक्षसंहिता इसके समान कोई विद्या है, न इसके समान कोई ज्ञान ही भूत-भविष्य काल में हो सकता है।
अजपा नाम गायत्री योगिनाँ मोक्षदा सदा॥ शिव स्वरोदय
अजपा गायत्री योगियों के लिए मोक्ष देने वाली है।
श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्तः भूमिका में अनुभव करना- यही है संक्षेप में सोऽहम् साधना।
वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। जंगलों में जहाँ बाँस बहुत उगे होते हैं वहाँ अक्सर बाँसुरी जैसी ध्वनियाँ सुनने को मिलती है। कारण कि बाँसों में कहीं कहीं कीड़े छेद कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेग पूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर प्रवाह सुनने को मिलता है। वृक्षों से टकरा कर जब द्रुत गति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रिया है।
नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों की तरह है। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं। प्राणायाम का मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी जितनी मन्दगति से ली जा सके लेनी चाहिए और फिर कुछ समय भीतर रोक कर धीरे धीरे उस वायु को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए। गहरी और पूरी साँस लेने से स्वभावतः नासिका छिद्रों से टकरा कर उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता है। इतने पर भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले कानों से उसे अनुभव किया जा सकता है।
चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए। और भावना को इस स्तर की बनाना चाहिए कि उससे श्वास लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द अनुभूति होने लगें। उसी प्रकार जब साँस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि ‘हम’ ध्वनि प्रवाह विनिसृत हो रहा है। आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती किन्तु क्रम और प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है। और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है वरन् आनन्द का अनुभव होता है।
सो का तात्पर्य परमात्मा और हम का जी चेतना-समझा जाना चाहिए। निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और अंग प्रत्यंग में जीवकोष तथा नाडी तन्तु में प्रवेश करके उसको अपने संपर्क संसर्ग का लाभ प्रदान कराता है। यह अनुभूति सो शब्द की ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतरनी चाहिए। और ‘हम’ शब्द के साथ जीव भाव द्वारा इस कार्य कलेवर पर से अपना कब्जा छोड़ कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़ की जानी चाहिए।
प्रकारान्तर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मनः क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की ही यह धारण है, जीव भाव अर्थात् स्वार्थवादी संकीर्णता, काम क्रोध, लोभ, मोह भरी मद मत्सरता- अपने को शरीर या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा भी दिग्भ्रान्त स्थिति का नाम ही जीव भूमिका है। इस भ्रम जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया जाय तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है। कार्य कलेवर के कण-कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीव धारणा की बेदखली यही है सोऽहम् साधना का तत्त्वज्ञान श्वास प्रश्वास क्रिया के माध्यम से- सो और हम ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जागृत किया जाता है कि अपना स्वरूप ही बदल रहा ह अब शरीर और मन पर से लोभ-मोह का वासना-तृष्णा का आधिपत्य समाप्त ही रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। शासन परिवर्तन जैसी राज्यक्रान्ति जैसी यह भाव भूमिका है जिसमें अनाधिकारी अनाचारी शासनसत्ता का तख्ता उलट कर उस स्थान पर सत्य न्याय और प्रेम संविधान वाली धर्म सत्ता का राज्याभिषेक किया जाता है। सोऽहम् साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः प्रगाढ़ करती चली जाती है और अन्तःकरण यह अनुभव करने लगता है कि अब उस पर असुरता का नियन्त्रण नहीं रहा उसका समग्र संचालन देव सत्ता द्वारा किया जा रहा है।
श्वास ध्वनि ग्रहण करते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम’ की धारण में लगने चाहिए। प्रयत्न करना चाहिए कि इन शब्दों के आरम्भ में अति मन्द स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमशः प्रखरता आती चली जाय। चिन्तन का स्वरूप यह होना चाहिए कि साँस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ काय कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहें है। यह प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है, वरन् प्रत्येक अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। एक एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगों के चित्र की कल्पना करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए उसमें भगवान की सत्ता चिरस्थायी रूप से समाविष्ट हो गई। हृदय फुफ्फुस, आमाशय, आँखों ,गुर्दे जिगर, तिल्ली आदि में भगवान का प्रवेश हो गया। रक्त के साथ प्रत्येक नस नाडी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना-शासन स्थापित कर लिया।
बाह्य अंगों ने पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना स्वीकार कर लिया। जीभ वही बोलेगी जो ईश्वरीय, प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना, चलना आदि इन्द्रियजन्य गतिविधियाँ दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन करेगी। जननेन्द्रिय का उपयोग वासना के लिए नहीं मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अनिवार्य आवश्यकता का धर्म संकट सामने आ खड़ा होने पर ही किया जाएगा हाथ-पाँव मानवोचित कर्तव्य पालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न करेंगे जो ईश्वरीय सत्ता को कलंकित करता हो। मस्तिष्क ऐसा कुछ न सोचेगा जिसे उच्च आदर्शों के प्रतिकूल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित न्याय विरुद्ध एवं अदूरदर्शी अविवेक भरा निर्णय न करेगी। चित्त में अवांछनीय एवं निकृष्ट स्तरीय आकांक्षाएँ न जमने पायेगी। अहंता का स्तर नर कीटक जैसा नहीं नर नारायण जैसा होगा।
यही है वे भावनाएँ जो शरीर और मन पर भगवान के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ सिद्ध कर सकती है। यह सब उथली कल्पनाओं की तरह मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए वरन् उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि इस भाव परिवर्तन को क्रिया रूप में परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े सार्थकता उन्हीं विचारों की है जो क्रिया रूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों, सोऽहम् साधना के पूर्वार्ध में अपने कार्य कलेवर पर श्वासन क्रिया के साथ प्रविष्ट हुए महाप्राण की- परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिन्तन करना पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रह कर एक व्यावहारिक यथार्थता के-प्रत्यक्ष तथ्य के-रूप में प्रस्तुत दृष्टिगोचर होने लगें।
इस साधना का उत्तरार्ध पाप निष्कासन का है। शरीर में से अवांछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का- आलस्य प्रमाद जैसी दुष्प्रवृत्तियों का-मन से लोभ, मोह जैसी तृष्णाओं का-अन्तस्तल से जीव भावी अहन्ता का-निवारण निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनाएँ अत्यन्त प्रगाढ़ होनी चाहिए। दुर्भावनाएँ और दुष्कृतियां- निष्कृष्टतायें और दुष्टताएँ-क्षुद्रताएँ और हीनताएँ सभी निरस्त हो रही है-सभी पलायन कर रही है यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिए। उपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपरान्त जो हलकापन-जो सन्तोष-जो उल्लास स्वभावतः होता है और निरन्तर बना रहता है उसी का प्रत्यक्ष अनुभव होना ही चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि सोऽहम् साधना का उत्तरार्ध भी एक तथ्य बन गया।
सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय सो ध्वनि के साथ जीवन सत्ता पर उस परब्रह्म परमात्मा का शासन-आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है। उत्तरार्ध में हम को-अहंता को-विसर्जित करने का भाव है। साँस निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ। अहंता ही लोभ और मोह की जननी है। शरीराध्यास में जीव उसी की प्रबलता के कारण डूबता है। माया, अज्ञान, अन्धकार, बन्धन आदि की भ्रान्तियाँ एवं विपत्तियाँ इस अहंता के कारण ही उत्पन्न होती है। इसे विसर्जित कर देने पर ही भगवान का अन्तः क्षेत्र में प्रवेश करना-निवास करना सम्भव होता है।
इस छोटे से मानवी अन्तःकरण में दो के निवास की गुँजाइश नहीं है। पूरी तरह एक ही रह सकता है। दोनों रहे तो लड़ते-झगड़ते रहते हैं। और अन्तर्द्वन्द्व की खींचतान चलती रहती हैं भगवान को बहिष्कृत करके पूरी तरह ‘अहमन्यता’ को प्रबल बना लिया जाय तो मनुष्य दुष्ट-दुर्बुद्धि क्रूर-कर्मों से असुर बनता है अपनी कामनाएँ-भौतिक महत्त्वाकाँक्षाएँ ऐषणाएं समाप्त करके ईश्वरीय निर्देशों पर चलने का संकल्प ही आत्म समर्पण है। यही शरणागति है। यही ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त होते ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है तब ईश्वरीय अनुभूतियाँ चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती हैं ऐसे ही व्यक्ति महामानव ऋषि, देवता एवं अवतार के नाम से पुकारे जाते हैं। ‘सो’ में भगवान का शासन आत्म-सत्ता पर स्थापित करने और ‘हम’ में अहंता का विसर्जन करने का भाव है। प्रकारान्तर से इसे महान् परिवर्तन का आन्तरिक कायाकल्प की बीजारोपण कह सकते हैं सोऽहम् साधना का यही है भावनात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप
ईश्वर जीव को ऊँचा उठाना चाहता है जीव ईश्वर को नीचे गिराना चाहता है अस्तु दोनों के बीच रस्साकशी चलती और खींचतान होती रहती है। न ईश्वर श्रेष्ठ जीवन क्रम देखे बिना सन्तुष्ट होता है और न अपनी न्याय-निष्ठा क्रम-व्यवस्था तथाकथित पूजा पाठ के कारण छोड़ने को तैयार होता है। वह अपनी जगह अडिग रहता है और भक्त को तरह-तरह के उलाहने देने, शिकायतें करने, लाँछन लगाने की स्थिति बनी ही रहती है। भक्त ईश्वर को अपने इशारे पर नचाना भर चाहता है उससे उचित अनुचित मनोकामनाएँ पूरी कराने की पात्रता-कुपात्रता परखने की आदत छोड़ देने का अग्रह करता रहता है। दोनों अपनी जगह पर अडिग रहें-दोनों की दिशाएँ एक दूसरे की इच्छा से प्रतिकूल बनी रहे तो फिर एकता कैसे हो सामीप्य सान्निध्य कैसे सधे? ईश्वर प्राप्ति की आशा कैसे पूर्ण हो?
इस कठिनाई का समाधान 'सोऽहम्' साधना के साथ जुड़े हुए तत्त्वज्ञान में सन्निहित है। दोनों एक-दूसरे से गुँथ जाय-परस्पर विलीनीकरण हो जाय। भक्त अपने आपको अन्तःकरण आकांक्षा एवं अस्तित्व को पूरी तरह समर्पित कर दे और उसी के दिव्य संकेतों पर अपनी दिशा धाराओं का निर्धारण करे। इस स्थिति की प्रतिक्रिया द्वैत की समाप्ति और अद्वैत की प्राप्ति के रूप में होती है। जीव ने ब्रह्म को समर्पण किया है ब्रह्मा की सत्ता स्वभावतः जीवधारी में अवतरित हुई दृष्टिगोचर होने लगेगी। समर्पण एक पक्ष से आरम्भ तो होता है, पर उसकी परिणति उभयपक्षीय एकता में होती है। यह प्रेम योग का रहस्य है। यही भक्त के भगवान बनने का तत्त्वज्ञान है। ईंधन जब अग्नि को समर्पण करता है तो वह भी ईंधन न रहकर आग बन जाता है। बूँद जब समुद्र में विलीन होती है तो उसकी तुच्छता असीम विशालता में परिणत हो जाता है। नमक और पानी-दूध और चीनी जब मिलते हैं तो दोनों की पृथकता समाप्त होकर सघन एकता बनकर उभरती है। यही है वेदान्त अनुमोदित जीवन लक्ष्य की पूर्ति-परम पद की प्राप्ति। इसी स्थिति को ‘अद्वैत’ कहते हैं। शिवोऽहम्-सच्चिदानंदोऽहम्-तत्त्वमसि-अयमात्मा ब्रह्म-की अनुभूति इसी सर्वोत्कृष्ट अंतःस्थिति पर पहुँचे हुए साधक को होती है। इसी को ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्वाण आदि नामों से पूर्णता के रूप में कहा गया है।