Monday, 15 September 2014

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         सप्त चक्र भेदन – एक सहज, सरल तथा सुरक्षित तांत्रिक योग विधि -2
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चक्रों मे ध्यान सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अनामिका अंगुलि के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। कूटस्थ मे दृष्टि रखे!

मन को जिस चक्र मे ध्यान कर रहे है उस चक्र मे रखिए और उस चक्र पर तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए! शरीर को थोडा ढीला रखीए! मूलाधारचक्र मे तनाव डालिये! अनामिका अंगुलि को अंगुष्ठ से लगायें और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। अब मूलाधारचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 4 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोकना नही है! मूलाधारचक्र मे चार पंखडियाँ होती है! मूलाधारचक्र को व्यष्टि मे पाताललोक और समिष्टि मे भूलोक कहते है! जब तक मनुष्य ध्यान नही करता तब तक वह शुद्र ही कहलाता है! उस मनुष्य का ह्र्दय काला अर्थात अन्धकारमय है, कलियुग मे है!

जब मनुष्य ध्यान साधना शुरु करता है तब वो क्षत्रिय यानि योद्धा बनजाता है, उसका हृदय चालक हृदय बन जाता है और वह साधक फिर भी कलियुग मे ही है! मूलाधारचक्र पृथवी तत्व का प्रतीक है यानि गंध तत्व है! मूलाधारचक्र पीले रंग का होता है, मिठे फल सी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे सहदेवचक्र कहते है! कुंडलिनी को पांडवपत्नी द्रौपदि कहते है! श्री सहदेव का शंख मणिपुष्पक है! ध्यान कर रहे साधक को जो नकारात्मक शक्तियाँ रोक रही होती है उन का दमन करते है श्री सहदेव! कुंडलिनी शक्ति जो शेष नाग जैसी होती है वह मूलाधारचक्र के नीचे अपना फ़ण नीचे की ओर एवम पुँछ उपर की और करके साढे तीन लपेटे लिये हुए सुषुप्ती अवस्था मे रह्ती है! साधना के कारण ये शेषनाग अब जागना आरंभ करता है! जाग्रत हो रहा शेष नाग मूलाधारचक्र को पार करेगा और स्वाधिस्ठानचक्र की ओर जाना शुरु करेगा! मूलाधारचक्र शेष के उपर होता है, इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे कुंडलिनी को श्री पद्मावति देवी कहते है और मूलाधारचक्र को शेषाद्रि कहते है! यहा जो समाधि मिलती है उस को सविकार संप्रज्ञात समाधि कहते है!

मूलाधारचक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है! पृथ्वी तत्व का अर्थ गंध है! संप्रज्ञात का अर्थ मुझे परमात्मा के दर्शन लभ्य होगे या नही होगे ऐसा संदेह होना! इस चक्र मे ध्यान साधक को इच्छा शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल को साधक को अपने पास नही रखना चाहिये, इसी कारण ‘’ध्यानफल श्री विघ्नेश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! मूलाधारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 96 मिनटों मे 600 हंस होते है! अब स्वाधिस्ठानचक्र मे जाए! तनाव डाले! वरुण मुद्रा लगाए! कनिष्ठा अंगुलि को अंगुष्ठ से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। स्वाधिस्ठानचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार छः बार लंबी श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही! स्वाधिस्ठानचक्र को व्यष्टि मे महातल लोक और समिष्टि मे भुवर लोक कहते है! साधक अब द्वापर युग मे है!

स्वाधिस्ठानचक्र मे छः पंखडियाँ होती है! स्वाधिस्ठानचक्र सफेद रंग का होता है, साधारण कडवी सी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीनकुलजी का चक्र कहते है! श्रीनकुलजी का शंख सुघोषक है! यह चक्र ध्यान कर रहे साधक को आध्यात्मिक सहायक शक्तियों की तरफ मन लगा के रखने मे सहायता करता है! स्वाधिस्ठान चक्र मे ध्यान करने से पवित्र बंसुरिवादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय पवित्र बंसुरिवादन सुनके स्थिर होने लगते है, साधक को इधर द्विज कहते है! द्विज का अर्थ दुबारा जन्म लेना! इधर साधक को पश्चाताप होता है कि मैने इतना समय बिना साधना किए व्यर्थ ही गवाया, इसी कारण द्विज कहते है! सुनाई देने को संस्कृत भाषा मे वेद कहते है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे स्वाधिस्ठानचक्र को वेदाद्रि कहते है! इधर जो समाधि मिलती है उस को सविचार संप्रज्ञात समाधि या सामीप्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान करने से साधक को क्रिया शक्ति की प्राप्ति होती है! इस का अर्थ हाथ, पैर, मुख, शिश्न( मूत्रपिडों मे) और गुदा यानि कर्मेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री ब्रह्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! स्वाधिस्ठान चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 144 मिनटों मे 6000 हंस होते है!

अब मणिपुर चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, अग्नि मुद्रा मे बैठे! अनामिका अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। मणिपुरचक्र मे तनाव डाले! मणिपुरचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार दस बार लंबी श्वास लेवे और छोडे ! श्वास को रोके नही! मणिपुरचक्र को व्यष्टि मे तलातल लोक और समिष्टि मे स्वर लोक कहते है! साधक अब त्रेता युग मे है! मणिपुर चक्र मे दस पंखडियाँ होती है! इसी कारण इसे रावण चक्र भी कहते है! मणिपुरचक्र लाल रंग का होता है, कडवा रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीअर्जुनजी का चक्र कहते है! श्रीअर्जुनजी का शंख दैवदत्त है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य आत्मनिग्रह शक्ति लभ्य कराते है श्रीअर्जुनजी! मणिपुरचक्र मे ध्यान करने से वीणा वादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस वीणा वाद्य नाद को सुन कर भक्तिवान हृदय बनेगा! साधक विप्र बन जायेगा! इधर जो समाधि मिलती है उस को सानंद संप्रज्ञात समाधि या सायुज्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को ज्ञान शक्ति की प्राप्ति होती है! इस का अर्थ कान (शब्द), त्वचा (स्पर्श), आँख (रूप), जीब (रस) और नाक (गंध), ये ज्ञानेंद्रियों को शक्ति प्राप्त होती है!ध्यान फल को साधक को ‘’ध्यानफल श्री श्रीविष्णुदेवार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! मणिपुर चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर ज्ञान(ग) आरूढ(रुड) होता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे मणिपुर चक्र को गरुडाद्रि कहते है!

अब अनाहतचक्र मे जाए, उस चक्र मे तनाव डाले, वायु मुद्रा मे बैठे! तर्जनी अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें।अनाहतचक्र मे तनाव डाले! अनाहतचक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार बारह बार लंबी श्वास लेवे और छोडे! अनाहत चक्र को व्यष्टि मे रसातल लोक और समिष्टि मे महर लोक कहते है! साधक अब सत्य युग मे है! अनाहत चक्र मे बारह पंखडियाँ है! श्री भीम और आंजनेय दोनों वायु देवता के पुत्र है! इसी कारण इसे वायु चक्र, आंजनेयचक्र भी कहते है! अनाहत चक्र नीले रंग का होता है, खट्टी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीभीम का चक्र भी कहते है! श्रीभीमजी का शंख पौंड्रं है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य प्राणायाम नियंत्रण शक्ति को लभ्य कराते है

अनाहत चक्र मे ध्यान करने से घंटा वादन की ध्वनी सुनाई देगी! साधक का हृदय इस घंटावाद्य नाद को सुनकर शुद्ध हृदय बनेगा! साधक ब्राह्मण बन जायेगा! कुंडलिनी अनाहत चक्र तक नही आने तक साधक ब्राह्मण नही बन सकता! मनुष्य जन्म से ब्राह्मण नही बनता, प्राणायाम क्रिया करके कुंडलिनी अनाहत चक्र तक आने पर ही ब्राह्मण बनता है! इधर जो समाधि मिलती है उस को सस्मित संप्रज्ञात समाधि या सालोक्य समाधि कहते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को बीज शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल साधक को “ध्यानफल श्री रुद्रार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिए! अनाहत चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 288 मिनटों मे 6000 हंस होते है! इधर साधक को वायु मे उड रहा हू जैसी भावना आती है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे अनाहतचक्र को अंजनाद्रि कहते है! अब विशुद्ध चक्र मे जाए, इस चक्र पर तनाव डाले, शून्य यानि आकाश मुद्रा मे बैठे! मध्यमा अंगुली को मोडकर अंगुष्ठ के मूल मे लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। विशुद्ध चक्र मे तनाव डाले! अनाहत चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार सोलह बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोक्ना नही है!विशुद्धचक्र को व्यष्टि मे सुतल लोक और समिष्टि मे जन लोक कहते है! विशुद्धचक्र मे सोलह पंखडियाँ होती है! विशुद्धचक्र सफेद मेघ रंग का होता है, कालकूटविष जैसी अति कडवी रुचि होती है! इस चक्र को महाभारत मे श्रीयुधिस्ठिर का चक्र कहते है! श्रीयुधिस्ठिर का शंख अनंतविजय है! ध्यान कर रहे साधक को दिव्य शांति लभ्य कराते है श्रीयुधिस्ठिरजी! विशुद्धचक्र मे ध्यान करने से प्रवाह ध्वनी सुनाई देगी! इधर असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि लभ्य होती है! असंप्रज्ञात का अर्थ निस्संदेह! साधक को सगुण रूप मे यानि अपने अपने इष्ट देवता के रूप मे परमात्मा दिखायी देते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को आदि शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल को साधक ‘’ध्यानफल श्री आत्मार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! विशुद्धचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 384 मिनटों मे 1000 हंस होते है! असंप्रज्ञात समाधि या सारूप्य समाधि लभ्य होने से संसार चक्रों से विमुक्त हो के साधक सांड के जैसा परमात्मा के तरफ दौड पडता है! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे विशुद्ध चक्र को वृषभाद्रि कहते है!

अब आज्ञा नेगटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे बैठे! अंगुठें को तर्जनी अंगुली के सिरे से लगाए! शेष तीन अंगुलिया सीधी रखें। आज्ञा नेगटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! आज्ञा नेगटिव चक्र मे दो पंखडियाँ होती है! अपने शक्ति के अनुसार 18 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही! अब आज्ञा पाजिटिव चक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, ज्ञान मुद्रा मे ही बैठे रहे! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 20 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! श्वास को रोके नही!आज्ञा पाजिटिव को व्यष्टि मे वितल लोक और समिष्टि मे तपो लोक कहते है! श्री योगानंद, विवेकानंद .लाहिरी महाशय जैसे महापुरुष सूक्ष्म रूपों मे इधर तपस करते है! इसी कारण इस को तपोलोक कहते है! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे दो पंखडियाँ है! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे प्रकाश ही प्रकाश दिखायी देता है! इस को श्रीकृष्ण चक्र कहते है! श्रीकृष्ण का शंख पांचजन्य है! पंचमहाभूतों को कूटस्थ मे एकत्रीत करके दुनिया रचाते है, इसी कारण इस को पांचजन्य कहते है! सविकल्प समाधि अथवा स्रष्ठ समाधि लभ्य होती है! यहा परमात्मा और साधक आमने सामने है! इस चक्र मे ध्यान साधक को परा शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान फल साधक को ‘’ध्यानफल श्री ईश्वरार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! आज्ञा पाजिटिव चक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 48 मिनटों मे 1000 हंस होते है! इस चक्र से ही द्वंद्व शुरु होता है! केवल एक कदम पीछे जाने से फिर संसार चक्र मे पड सकता है साधक! इसी कारण तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे आज्ञा पाजिटिव चक्र को वेंकटाद्रि कहते है! एक कदम आगे यानि अपने ध्यान को और थोडा करने से अपने लक्ष्य परमात्मा मे लय हो जाता है

साधक अब सहस्रारचक्र मे जाए, इस चक्र मे तनाव डाले, लिंग मुद्रा मे बैठे! मुट्ठी बाँधे और अंदर के अंगुठें को खडा रखे, अन्य अंगुलियों को बंधी हुई रखे। सहस्रार चक्र मे मन लगाए, कूटस्थ मे दृष्टि रखे! अपनी शक्ति के अनुसार 21 बार लंबा श्वास लेवे और छोडे! सहस्रारचक्र को व्यष्टि मे अतल लोक और समिष्टि मे सत्य लोक कहते है! ये एक ही सत्य है बाकी सब मिथ्या है, इसी कारण इस को सत्यलोक कहते है! सहस्रारचक्र मे हजार पंखडियाँ होती है! यहा निर्विकल्प समाधि लभ्य होती है! परमात्मा, ध्यान और साधक एक हो जाते है! इस चक्र मे ध्यान साधक को परमात्म शक्ति की प्राप्ति कराता है! ध्यान के फल को साधक ‘’ध्यानफल सदगुरू परमहंस श्री श्री योगानंद देवार्पणमस्तु’’ कहके उस चक्र के अधिदेवता को अर्पित करना चाहिये! सहस्रारचक्र मे आरोग्यवान यानि साधारण व्यक्ति को 24 घंटे 240 मिनटों मे 1000 हंस होते है! तिरुपति श्रीवेंकटेश्वर स्वामि चरित्र मे सहस्रार चक्र को नारयणाद्रि कहते है!

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