Tuesday, 26 August 2014

सन्यास के मार्ग का चयन


सन्यास का मार्ग मात्र बिरले साधक ही चुन सकते हैं । जिनका मन निष्काम कर्म करते-करते पवित्र हो गया है संसार की आसरिक्तयों गौण पड़ती जा रही है वही यह मार्ग अपनाने की सोचें । परन्तु जिनके मन में द्वन्द्व हैसंषष्ज्ञ्र हैं कभी मन इधर दौड़ता है कभी उधर उनके लिए सन्यास एक सिरदर्द बन जाता है । ऐसे व्यक्ति के लिए भगवद्गीता कहती हैं-
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुम् अयोगत: । 5/6
अनुकरण है महाबाहो यह सन्यास दु:खप्राप्ति का मार्ग बनकर रह जाता है । जन सामान्य इस मार्ग के दु:खकष्ट प्रचण्ड झंझावातें के उलझ सकते हैं वह मार्ग सुपात्र ही चुन सकते हैं। परन्तु सुपात्रों के लिए यह परम आनन्द व मोक्ष का द्वारा खोल देता हैं । अत: पहले गृहस्थ आश्रम का मार्ग अपनाकर सन्यास के नायक मनोभूमि का निर्माण करना उचित हैं ।
पुराणों में कथा है युवराज कालभीति एवं महार्षि हरिद्रुम की। यह कथा बड़ी ही प्रेरक एवं मर्मसपर्शि है। युवराज कालभीति बड़े ही विशाल साम्राज्य के उतराधिकारी थे। उनके पिता सम्राट वीरमर्दन का यश चतुर्दिक फैला हुआ था। सम्राट ने युवराज कालभीति की शिक्षा व सस्कारों का उचित प्रंबंध किया था। संभवत: उच्चकोटि की इसी स्थिति के कारण युवराज कालभीति को वैराग्य हो गया। उन्होंने तप साधना करने की ठानी। शास्त्रों के अध्ययन व साधु संग से उन्हें जगत की नश्वरता का ज्ञान हो गया था। अब उन्हें तलाश थीकेवल एक सुचोग्य मार्गदर्शक की। उन्होंने जब अपने पिता सम्राट वीरमर्दन से अपनी मन:स्थिति की चर्चा की तो वह बोले-“ पुत्र! तुम्हारे शुभ विचारों से मैं सहमत हूँ। मानव जीवन तो होता ही है भगवत्प्राप्ति के लिएपर विचारों की श्रेष्ठता के साथ कुछ और भी आवश्यक है।
‘‘यह कुछ और क्या है पिताश्री?’’- कालभीति ने पूछा। उतर में सम्राट वीरमर्दन ने कहा-’’ इस कुछ और के बारे में तुम्हें महार्षि हरिद्रुम बताएँगे।’’ कालभीति ने कहा-’’ पिताजी मैंने सोचा है कि मैं उनसे दीक्षा प्राप्त करके संन्यास लूँगा। ‘‘ सम्राट वीरमर्दन ने इस कथन पर अपनी सहमति प्रदान की। पिता से सहमति प्राप्त कर युवराज कालभीति ने अरण्य की ओर प्रस्थान किया। लंबी यात्रा करके वह महर्षि हरिद्रुम के आश्रम पहूँच गए। प्रणाम-अभिवादन के बाद उन्होंने अपना आने का मंवव्य बताया। युवराज कालभीति की सारी बातें सुनकर महर्षि हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स! तुम्हारे उद्देश्य से मैं पूर्णतया सहमत हूँपरंतु अभी तुम्हारा विवेक अपरिपक्व हैइसलिए संन्यास हेतु तुम्हें अभी समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’
हरिद्रुम की इस बात ने कालभीति को आहत किया। उन्होंने कहा-’’ हे महर्षि! सांसारिक भोगों के प्रति मेरी दोषदृष्टि है। मुझे उनकी चाहत नहीं है। ‘‘ इस पर हरिद्रुम ने कहा-’’पुत्र! समय तुम्हारे सामने सत्य स्पष्ट करेगाअभी मैं यही कह सकता हूँ।’’महर्षि के इस कथन से निराश कालभीति ने उसी वन में तप करने की ठान ली। वह वहीं कुटी बनाकर तपक रने लगे। ऐसा करते हुए उन्हें कुछ मास ही बीते थे कि वहाँ से एक दिन साँझ समय एक राजकुमारी की काफिला निकला। राजकुमारी ने देखा कि एक युवा व्यक्ति पास में कुटिया बनाए तपस्या में लीन है। वह युवा और कोई नहींयुवराज कालभीति ही थे। वह राजकुमारी सौम्यदर्शना एक बड़े साम्राज्य की इकलौती वारिस थी। राजकुमारी सौम्यदर्शना पहली ही नजर में युवराज कालभीति से अतिशय प्रभावित हो गई ।
राजकुमारी ने अपने पिता को अपनी मनोदशा के बारे में बताया। पुत्री के प्रेम में विवश उसके पिता ने कालभीति के सामने सौम्यदर्शना के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव सुनकर कालभीति ने कहा-’’राजन्! यह संभव नहीं है। मेरे जीवन का उद्देश्य तप है। इसमें विवाह जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है।’’ यह सुनकर सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’वत्स! तुम्हारे कथन का तुम्हारे लिए औचित्य हो सकता हैपर मैं तो एक पुत्री का पिता हूँ। तुम मुझे पिता-तुल्य मानकर हो सके तो मेरा एक निवेदन स्वीकार कर लो।’’ कालभीति ने कहा-’’ आप संकोच त्यागकर अपना मंतव्य कहें। ‘‘उतर में सौम्यदर्शना के पिता ने कहा-’’ तुम अपनी सारी बातें मेरी पुत्री को समझा दो।’’ कालभीति ने इस पर हामी भर दी।
इसके बाद कालभीति और सौम्यदर्शना परस्पर मिलने लगे। प्रारंभ में कालभीति ने सौम्यदर्शना को वैराग्य की बातें कहीं। जीवन के सुखों की नश्वरता समझाई लेकिन जैसे-जैसे समय बीता उसके मन में सौम्यदर्शना के प्रति आसक्ति बड़ने लगी। उसके द्वारा अर्जित किया हुआ ज्ञान संस्कारबल के सामने क्षीण होने लगा। कुछ समय बाद उन दोनों का विवाह हो गया और कालभीति सौम्यदर्शना के राज्य का राजा बन गया। विवाह के एक वर्ष बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई । यह सब होने के बाद भी कालभीति का मन यदा-कदा तप के लिए छटपटाने लगता। सौम्यदर्शना भी अब उस पर विशेष ध्यान नहीं देती थी। उसका मन अपने पुत्र में रम गया था। समय बीतता गया। उसका पुत्र अब किशोर से युवा होने लगा।
तभी एक दिन महर्षि हरिद्रुम ने उसके महल के द्वार पर आकर आवाज दी। वह जब दौड़कर बाहर पहुँचातब उसने हरिद्रुम को देखकर प्रणाम किया। इस पर उसे आशीष देते हुए हरिद्रुम ने कहा-’’वत्स! अब तुम साधना के योग्य बन चुके हो। यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हे दीक्षा दे सकता हुँ। ‘‘ महर्षि हरिद्रुम की बात सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ गए। हरिद्रुम ने कहा-’’ वत्स अब तुम्हारे कर्मसंस्कार क्षीण हो चुके है। तुमने इस अवधि में जो अनुभव पाए है,वही तुम्हारा यथार्थ ज्ञान है। जो ज्ञान तुम्हें इसके पूर्व थावह केवल रटा हुआ था। उसमें अनुभव का अमृत नहीं था।’’ कालभीति को यथार्थ बात समझ आ गई ।
महर्षि हरिद्रुम ने उसे प्रबोध कराते हुए कहा-’’ वत्स! पढ़े हुए अथवा सोचे हुए विचार प्रेरित तो करते हैपरंतु संस्कारों से मुक्ति के लिए कठिन तप के साथ कर्म-मार्ग आवश्यक है। तुमने कर्ममार्ग पर चलकर धर्माचरण करते हुए स्वंय को शुद्ध कर लिया है। अब तुम तप की उच्च कक्षा में प्रवेश क अधिकरी हो।’’ हरिद्रुम की सभी बातें कालभीति की समझ में आ चुकीं थी। उसे यह बोध हो गयाकेवल विचार पर्याप्त नहीं हैविचारों के साथ संस्कारों को भी क्षीण करना पड़ता हैतभी ज्ञान सार्थक हो पाता है।
इनके बीच के एक ओर कड़ी है जो आज के युग के लिए बहुत ही उपयुक्ता है वह है गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना । लाहिडी महाश्य गृहस्थ थे सामान्य धोती कुर्त्ता व पहनते थे नौकरी करते थे । एक बार वो एक बहुत बड़े फिट पुरूष त्रेलंग स्वामी को मिलने गए । स्वामी जी अपने हजारों शिष्यों के साथ बैठे थे । उनको आना देखकर स्वामी जी जो उठ खड़े हुए व सम्मान पूर्वक लोहड़ी जी को बैढ़ाया । शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के इतना सम्मान क्यों । स्वामी जी ने बताया कि जिसके पाने के लिए मुझ वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी व रोटी का भी त्याग करना पड़ाजी गृहस्थ में रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं आज के युग में जहां खान-पान व पहनावा इतना अधिक प्रदूषित हो गया है गृहस्थ सन्यासी की भूमिका सर्वोत्तम जान पड़ती है ।
युग ऋषि श्री राम आचर्य जी के उनके गुरू महायोगी सर्वेश्वरा नन्द जी ने गृहस्थ सन्यासी की तरह रहने का आदेश दिया । आचार्य जी का जीवन एक गृहस्थ के लिए की अनुकरणायं है व एक सन्यासी के लिए इतना सुन्दर गृहस्थ जिससे आश्रय परम्परा की हजारों शिष्य उस परम्परा के लाभान्वित हुए । दूसरी ओर इतना प्रचण्ड तपइतना बड़ा पुरूषार्थ लोक कल्याण के विभिन्न इतिहास में ऐसा उदाहरण कठिनता से ही देखेन को मिलता है । यह किसी भी सन्यासी का आदर्श हो सकता है । युग के अनुकूल धर्म व परम्पराओं का निर्वाह सर्वोत्तम होता है । ब्रहमचारी को नगें पेर रहना चाहिए यह सोचकर बिनोबा जी ने चप्पल जूता त्याग दिया । शीघ्र ही उनके पता चला कि यह युग के अनुकूल नहीं है इसमें दुख अधिक है व लाभ कम ।
इसी प्रकार भावावेष में आकर सन्यास लेना युगानुकूल नहीं हैं अत: सोच समझकर मात्र परिपक्व मानसिकता वाल श्रेष्ठ साधक ही सन्यास ग्रहण करें ।
महायोगी सर्वेश्वरा नन्द जी हजारों वर्षो से हिमालय में साधनारत है व सन्त कबीर के भी गुरू रह चुके हैं ऐसे प्रमाण मिलते हैं ।
(अधिक जानकारी के लिए पढ़ें book- हमारी वसीयत और विरासत पुस्तकhttp://www.awgp.org)

Sunday, 17 August 2014

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       विराट स्वरूप का दर्शन कराया था
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उसके लिये क्या असम्भव है !

महर्षि आयोद धौम्य के तीन प्रमुख शिष्यों में से एक थे वेद। वे विद्याध्ययन समाप्त कर घर गये और वहाँ गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए रहने लगे। उनके भी तीन शिष्य हुए जिनमें सबसे प्यारे उत्तंक थे।

उत्तंक का अध्ययन समाप्त हो गया। वे घर जाने लगे। विद्याध्ययन की समाप्ति पर गुरुदक्षिणा अवश्य देनी चाहिए' – ऐसा सोचकर उन्होंने गुरुजी से विनती कीः "गुरुदेव ! मैं आपको क्या दक्षिणा दूँ ? मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?"

गुरु ने बहुत समझाया कि 'तुमने पूरे मन से मेरी सेवा की है, यही सबसे बड़ी गुरुदक्षिणा है।' किंतु उत्तंक बार-बार गुरुदक्षिणा के लिए आग्रह करने लगे, तब गुरु ने कहाः "अच्छा, भीतर जाकर गुरु पत्नी से पूछ आओ। उसे जो प्रिय हो, वही तुम कर दो, यह तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।'' यह सुनकर उत्तंक भीतर गये और गुरुपत्नी से प्रार्थना की, तब गुरुपत्नी ने कहाः "राजा पौष्य (जिनके राजगुरु थे वेदमुनि) की रानी जो कुण्डल पहने हुए है, वे मुझे आज से चौथे दिन पुण्यक नामक व्रत (वह व्रत जो स्त्रियाँ पति तथा पुत्र के कल्याण की कामना से रखती हैं) के अवसर पर अवश्य लाकर दो। उस दिन मैं उन कुण्डलों को पहनकर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहती हूँ।"

यह सुनकर उत्तंक गुरु और गुरुपत्नी को प्रणाम करके पौष्य राजा की राजधानी को चल दिये।

रास्ते में उन्हें धर्मरूपी बैल पर चढ़े हुए इन्द्र मिले। इन्द्र ने कहाः "उत्तंक तुम इस बैल का गोबर खा लो। भय मत करो।'' उनकी आज्ञा पाकर बैल का पवित्र गोबर और मूत्र उन्होंने ग्रहण किया। जल्दी में साधारण आचमन करके वे पौष्य राजा के यहाँ पहुँचे। पौष्य ने ऋषि के आगमन का कारण पूछा। तब उत्तंक ने कहाः "गुरुदक्षिणा में गुरुपत्नी को देने के लिए मैं आपकी रानी के कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।"

राजा ने कहाः "आप स्नातक ब्रह्मचारी हैं। स्वयं ही जाकर रानी से कुण्डल माँग लाइये।" यह सुनकर उत्तंक राजमहल में गये। वहाँ उन्हें रानी नहीं दिखीं, तब राजा के पास आकर बोलेः "महाराज ! क्या आप मुझसे हँसी करते हैं ? रानी तो भीतर नहीं हैं।"

राजा ने कहाः "ब्राह्मण ! रानी भीतर ही हैं। जरूर आपका मुख उच्छिष्ट है। सती स्त्रियाँ उच्छिष्ट मुख पुरुष को दिखाई नहीं देतीं।"

उत्तंक को अपनी गलती मालूम हुई। उन्होंने हाथ पैर धोकर, प्राणायाम करके तीन आचमन किया, तब वे भीतर गये। वहाँ जाते ही रानी दिखायी दीं। उत्तंक का उन्होंने सत्कार किया और आने का कारण पूछा।

उत्तंक ने कहाः "गुरुपत्नी के लिए मैं आपके कुण्डलों की याचना करने आया हूँ।"

उसे स्नातक ब्रह्मचारी और सत्पात्र समझकर रानी ने अपने कुण्डल उतारकर दे दिये और यह भी कहा कि "बड़ी सावधानी से इन्हें ले जाना। सर्पों का राजा तक्षक इन कुण्डलों की तलाश में सदा घूमा करता है।" उत्तंक रानी को आशीर्वाद देकर कुण्डलों को लेकर चल दिये।

रास्ते में एक नदी पर वे नित्यकर्म कर रहे थे कि इतने में ही तक्षक मनुष्य का वेश बनाकर कुण्डलों को लेकर भागा। उत्तंक ने उसका पीछा किया किंतु वह अपना असली रूप धारण कर पाताल में चला गया। इन्द्र की सहायता से उत्तंक पाताल में चला गया। इन्द्र को अपनी स्तुति से प्रसन्न करके नागों को जीतकर तक्षक से उन कुण्डलों को ले आये। इन्द्र की ही सहायता से वे अपने निश्चित समय से पहले गुरुपत्नी के पास पहुँच गये। गुरुपत्नी उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुई और बोलीं- "मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, तुम्हें सब सिद्धियाँ प्राप्त हों।"

गुरुपत्नी को कुण्डल देकर उत्तंक गुरु के पास गये। समाचार सुनकर गुरु ने कहाः "इन्द्र मेरे मित्र हैं। वह गोबर अमृत था, उसी के कारण तुम पाताल में जा सके। मैं तुम्हारे साहस से बहुत प्रसन्न हूँ। अब तुम प्रसन्नता से घर जाओ।" इस प्रकार गुरु और गुरुपत्नी का आशीर्वाद पाकर उत्तंक अपने घर गये।

परमात्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के श्रीचरणों में जिसकी अनन्य श्रद्धा हो, गुरुवचनों पर पूर्ण विश्वास हो एवं गुरु-आज्ञापालन में दृढ़ता हो उसके लिए जीवन में कौन सा कार्य असम्भव है ! आगे चलकर उत्तंक बड़े ही तपस्वी, ज्ञानी ऋषि हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के अनंतर द्वारका लौटते समय इन्हें अपने महिमामय विराट स्वरूप का दर्शन कराया था 

Friday, 15 August 2014

वासना की परतों के पार शुन्य का संसार


एक बुढिया जोर-जोर से हँस रही थी। उसके हँसने की आवाज दूर-दूर तक पहुँच रही थी। आस-पड़ोस के सभी लोग उसे पागल बुढिया के नाम   से जानते थे। उसकी अजीब सी हरकतेंअबूझ बातें एवं विचित्र जीवनशैली के कारण लोग उसे पागल समझमे थेपरंतू उसकी निडरतानिर्भीकता  एवं साहस से उससे डरते भी थें। उसके पीछे लोग चाहे जो बोलेंपर उसके सामने आकर सबकी बोलती बंद हो जाती थी। वह थी ही ऐसी। बड़ी-बड़ी आँखेंगौर वर्णश्वेत केशचेहरे पर झुर्रियाँ उसकी उम्र को बयां करती थीं वह अपने जीवन के सत्तर वर्ष  पूरे कर चुकी थीपरंतु बुढ़ापे को अपने हाथ की लाठी से खदेड़ती रहती थी। वह स्वस्थसतेज एवं निश्ंिचत जिंदगी जीती थी। बूढ़ी मार्इ भूखे को भोजन अवश्य कराती थी और यदि कोर्इ उसकी झोंपड़ी में आ गया तो वो खाली हाथ नहीं जाता था। उसके पास आजीविका के नाम पर केवल एक-दो खेत थेजिसमे  वह सब्जीप्याज आदि बोती और उसी को बेचकर अपना जीवन निर्वाह करती थी। मार्इ अजीब थीवह प्याज बोती जरूर थीपरंतु उसे खाती नहीं थी प्याज के साथ वह विचित्र खेल खेलती थी। गाँव में कोर्इ यदि बीमार हो जाता तो वह अपनी देशी दवा की पोटली लेकर बिन बुलाए वहाँ पहुँच जाती थी। गाँँव के मुखिया बद्रीप्रसाद कहते थे--’’ अरे मार्इ! इस पोटली में कौन सा जादू है कि सभी प्रकार के रोग इससे ठीक हो जाते है। ‘‘इसके उत्तर में मार्इ कुछ कहती नहीं थीकेवल मुस्करा देती थी और बिना बोले अपनी झोंपड़ी पर पहुँच जाती थी। मार्इ एक फकीर अजान के प्रति अपार श्रद्धा रखती थी। इसी अपार श्रद्धा के वशीभूत फकीर अजान यदा-कदा मार्इ की झोंपड़ी में आ जाया करते थे। वैसे गाँव भर के लोग फकीर बाबा के चरणों में भक्तिपूर्वक नमन करते थे। फकीर बाबा अत्यंत सेवाभावी थे और इसी सेवा भाव के कारण लोग उन पर जान छिड़कते थे। फकीर बाबामार्इ को भी बड़ा आदर एवं सम्मान देते थे। एक दिन बाबा बद्रीप्रसाद से कह रहे थे--’’ बद्री तुम मार्इ को समझ नहीं सकते। वह बड़ी ही विचित्र है। इनकी आँखे वह देखती हैजो कोर्इ देख नहीं सकता। वह जो बोलती हैउसे बूझना मुश्किल है। उसे बूझने के लिए मैं भटकता हूँपर वह अपनी झोंपड़ी में मस्त रहती है। बाबामार्इ की झोंपड़ी में आए हुए थे। मार्इ बड़े प्रेम से उन्हें भोजन परोस चुकीं थीं। और उनसे थोंड़ी दूर बगल में बैठी थीं। दूर से बच्चों की इमली चटखारने की आवाज आ रही थी। मार्इ ने पास रखे प्याज की ढेरी से एक प्याज की गाँठ हाथ में ली और उसे छीलने लगीं। परतों पर परतें निकालती गर्इ। पहले उसने लाल प्याज की सूखी परत को हटायाफिर मोटी खुरदी परतों को हटाया। इतने में प्याज की तीव्र एवं तीखी गंध से उनकी आँखों में जलन होने लगी और आँसू बहने लगे। वह छीलती गर्इखुरदरीपरतों के बाद मुलायमचिकनी परतें निकलीं। बड़ी प्याज छोटी होने लगी जैसे-जैसे प्याज की परतें उधड़ती गर्इ,प्याज छीलते-छीलते बूढ़ी मार्इ के हाथ कुछ नहीं आया। अपनी इस स्थिति पर वह जोर से हँस दी वह जोरों से हँसती जा रही थी और बाबा उसे अपलक निहार रहे थे। बाबा के हाथ में रोटी का टुकड़ा था वह टुकड़ा हाथ में ही धरा रहा और वे बड़े कुतूहल से मार्इ को देख रहे थे। मार्इ हँसती जा रही थी और प्याज के छिलके को बटोरती जा रही थी। वह उठीं और प्याज के छिलके को अपनी झोंपड़ी के पीछे फेंक आर्इ। वह उनका नित्य का क्रम था। वह रोज प्याज छिलती और अंत में हाथ कुछ नहीं आनेपर जोर से हँस देतीं और बिखरे प्याज के छिलके को उसी नियत स्थान पर फेंक आती थीं। उनकी इस हँसी की आवाज से आस-पड़ोस के लोग परिचित तो थेपरंतु उस हँसी के मर्म को केवल  वह और बाबा ही समझते थे। मर्म को समझे बिना किया गया व्यवहार बड़ा अबूझ एवं अटपटा लगता है। वही वजह थी कि मार्इ की हँसी लोगों को अटापटी लगती थीपर बाब के लिए रहस्य का नया परदा खोल देती थी। बाबा एकटक मार्इ को निहार रहे थे। मार्इ बोलीं--’’बाबा! अपना मन भी तो ऐसा ही है। एक प्याज की बड़ी गाँठ की तरह। उसे उघाड़ते चलें--पहले स्थूल परतें  फिर सूक्ष्म परतें फिर शुन्य। पहले विचारों की मजबूत एवं खुरदरी परतें,फिर वासनाओं की सूक्ष्म एवं कोमल परतेंफिर अहंकार की अतिसूक्ष्म परतेंफिर कुछ भी नहीं। अंत में बस शुन्यता शेष  रह जाती है और जहाँ शुन्यता होती हैवहाँ कुछ भी नहीं होता है। ‘‘ मार्इ ने कहा--’’भोजन समाप्त कर लें। बाहर अच्छी हवा चल रही है। चलें पीपल के नीचे बैठते है। ‘‘बाबा शून्यता में खो गए थे। उन्हें भोजन करने का भान नहीं था शुन्यता में खो जाना ही तो ध्यान है। बाब ध्यान की गहराइयों में उतर गए थे। मार्इ की आवाज से वह प्रकृतसथ हुए। पत्तल को लेकर उसी प्याज वाले स्थान पर उन्होंने फेंक दिया। मार्इ ने उनके हाथ धुलाए। और कहनें लगीं--’’बाबा टकराहट कहाँ है?--जहाँ रंग हैरूप हैवासना हैअहंकार हैवहीं तो टकराहट होती हैवहीं तो हम आपस में एक दूसरे से उलझते है और उलझते ही चले जाते है इसी उलझन का नाम ही तो संसार है यह संसार सतह पर हैइसलिए हमारी आँखों से दृश्यमान हैऔर इसे ही यथार्थ एवं सच मान बैठते हैपरंतु यह आँखों से देखी गर्इ बात कितनी सच हैआपने तो इस प्याज को छिलते हुए देख लिया। प्याज को छीला तो बचा क्याशुन्य! इसी प्रकार संसार के पार गयारहा क्यानीरवता।’’  मार्इ झाडू ले आर्इ और पेड़ के नीचे बुहारने लगी। फिर वह बोली--’’बाबा! सतह पर संसार के सब रंग हैआप हैमैं हूँपरंतु केंद्र में शुन्य-नीरवता है। यह शुन्य गहनता ही हमार अपना वास्तविक स्वरूप है। फिर उसे आत्मा कहें या कुछ औेरपर यह सच है कि विचारवासनाअहंकार जहाँ नहीं हैवहीं है जो है। इसी का बोध जिस प्रकिया के द्वार संपन्न होता है,वही तो ध्यान है। ध्यान क्या हैइसी शुन्यता में उतर जान ही तो है। इसी नीरवता में विलीन हो जाना ही तो है। प्याज के छिलके के समान जब मन के सभी विचारवासना एवं अहंकार की परतें उधड़ जाती है तो मन निर्भार एवं शुन्य हो जाता है। यह शुन्यता ही हमारा स्वरूप है। जैसे-जैसे मन की परतें उधड़ती जाती हैमन के सुरम्य एवं सुनहले प्रदेश में प्रवेश करने लगता है और अंत में जब सभी परतें गिर जाती हैतब हम अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाते है। इतना बोलने के बाद मार्इ की उन्मुक्त एवं अम्लान हँसी से वातावरण चैतन्य हो उठा। उसे सुन साँँझ के अधरों में सुनहली मुस्कान भर गर्इ और वह आरक्त हो उठी। इस हँसी से बाबा झूमने लगेनाचने लगेगाने लगे। मार्इ थी कि बसवह नित्यप्रति की तरह झाडू लगा रही थी। मार्इ ने अपने अन्दर झाडू लगा ली थीवह साफस्वच्छपवित्र हो चुकीं थी। उन्हें अपना परिचय हो चुका था। बाबा भी इस शुन्यता के अपूर्व सौंदर्य का बोध प्राप्त कर चुके थे। 
स्वामी विवेकानंद और श्री रामकृष्ण परमहंस

प्रेम की शर्त यही है। वह सिर्फ ‘‘एक’’ से होता है। और उस ‘एक’ से इस कदर होता है कि किसी दूसरे कके लिए जगह ही नहीं बचती। स्वंय अपने लिए भी नहीं। प्रेमी और प्रेमपात्र इस ‘एक’ में लय हो जाते है। यही प्रेम का विज्ञान हैं। सदा से रहा है और सूरज के चमकने तक रहेगा। नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) ने भी तो अपने ठाकुर (श्री रामकृष्ण परमहंस जी) को इसी शिदत से चाहा था। यह उन दिनों की बात है, जब ठाकुर ने गले में कैंसर होने की लीला की। क्यों की? यह तो वो ही जानें। या फिर वह जाने, जिसे वे जनाएँ। पर जो भी हो, नरेंद्र के लिए यह बड़ी विकल घड़ी थी। ठाकुर का कष्ट बढ़ता ही जा रहा था। एक निवाला तक कंठ से नीचे नहीं उतर रहा था। अब तो ढाई दिन बीत गए थे, जब से ठाकुर उपवास पर थे। किसी सेवा कार्य से लौट कर नरेंद्र ने गुरू भाई लाटू से पूछा-’क्या आज सुबह से ठाकुर ने कुछ खाया? लाटू-नहीं भईया , आज भी ठाकुर को बहुत खांसी हो रही है। कुछ भी बनाकर ले जाता हूँ, वो छूते तक नहीं है। नरेन्द्र के सीने में दर्द की गांठ बंध गई । कसमसाता हुआ बोला-’ऐसे ही नहीं खाएँगे? यह भी भला कोई बात हुई चल तो जरा मेरे साथ!’ दोनों गुरू भाई रसोइघर में पहुँचे! खूब सारा पानी ड़ालकर दलिया आँच पर चढ़ा दिया। ताकि वह बिल्कुल तरल बने। थोड़ा-सा नमक डाला। फिर नरेंन्द्र अपने हाथों से उसे घुमाता और घोटता रहा। इतना घोटा कि दलिए के दाने अपनी दानेदारी ही खो बैठे और मक्खन-मलाई से घुल गए। पात्र में डालकर नरेंद्र ने यह दलिया लाटू को सौंप दिया। कहा-’जा लाटू हर यत्न से तू ठाकुर को इस दलिए का भोग लगवाकर ही आएगा’। लाटू भाप उड़ाता हुआ, दलिए को लेकर सीधे ठाकुर के कक्ष में पहुँचा। नरेंद्र भी दबे पाँव जीछे गया और कक्ष के बाहर खिड़की से छिप-छिप कर झाँकने लगा। लाटू- चरण-वंदन, ठाकुर। यह पतला-सा दलिया है। दया कर, इसे ग्रहण करें। ठाकुर-(अनमने भाव से)- रख दे, जब लेना होगा, ले लूँगा। लाटू-(विचलित होकर)-अब नहीं, तो कब ठाकुर? ढाई दिन गुजर गए है। मैंने आपको मोटे अन्न का एक निवाला तक ग्रहण करते नहीं देखा। अगर आपकी सेहत थोड़ी-सी भी बिगड़ी न, तो हम बर्राश्त नहीं कर पाएँगे। आपको यूँ
ठाकुर-(हँसते हुए)-यह तेरी भाषा तो नहीं लग रही। बता,बता, किसने तेरे मुँह में यह बोली डाली है? लाटू (शर्माता हुआ)-जी वो जी नरेन्द्र भइया ने ऐसा कहा था। ये दलिया भी उन्होंने बनाया है।
उधर खिड़की के पास खड़ा नरेन्द्र अपना नाम आते ही दुबक गया। दाँतो तले जिह्म आ गई और तंतु-तंतु ठाकुर की प्रतिक्रिया जानने को बेकरार हो गया। उधर ठाकुर ने प्यारी झिड़की लगाई अपनेपन के शहद में घुली हुई।
लाटू, एक तू और एक तेरा वो भाई नरेंदर दोनों के पास क्या और कोई  चिंता या चिंतन नहीं रहा? आश्रम में इतने सेवाकार्य है उन्हें सम्भालों और उस नरेन्द्र से कह दो, मैंने उसे रसोर्इ में कड़छी चलाने के लिए नहीं पाला-पोसा। भला प्रचार कौन करेगा?’ इतना कहते ही ठाकूर का कंठ फड़फड़ानें लगा। तेज खांसी फूट चली।
नरेन्द्र छटपटाता हआ भीतर दौड़ा। ठाकुर की छाती मलने लगा। जब तक खांसी शांत हुई  तब तक नरेन्द्र की आँखों में तरलता आ गई थी। नीचे जमीन पर बैठ गया ओर  ठाकुर के घुटने पकड़कर बोला-’मुझे बताओ, अगर अध्यात्म का आधार(ठाकुर)ही नहीं रहेगा, तो मैं प्रचार करके क्या करूँगा? इस आश्रम की आत्मा (याने आप) नहीं रहेगी, तो भला इस बेजान ईट-पत्थर-गारे के भवन को हम संभालकर क्या करेंगे हमें आप चाहिए ठाकुर हमें आपकी जरूरत है। (नरेन्द्र के गले में भावों का फंदा फंस चुका था। इसलिएस आवाज में रूदन साफ सुनाई दे रहा था।) ठाकुर, आपकी स्वस्थ अवस्था हममें प्राण फुँकती है। आपका बिना खासे हँसना बिना खाँसे डाटना ऊर्जा भरी लीलाएँ करना इन सबके लिए हमारा मन तरसता है। आपको यूँ दिन-पे दिन कमजोर होते देखने से हमारा मन दु:खता है। इसलिए दया कर, हमारे लिए, हमारी खुशी के लिए, थोड़ा-सा भोजन ग्रहण कर लीजिए। न मत करना, ठाकुर आपको मेरी सौगन्ध  ठाकुर ने अब एक शब्द भी और कहना उचित नहीं समझा। चुपचाप, सीधे-स्याने बच्चे की तरह दलिए का पात्र उठाया और मुँह को लगा लिया। एक घूंट भरी फिर दूसरी। नरेन्द्र को लगा, जैसे उसके सारे मनोरथ पूरे हो गए। जैसे, ठाकुर ने नहीं उसकी जन्मों से भूखी आत्मा ने कुछा खाया हो। वह टकटकी लगाकर ठाकुर और पात्र को देखता रहा। ठाकुर दूसरी घूँट भर चुके थे। लेकिन यह क्या!! तीसरी घूँट न भर पाए। उससे पहले ही भयंकर खांसी का प्रकोप हुआ। ऐसी खांसी, जो अपने साथ वो दो घूँट दलिया तो बाहर लाई ही  ही साथ ही, खून की धाराएँ भी खींच लाई।
लाटू ने दौड़कर तौलिया ठाकुर के मुख पर लगा दिया। ठाकुर खांसते रहे और उल्टी करते रहे और नरेन्द्र उसकी दशा तो ऐसी हुई, मानो किसी ने एक झटके में शरीर के रोम-रोम से जान ही खींच ली हो। स्वयं को सम्भाल न पाया। बालक की तरह फूट-फूट कर रो पड़ा। इस रूदन की आवाज को दबाने की भी उसने कोशिश नहीं की। बेधड़क रोया बिना किसी परवाह के रोया फफक-फफक के रोया। उसके रोने को, उसके दर्द को वही प्रेमी दिल समझ सकते है, जो शिष्यत्व के सांचे में ढले है। वही जान सकते है कि उस दिन नरेन्द्र पर क्या गुजरी होगी!
ठाकुर की खांसी शांत हुई। अब कक्ष में सिर्फ नरेन्द्र का रूदन मुखर था। ठाकुर थके-हारे से दिख रहे थे, फिर भी मुस्कुरा रहे थे। आँखों से ममता बरस रही थी। एकाएक वे झुके और प्यार से बोले-’नरेन्द्र, तुझे वो दिन याद है, जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था?  तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था। पंरतु अपनी माँ से झूठ कह देता था कि मूने अपने मित्र के घर खा लिया है, ताकि तेरी गरीब माँ थोड़े-बहुत भोजन को तेरे छोटे भार्इ को परोस दे। है न?  बोल न, ऐसा ही था न?
नरेन्द्र ने रोते-रोते’ हाँ में सिर हिला दिया। ठाकूर फिरर बोलेष तूने अपनी यह युक्ति तुझ पर चलानी चाही थी। यहाँ मेरे पास मंदिर आता, तो चेहरे पर खुशी का मखौटा पहन लेता। हँस-हँस के ऐसे दिखाता जैसे कि बड़ा तृप्त हो। हुँ पर क्या तेरा यह नकली नाटक मेरे आगे चल पाता था? तु चाहे नाट्य-शैली में कितना ही उस्ताद हो, पर मैं भी तो कम नहीं। झट जान लेता था कि तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चोंकड़ी मचा रहा है कि तेरा शरीर क्षुधाग्रस्त है। और फिर तुझे अपने हाथों से लड्डू-पेड़े, मक्खन-मिश्री खिलाता था। है ना? बता न?
नरेन्द्र ने सूबकते हुए फिर गर्दन हिलार्इ। अब ठाकुर फिर मुस्कुराए और प्रश्न पूछा-’ कैसे जान लेता था मैं यह बात? कभी सोचा है तूने?’ नरेन्द्र्र्र सिर उठाकर परमहंस को देखने लगा। अवाक् मुद्रा में! हालाकि होंठ अब भी फफक रहे थे।
ठाकुर-बता न, मैं तेरी आंतरिक स्थिति को कैसे जान लेता था?
नरेन्द्र-क्योंकि आप अंतर्यामी माँ है, ठाकुर।
ठाकुर-अंतर्यामी! अंतर्यामी किसे कहते है?
नरेन्द्र-जो सबके अन्दर की जाने।
ठाकुर-कोई अंदर की कब जान सकता है?
नरेन्द्र- जब वह स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।
ठाकूर-याने मैं तेरे अंदर भी बैठा हूँ। हूँ?
नरेन्द्र- जी बिल्कुल! आप मेरे हृदय में समाए हुए है।
ठाकूर-तेरे भीतर में समाकर मैं हर बात जान लेता हूँ। हर दु:ख-दर्द पहचान लेता हूँ। तेरी भूख का अहसास कर लेता हूँ तो क्या तेरी तृप्ति मुझ तक नहीं पहुँचती होगी?
नरेन्द्र-तृप्ति?
ठाकुर-हाँ, तृप्ति! जब तू भोजन खाता है और तुझे तृप्ति होती है, क्या वह मुझे तृप्त नहीं करती होगी? अरे पगले, गुरू अंतर्यामी है, अंतर्जगत का स्वामी है। वह अपने शिष्यों के भीतर बैठा सबकुछ भोगता है। मैं एक नहीं हजारों मुखों से खाता हूँ। तेरे, लाटू के, काली के, गिरीश के,सबके! याद रखना, गुरू कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वह तुम्हारें रोम-रोम का वासी है। तुम्हें पूरी तरह आत्मसात् कर चुका है। अलगाव कहीं है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही, तब भी जीऊँगा तेरे जरिए जीऊँगा समझा कुछ? मैं तुझमें रहूँगा, तू मुझमें।

Wednesday, 13 August 2014

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              सूर्य विज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग
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स्वामी विशुद्धानन्द जी अनेक नामों से विखयात रहें है। भारत में काली कमली वाले बाबा के नाम से उनके अनेक मंदिर मठ है। स्वामी योगानन्द ने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में गंन्ध बाबा के नाम से इनका सविस्तार वर्णन किया है।
महर्षि विशुद्धानंद अपने शिष्य उद्धव नारायण के साथ बैठे हुए थे। उद्धव नारायण बाबा के ‘सूर्य विज्ञान’ से परिचित एवं अत्यधिक प्रभावित थे। बाबा अपने शिष्यों के पति अपार एवं अपरिमित स्नेह रखते थे। तथा उन्हें सूर्य विज्ञान के सिद्धांत समझाते एवं उनके प्रयोगों को प्रत्यक्ष करके दिखाते रहते थे। वे शास्त्रों में वर्णित अगणित एवं अनगिनत घटनाओं को सहज भाव से प्रदर्शित कर देते थे। इसी क्रम में महाभारत काल में प्रचलित अग्निबाण की चर्चा चल रही थी। उद्धव नारायण अपनी जिज्ञासा प्रकट करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहे थे। जिज्ञासावश दद्धव नारायण ने बाबा विशुद्धानंद से कहा--’’बाबा! शास्त्रों में वर्णित अग्निबाण, वायुबाण आदि के प्रयोगों के बारे में जो उल्लेख मिलता है, क्या ये सारी बातें सही है या मात्र कपोल कल्पना है।’’बाबा अपने शिष्य की बातों को सुनकर मुस्कराने लगे। वे बोले--’’उद्धव! ज्ञान-विज्ञान अनेक रहस्यों से आवृत है। यदि इन रहस्यों को अनावृत कर लिया जाए, इनको भेद दिया जाए तो इसका यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है, इसके प्रकाश से हम परिचित हो जाते है, फिर इस विषय के प्रति समस्त संशय, भ्रम एवं संदेह विलीन हो जाते है, उसे मैं अभी दूर किए देता हूँ।’’
गंभीर स्वर में बाबा आगे बाले-’’ तुम्हारी बुद्धि पर कई आवरण पड़े है, इसलिए वह दृश्य-ज्ञान से परे एवं पार की चीजों को न देख पाती है और न सोच पाती है, परतु क्या आँख बंद कर देने पर सूर्य का अस्तित्व मिट जाता है। नहीं! हम केवल सूर्य से दूर हो जाते है और सोचते है कि सूर्य है ही नहीं। जो अगोचर है, दृष्टि से ओझल है, उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए। अच्छा जाओ और उस सरकंड़े के जो पौधे लगे है, उनमें से तीन टुकड़े काटकर ले आओ। ‘‘उद्धव नारायण ने कहा--’’अवश्य गुरूदेव!’’ और वह सरकंड़े के हरे पौंधे में से तीन लंबे-मोटे टुकडे काटकर ले आया। काटते समय सरकंडे के पौधे से सफेद दूध जैसा चिपचिपा द्रव निकला। वह उसको साफ करके लें आया और टुकडों को बाबाके सामने रख दिया। बाबा ने तीनों टुकडों को देखा और उनमें से एक का धनुष बनाया। उस धनुष को उन्होने अपने हाथों में लिया और पता नहीं कौन सा मंत्र फुँका किवह धनुष देखते-देखते मजबूत एवं सुंदर धातु में परिवर्तित हो गया। फिर उन्होनें दूसरे सरकंडे के टुकडे को उठाया और मंत्र फुँका तो वह धातु का तीर बन गया। इस घटना को देख उद्धव को अत्यंत हैरानी हुई । इस दृश्य को देख्खकर वह खुशी से उछल पड़ा, क्योंकि वह अद्भुत एवं आश्चर्यजनक घटनाओं का साक्षी जो बन रहा था। बाबा ने कहा--’’ उद्धव! यह सामान्य तीर-कमान हैं इसमें कोई  विशेषता नहीं है, परंतू अब इसका वास्तविक प्रयोग देखो। ‘‘यह कहकर बाबा ने धनुष पर बाण चढ़ाया और कुछ मंत्र पढ़ा, फिर उसे सामने खड़े बरगद के पेड़ की ओर छोड़ दिया। क्षणमात्र में ही तीर बरगद के वृक्ष के पेड़ चीरते हुए उस पार निकल गया ओर एकाएक बरगद के पेड़ में भीषण आग लग गई । आग की लपटें तेजी से उठ रही थी। एक क्षण में विशाल बरगद का हरा-भरा पेड़ जलकर ठूँठ बन गया। बाबा ने कहा-’’उद्धव! इस आग को कोई  नहीं बुझा सकता। यह अभिमंत्रित आग है। फायर ब्रिगेड के लिए भी पूरी शक्ति लगाकर इसे बुझा पाना संभव नहीं हें इसे कहते हैं अग्निबाण।’’ बाबा आगे बोले-’’ वत्स! अग्निबाण से बड़ी-बड़ी इमारतों को जलाया जा सकता है। पूरे के पूरे शहर को दावानज में परिवर्तित किया जा सकता है, यहाँ तक कि समुद्र में आग भी लगजाएगी सकती है। इसका प्रयोग प्रकृति में विक्षोभ एवं असंतुलन उत्पन्न करता है, अत: इसे केवल विशेष परिस्थितियों में प्रयोग किया जामा है। ‘‘ उद्धव ने कहा--’’ इस आग को कैसे बुझाया जा सकता है और क्या इस बरगद के पेड़ को पुन: पूर्वस्थिति में लाया जा सकता है? ‘‘ बाबा ने कहा-’’ वत्स! तुम्हारे प्रशनों का उतर यह अगला तीर देगा। ‘‘ बाबा ने तीसरे सरकंडे के टुकड़े को अभिमंत्रित करके तीर बनाया और  उसे धनुष पर चढ़ाकर बरगद के जले पेड़ पर चला दिया। पल भर में ही उसके ऊपर आसमान में काले मेघ घुमड़ने लगे और बारिश से आग बुझ गई  और आग के बुझते ही जला हुआ पेड़ पुन: उसी रूप में दृश्यमान हो गया। अब उद्धव से रहा नहीं गया और वह जोर से बोल पड़ा--’’ बाबा! क्या यही वरूणबाण है? ‘‘ बाबा धीरे से मुस्कराए ओर बोले --’’ हाँ उद्धव। ‘‘ इसके बाद बाबा ने एक मंत्र का उच्चारण किया तो सरकंडे के तीन टुकड़े जैसे थे, वैसे ही बन गए और वहाँ सब कुछ ऐया हो गया, मानो कुछ हुआ ही न हो। बाबा ने कहा-’’ उद्धव! अब तुमको समझ में आया कि शास्त्रसम्मत बातें अर्थहीन एवं कपोलकल्पित नहीं हैं इनमें गहरा रहस्य है। हाँ इतना अवश्य है कि हर कोई उस रहस्य को भेदने की जानकारी नहीं रखता। ‘‘उद्धव! अब जाकर भोजन ग्रहण कर लो। आज शाम को गोपीनाथ आ रहा है। उसके पास तमाम जिज्ञासा रहती है। संध्या वंदन के पश्चात इस विषय  पर चर्चा करेंगे।’’ गोपीनाथ बाबा के प्रिय शिष्य थे। इस बात से उद्धव नारायण भी परिचित थें, परंतु बाबा का प्यार सारे शिष्यों पर समान रूप से था। शाम को बाबा का चहरा दमक रहा था। बाबा के सामने थोड़ी गोपीनाथ एक आसन पर बैठे हुए थे और बाई  ओर उद्धव विराजमान थें। अपने गुरू के समक्ष दोनों शिष्य शिशुवत् भाव से उपस्थित थे। बाबा ने गोपीनाथ की ओर दृष्टिपात किया और कहा--’’वत्स! अध्यात्म एवं विज्ञान, दोनों ही प्रायोगिक एवं अनुभवगम्य क्षेत्र है। अध्यात्म शाश्वत है, परतु विज्ञान सामयिक। अध्यात्म चेतना का परम विज्ञान है, इसलिए यह शाश्वत है,कभी समाप्त एवं धूमिल नहीं होने वाला है, जबकि विज्ञान जड़ जगत एवं पदार्थ पर आधारित होने के कारण सामयिक होता है। यह सामयिक इसलिए भी है, क्योंकि पदार्थ जगत (संसार) में जब एक आविष्कार होता है तो कुछ अंतराल बाद नया आविष्कार होता है और नए आविष्कार के सूत्र सिद्धांत से नई  तकनीकें ढूँढी जाती है,अर्थात पुराने के स्थान पर सामयिक रूप से उपयोगी नई तकनीक विकसित हो जाती है और लोग पुराने के बदले नई चीजों का उपयोग करने लगते हे। बाबा की बात समाप्त हो चुकी थी। गोपीनाथ को अपनी खोज का आधार मिल गया था एवं उद्धव नारायण अत्यंत प्रसन्न थे। गोपीनाथ इस अनंत की खोज के लिए मन में नए ताने-बाने बुनने लगे।

Tuesday, 12 August 2014

मानसिक शांति


विहाय कामान्य: सर्वान्पूमांश्रच्रति नि:स्पृह:।
निर्ममो निंरहकार स शान्तिमधिगच्छति।।
अर्थात जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममातारहितअहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है।वही शांति को प्राप्त होता है एवं स्थितप्रज्ञ कहलाता है। अर्थात मानसिक शांति समस्वरताजीवन योग की धुरी एक ही है-विहाय कामान्य:-संपूर्ण त्याग। यही सच्चे शिष्य कीसंतुलित व्यक्ति की निशानी है कि उसकी कोई कामनाएँ नहीं रहती इसीलिए वह शांति को प्राप्त द्रिष्ट गोचर होता है। वह ममता रहित भी होता है। कामना के रहते बुद्धि स्थिर नहीं रह सकती। कामना बाँधती है तो भक्ति मुक्त करती है। कामनाएँ घसीटती हैं तो भक्ति विर्सजन की ओर ले जाती है। जब कामनाएँ है बुद्धि अस्थिर है तो वह परमात्मचेतना में स्थित पुरुष कैसे बन सकता है। वही व्यक्ति स्थितप्रज्ञ हो सकता है जिसकी बुद्धि स्थिर हो। जब यह हो जाता हैसंसार में मन नहीं रहतास्रष्टि  के केन्द्र में व्यक्ति स्थिर हो जाता हैलगता है मै बुद्धि से परे हूँ। फिर दुनिया भर के प्रपंच मुझे सता नहीं सकते। नाम क्यों नहीं मिला,यश क्यों नहीं गाया गयामेरी कीर्ती क्यों नहीं हुर्इमेरी निंदा क्यों हुई यह सब चीजें परेशान नहीं करतीं। छोटा बच्चा खिलौना टुटने पर रोने लगता हैइसी प्रकार अस्थिर व्यक्ति कामनाओं के पूरा न होने पर रोता हैव्यथित होता है तथा तनाव ग्रस्त हो जाता हैजबकि एक बड़ा बच्चा जिसके लिए खिलौने कोई महत्व नहीं रखतेऐसा कोई  प्रसंग आने पर परेशान नहीं होता। एक परिपक्व व्यक्ति की तरह स्थितप्रज्ञ की स्थिति होती है। ऐसी स्थिति बनती है जब हम कामनाओं से मुक्त होकर आत्मा में स्थित हो जाते है।
अगले श्लोक में भगवान कहते है-
दु:खेवनुद्विगन्मना: सुखे” विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनीरूच्यते।।
अर्थात दुखो की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होतासुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निसपृह है तथा जिनके रागभय और क्रोध नष्ट हो गए हैऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। दुखो के कारण तो कई आते हैपर उन्हें स्थितप्रज्ञ सहन कर लेता हैउद्विग्न नहीं होता। उसे सुख की कामना भी नहीं होती। सुख पाने की आकांश में वह उद्विग्न भी नहीं होता। वह वीतराग हो जाता है। स्वंय को राग,भयक्रोध से परे चलकर अपनी मन:स्थिति उच्चस्तर बना लेता है। हम जैसे समान्य व्यक्ति सुखों की इच्छा बराबर बनाए रखते हैदुख में परेशान हो जाते है। यही हममें व स्थितप्रज्ञ में सबसें बड़ा अन्तर है।

उपासना के दो चरण - जप और ध्यान


जप के समय ध्यान करते रहने की आवश्यकता इसलिए रहती है कि मन एक सीमित परिधि में ही भ्रमण करता रहेंउसें व्यर्थ की उछल-कुदभाग-दौड़ का अवसर न मिलें जिन्हें निराकार साधना-क्रम पंसद हैउनके लिए प्रात: काल उगते हुए अरूण वर्ण सूर्य का ध्यान करना उत्तम है।
मन को भागने से रोकने के लिए इष्टदेव की छवि को मनोयोगपूर्वक निरखते रहने से काम चल जाता हैपर इसमें रस प्रेमएकता और तादात्म्य उत्पन्न करना और भी शेष रह जाता है और यह प्रयोजन ध्यान में प्रेम-भावनाओं का समावेश करने से ही सम्भव होता है।
उपासना के आरम्भ में अपनी एक-दो वर्ष जितने निशिचन्तनिर्मलनिष्कामनिर्भय बालक जैसी मनोभूमि बनाने की भावना करनी चाहिए और संसार में नीचे नील जल और उपर नीन आकाश के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ एवं इष्टदेव के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति के न होने की  मान्यता जमानी चाहिएबालक और माताप्रेमी और प्रेमीका और सखा जिस प्रकार पुलकित हृदय परस्पर मिलते,आलिंगन करते हैवैसी ही इष्टदेव की समीपता की होनी चाहिए।
चकोर जैसे चन्द्रमा को प्रेमपूर्वक निहारता है और पतंगा जैसे दीपक पर अपना सर्वस्व समर्पण करते हुए तदनुरूप हो जाता हैऐसे ही भावोद्रेक इष्टदेव की समीपता के उस ध्यान-साधना में जुड़े रहना चाहिए। इससे भाव-विभोरता की स्थिति प्राप्त होती है और उपासना ऐसी सरस बन जाती है कि उसे छोड़ने को जी नहीं चाहता।
भारतीय ऋषियों-मुनियों ने ध्यान साधना को ईश्वरीय चेतना के साथ संपर्क स्थापना के लिए ही प्रयुक्त करने का निर्देश दिया है। इससे साधक ईश्वरीय सत्ता की तमाम विषेशताओं को आत्मसात कर लेता है। कहते है के भृंगी नाम का उड़ने वाला किड़ा झींगुर पकड़ लेता है और उसके सामने निरंतर गुंजन करता रहता है। उस गुंजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मन:स्थिति भृंग जैसी हो जाती है। वह अपने को भृंग समझने लगता है। अस्तुधीरे-धीरे उसका “शरीर भी भृंग रूप में बदल जाता है। कीटविज्ञानी इस किंवदंती पर संदेह कर सकते हैं पर यह तथ्य सुनिष्चित है कि एकाग्रतापूर्वक जिस भी व्यक्तिवस्तु या परिस्थिति का देर ते चिंतन करते रहा जाए, मनुष्य की सत्ता उसी साँचे में ढलने लगती है। परमात्मा की विषेशताओं व “व्यक्तियों पर जितना ध्यान एकाग्र किया जाता हैउतनी ही वे विषेशताएँ साधक में अवतरित होती जाती हैं।
चिता एक बार जलाती है लेकिन चिन्ता बार-बार जलाती है। बुढ़ापा भुनभुनाते हुए नहीं वरण गुनगुनाते हुए व्यतीत करें।
अन्तरात्मा के जिज्ञासु को चाहिए कि वह मन के कोलाहल की ओर से कान बन्द कर अन्तात्मा का निर्देश सुनने और पालन करने लगेनिश्चय ही उस दिन से यथार्थ सुख-शांति का अधिकारी बन जाएगा। जिज्ञासा की प्रबलता से मनुष्य के कान उस तन्मयता को सरलता से सिद्ध कर सकता है। आत्मा मनुष्य का सच्चा मित्र है। वह सदैव ही मनुष्य को सत् पथ पर चलने और कुमार्ग से सावधान रहने  की चेतावनी देता रहता हैकिन्तु खेद है कि मनुष्य मन के कोलाहल में खोकर उसकी आवाज नहीं सुन पाता। किन्तु यादि मनुष्य वास्तव में उसकी आवाज सुनना चाहे तो ध्यान देने से उसी प्रकार सुन सकता हैजिस प्रकार बहुत सी आवाजों के बीच भी उत्सुक शिशु अपनी माँ की आवाज सुनकर पहचान लेता है।
अपने दोष स्वीकार कर लेने का अर्थ हैसच्चाई  के प्रति प्रेम।
जब तुम्हारा मन टुटने लगेतब भी यह आशा रखो कि प्रकाश की कोई किरण कहीं न कहीं से उदय होगी और तुम डूबने न पाओगे पार लगोगे।
क्रोध से मनुष्य के पुण्य कार्यसद्भावनाएँसद्गुण उसी तरह नष्ट हो जाते हैजैसे बाढ़ आने पर उद्यान।
संसार मनुष्य के विचारों की ही छाया है। किसी के लिए संसार स्वर्ग हैतो किसी के लिए नरक।
जिसे केवल अपने लाभ की ही बात सूझती हैदुसरों के दु:ख दर्द से कोई वास्ता नहींवह सबसे बड़ा नास्तिक है।
जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को अनसुनी करते हैवे पापी हैं क्योंकि वे आत्मारूपी परमात्मा की अवहेलना करते है।

Monday, 11 August 2014

ॐ’ ध्वनि के उतार चढ़ाव से पैदा होने वाली कम्पन

::ॐ:: एक सार्वभौम शक्ति 
ब्रह्माण्ड में ग्रह-नक्षत्रो-सौर मंडलों-आकाशगंगाओं की गतिशीलता के बीच एक दिव्य ध्वनि और तरंग की गूँज है जिसे ॐ कहते हैं ,किन्तु सभी इसे सदैव नहीं सुन सकते ,इस ध्वनि को हमारे तपस्वी और ऋषि - महर्षियों ने अपनी ध्यानावस्था में सुना। जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है | उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ब्रह्मनाद अथवा ॐ कहा । यानी अंतरिक्ष में होने वाला मधुर गीत ‘ओ३म्‌’ ही अनादिकाल से अनन्त काल तक ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। ओ३म्‌ की ध्वनि या नाद ब्रह्माण्ड में प्राकृतिक ऊर्जा के रूप में फैला हुआ है| यह ईश्वरीय ऊर्जा है ,सर्वत्र फैला ,कण कण में व्याप्त सार्वभौम ऊर्जा ,जो तरंगो के रूप में सर्वत्र विकरित है |इसीलिए इसे प्रणव भी कहा जाता है ,यह सब जगह सम्पूर्णता देने में सक्षम है |अकेले हो या किसी शक्ति के साथ सर्वत्र ऊर्जा स्वरुप है |
इस ध्वनि के उच्चारण से मानव शरीर को अनेक लाभ होते हैं और वह असीम सुख, शांति व आनन्द की अनुभूति करता है क्योकि उसका संपर्क ब्रह्मांडीय उर्जा तरंगों से होता है | वैज्ञानिक प्रयोग इस सार्वभौम ध्वनि की शक्ति को प्रमाणित करते हैं ,रोगियों के रोग बहुत कम होते पाया गया यद्यपि इनके प्रतिशत भिन्न रहे पर लाभ लगभग सबको होता है | 
जब कोई मनुष्य ॐ का जाप करता है तो यह ध्वनि जुबां से न निकलकर ह्रदय से निकलती है |यही नहीं ॐ का उच्चारण पेट, सीने और मस्तिष्क में कम्पन पैदा करता है विभिन्न आवृतियो (तरंगों) और ‘ॐ’ ध्वनि के उतार चढ़ाव से पैदा होने वाली कम्पन क्रिया मृत कोशिकाओं तक को पुनर्जीवित कर देता है तथा नई कोशिकाओं का निर्माण करता है| कोशिका क्षय में कमी आती है ,चिरायुता में वृद्धि होती है |जीवनी शक्ति ,आत्मबल, आत्मविश्वास की वृद्धि होती है| रक्त विकार होने ही नहीं पाता। मस्तिष्क से लेकर नाक, गला, हृदय, पेट और पैर तक तीव्र तरंगों का संचार होता है। रक्त विकार दूर होता है और स्फुर्ती बनी रहती है।इसका लाभ उठाकर जीवन भर स्वस्थ रहा जा सकता है। 
. थोड़ी प्रार्थना और ॐ शब्द के उच्चारण से जानलेवा बीमारी एड्‌स के लक्षणों से राहत मिलती है तथा बांझपन के उपचार में दवा का काम करता है। इसके जप से सभी रोगों में लाभ होता है। अतः ॐ की चमत्कारिक ध्वनि का उच्चारण यदि मनुष्य अटूट श्रद्धा व पूर्ण विश्वास के साथ करे तो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर जीवन को सार्थक कर सकता है।इसके जप से दुस्कर्मो और पापों के परिणाम से भी मुक्ति संभव है बशर्ते प्रायश्चित की भावना के साथ शरणागति अपने ईष्ट में आये |नशे से मुक्ति भी ‘ॐ’ के जप से प्राप्त की जा सकती है| 
ऊँ की ध्वनि मानव शरीर के लिये प्रतिकुल सभी ध्वनियों को वातावरण से निष्प्रभावी बना देती है।विभिन्न ग्रहों से आने वाली अत्यंत घातक अल्ट्रावायलेट किरणों का प्रभाव ओम की ध्वनि की गुंज से समाप्त हो जाता है।मतलब बिना किसी विशेष उपाय के भी सिर्फ ओम् के जप से भी अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
ऊँ का उच्चारण करने वाले के शरीर का विद्युत प्रवाह आदर्श स्तर पर पहुंच जाता है। नींद गहरी आने लगती है। साथ ही अनिद्रा की बीमारी से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है।मन शांत होने के साथ ही दिमाग तनाव मुक्त हो जाता है.अनेक बार ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।.अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं। यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है। यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है। इससे पाचन शक्ति तेज़ होती है। .इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है। .थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।.नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चित नींद आएगी। .कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है। ॐ का उच्चारण करने से से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है। ॐ का उच्चारण करने से विभिन्न अन्तःश्रावी ग्रंथियों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और उनसे स्रावित होने वाले हारमोंस ,पाचक अथवा नियामक पदार्थों का स्राव नियमित होता है |यह सभी लाभ ॐ की ऊर्जा का ०.००१ % भी नहीं है ,यह वह शक्ति है जो भुक्ति-मुक्ति सब कुछ प्रदान कर सकती है ,इसकी शक्ति-क्षमता की कोई सीमा नहीं ,मनुष्य की कल्पनाओं से भी परे है |
पूर्ण एकाग्रता के साथ ॐ का जप त्रिकाल दर्शिता प्रदान करता है |यह आज्ञाचक्र की शक्ति को इतना बढ़ा देता है की व्यक्ति भूत-भविष्य-वर्त्तमान में झाँक सकता है |यह निर्विकार अथवा साकार ईष्ट का साक्षात्कार कराता है |बिना किसी अन्य मंत्र के केवल ॐ का जप और किसी भी ईष्ट का भाव उस ईष्ट को साधक की और आकर्षित कर साक्षात्कार करा सकता है |यह वह सार्वभौम ऊर्जा है जो सबकुछ करने में सक्षम है 
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          यौगिक प्राणविद्या
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यौगिक प्राणविद्या क्या है? इस जिज्ञासा के समाधान के लिए जरूरी है-प्राचीन भारतीय महार्षियों द्वारा सौंपी गई आध्यात्मिक विरासत का गहन अध्ययन को आधार बनाकर आधुनिक वैज्ञानिक ढ़ाँचे के अनुरूप उस पर व्यापक अनुसंधान। प्राण की महिमा व महत्व से भारत के सभी प्राचीन शास्त्र भरें पड़ें हैं। वेद-उपनिषदों के साथ योग आयुर्वेद ग्रंथों ने इसके विविध रूपों को बताया-समझाया है। आधुनिक विज्ञान में शरीर शास्त्र से संबंधित ग्रंथ इसकी गवैषणाओं से अछुते नहीं है। यहाँ प्राण-उर्जा, प्राणविद्युत, जीवनीशक्ति आदि अनेक नामों से प्राण की ही चर्चा की ग है। अध्यात्मवेत्ता  हों या विज्ञान विशेषज्ञ, दोनों ही इस बात पर एकमत है कि प्राण ही जीवन व चेतना का परिचय एवं पर्याय है। इसके अभाव में सब कुछ मृत व जड़ हो जाता है। वनस्पतियों, पादपों एवं पुष्पों में प्राण के ही भिन्न-भिन्न रूप रंग अठखेलियाँ करते है। छोटे-छोटे जंतुओं से लेकर बड़े विशालकाय जीवों में यही प्राण चेतना के रूप में प्रवाहित होता है। इस सबके बावजूद प्राण की बहुआयामी क्रीड़ा-विविध आयामी लीला, केवल मनुष्य में देखने को मिलती है। मनुष्य में प्राण्तत्व के सूक्ष्म अंतर-प्रत्यंतर अति विचित्र एवं रहस्यमय है। यहाँ प्राण एक ओर शरीर को नियंत्रित रखकर उसे जीवन का आधार देता है, तो दूसरी ओर मन के द्वारा स्वंय नियंत्रित होकर अपने ही विकास-परिमार्जन व परिष्कार के द्वार खोलता है प्राण की सर्वव्यापी अभिव्यक्ति के बावजूद मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जहाँ प्राणविद्या अपना यौगिक आधार विकसित करती है। अन्यत्र सब जगह प्राण के न्यून अथवा अधिक होने के बावजूद उसके विकास-परिष्कार अथवा परिमार्जन की कोई संभावना नहीं है। मनुष्य के अलावा अन्य सभी, चाहे वे प्राणी हों या फिर वनस्पति, सभी में प्राण की जो भी व्यवस्था प्रकृति ने दी है, वही रह सकती है। उसमें किसी भी तरह का फेर-बदल संभव नहीं है। प्रकृति ही इन्हें प्राण का वितरण करती है और प्रकृति के ही घात-संघात व जीवन की अन्य प्रक्रियाएँ इन्हें दिए गए प्राण का सदुपयोग-दुरूपयोग कराती है। प्राणी की स्वयं की चाहत का उसकी प्राण-प्रक्रियाओं पर कोई वश नहीं है। इन सबसे अलग मनुष्य की कथा कुछ और ही है। मानव व्यक्तित्व के विविध पहलुओं एवं विभिन्न आयामों की ही तरह यहाँ प्राण-प्रवाह की भी उच्चस्वरीय व्यवस्था है। मनुष्य के भीतर सप्तचक्रों, पंच प्राणों, पंच उपप्राणों के साथ ग्रंथियों व उपत्यिकाओं का एक वृहद एवं विशद संजाल है, जो प्राण के सूक्ष्म अंतर-प्रत्यंतर को नियमित, नियंत्रित करते हुए सुचारू रूप से प्रवाहित करता रहता है। इस व्यवस्था में तनिक सी गड़बड़ी व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक रूप से रोगी बना देती है। इसके विपरित यह प्राण-प्रक्रिया यदि सचारू व अबाधित रूप से संचालित रहे तो मनुष्य हर परिस्थिति में स्वस्थ व प्रसन्न रह सकता है ओर यदि इस प्राण-प्रवाह को विकसित, परिष्कृत व परिशोधित कर ​िया जाए ते मनुष्य विशिष्ट विभूतियों , शक्तियों व सिद्धियों का स्वामी बन सकता है। प्राण की प्रकियाएँ एवं योग की विधियाँ मिलकर जिस महान ज्ञान-विज्ञान की प्रणाली को जन्म देते है, उसी का यौगिक प्राणविद्या कहते है। इसके प्रभाव असाधसारण एवं आश्चर्यजनक है। इससे मनुष्य के अस्तित्व व व्यक्तित्व में चमत्कारी तथा अचरज भरे परिवर्तन किए जा सकते है। देवर्षि नारद के द्वारा रत्नाकर को महर्षि वाल्मीकि में बदल देना तथा महात्मा बुद्ध का दुस्य अंगुलीमाल को शालीन-सदाचारी भिक्षु बना देना ऐसे ही कुछ उराहरण है, जो यौगिक प्राणविद्या के साथ प्राण प्रत्यावर्तन के महत्व को दरसाते है। ये सभी प्रक्रियाएँ, विधियाँ उसी यौगिक प्राणविद्या के अंतर्गत आती है,  जिसका प्रति पादन हमारे महान महारिश्यों ने किया है। सामान्य स्थिति में प्राण-प्रवाह की सामान्य विधि व्यवस्था सामान्यप्रभाव व परिणाम ही दे पाती है। इसके द्वारा मनुष्य साधारण व स्वस्थ जीवन जीता रहता है। हमारे अंदर प्रकृति ने पाँच तरह क प्राणों की व्यवस्था दी है। प्रथम प्राण का कार्य श्वास-प्रश्वास क्रिया का संपादन करना है। इसका स्थान छाती या हृदय है। इस प्राण का सहयोग नाग नाम का उपप्राण करता है। इसके द्वारा वायु संचार, डकार, हिचकी आदि कर्य संपन्न होते है। इस तत्व की ध्यानावस्था में अनुभूति पीले रंग की होती है। और षटचक्र  बेधन की प्रक्रिया में यह अनाहत चक्र को प्रभावित करता है। इसके बाद द्वितीय प्राण अपान है। इसका कार्य शरीर के विभिन्न  से निकलने वाले मलों का निष्कासन करना है तथा इसका स्थान गुदा या जननेंद्रिय है। इसका सहयोग क्रूर्म नाम का उपप्राण करता है। यह नारंगी रंग की आभा में अनुभव किया जा सकता है। साथ ही यह मूलाधार को प्रभावित करता है। तीसरा प्राण समान है। इसक्र द्वारा अन्न से लेकर रस-रक्त और सप्त धातुओं का परिपाक होता है। इसका स्थान नाभि है और इसका सहयोगी उपप्राण कृकल है। कृकल के द्वारा भूख-प्यास का नियंत्रण-नियमन होता है। इसकी अनुभूति हरे रंग की आभा के रूप में होती है। इसका संबंध मणिपुर चक्र से है। प्राण का चौथा आयाम उदान है। इसका कार्य है आकर्षण ग्रहण करना। अन्न, जल, श्वास आदि जो कुछ भी बाहर से ग्रहण किया जाता है, वह ग्रहण क्रिया इसी के द्वारा संपन्न होती है। निद्रावस्था तथा मृत्यु के उपरांत का विश्राम  ग्रहण करना भी इसी के द्वारा संभव हो पाता है। इसका स्थान कंठ है और इसकी अनुभूति बैंगनी रंग के रूप में होती है इसका संबंध विशुद्धि चक्र से है। व्यान पाँचवा प्राण है। इसका कार्य रक्त आदि का संचार तथा स्थानांतरण है। संपूर्ण शरीर ही इसका स्थान है। हालाँकि कुछ विशेषज्ञ इसका स्थान नाभि कहते है। गुलाबी रंग के रूप में इसकी अनुभूति है तथा इसका संबंध  स्वाधिष्ठान चक्र से बताया गया है। प्राणव चक्रों के इस संबंध के अलावा प्राण का संबंध ग्रंथियों एवं उपत्यिकाओं से भी है। इन चक्रों ग्रंथों तथा उपत्यिकाओं के द्वारा व्यक्तित्व प्राण अंतरिक्ष के ब्रह्मांडीय प्राण से जुड़ते है। यह जुड़ाव योग की विधियों द्वारा ही संभव को पाता है। यही योग विधियाँ प्राण को व्यापक, विकसित बनाने के साथ उसे परिष्कृत-परिमार्जित करती है। योग प्राणविद्या का क्षेत्र व्यापक है एवं विधियों का विस्तार भी काफी अधिक है, लेकिन कुछ विधियाँ ऐसी है, जिन्हें सामान्यजन भी जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे अपना लेते है। इन्ही में से एक उपवास है। इसे सामान्य जन द्वारा अपनाई  जाने वाली विधि कह सकते है, लेकिन यह यौगिक प्राणविद्या का आधार है, जो सही ढ़ंग से अपनाए जाने पर प्राण को शुद्ध करती है। इसके पश्चात प्राणायाम की विधियों का क्रम है, जो प्राण केंद्रों को व्यवस्थित एवं नियंत्रित करने के साथ प्राण-प्रवाह को सुचारू करती हैं इनमें से अनेकों विधियाँ ऐसी है, जिनका प्रभाव शारीरिक क्रियाओं के साथ मानसिक क्रियाओं पर भी पड़ता है। इन क्रियाओं से चित शुद्धि में भी साहयता मिलती है। इन सभी के अलावा धारणा की विधियाँ एवं ध्यान की कतिपय क्रियाएँ भी योग प्राण-विद्या के  महत्वपूर्ण तथा उच्चस्तरीय उद्देश्य को पूरा करती है। यौगिक प्राणविद्या की इन सभी विधियों के द्वारा प्राण ओजस् व वर्चस् में स्वाभाविक अभिवृद्धि करने की योग्यता सिद्ध कर लेता है।

नाड़ी तंत्र एवं सात चक्र

सूर्य व चद्र नाड़ी- 
इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई  क्षमता अवश्य होनी चाहिए। इच्छा तृप्ति के लिए यह शक्ति शरीर के दायीं ओर पिंगला नाड़ी पर कार्यवृति धारण करती है। यह कार्य स्रोत शारीरिक तथा बौद्धिक गतिविधियों का स्रोत है। अपनी गतिविधि के उप-फल के रूप में यह मस्तिष्क के दायीं ओर अंह को विकसित करता है। बायें और दायें दोनों सूक्ष्म-मार्ग स्थूल रूप से मेरूरज्जू के बाहर नाड़ी-प्रणाली को व्यक्त करते है।
सूर्य स्रोत में पुरूषत्व गुण जैसे विश्लेषणस्पार्धासहनशीलता आदि निहित है। चन्द्र स्रोत में सोम्यताप्रतिसम्वेदनासहयोग तथा अतर्बोध आदि मादा गुण सम्मिलित है। मस्तिष्क के दो गोलार्ध विरोधी परन्तु सम्पूरक कार्य करते है। शरीर के दायें भाग पर नजर रखने वाले बायें गोलर्ध की विशेषता विचार करनायोजना बनाना तथा विश्लेषण करने जैसे रैखिक प्रक्रम है। शरीर के बायें भाग का ध्यान रखने वाला दायां गोलार्ध भावनास्मृति और इच्छाऔं आदि में कार्यरत है।
सात चक्र
1- मूलाधार चक्र-
रीढ़ की हड्ड़ी के निचले छोर से थोड़ा सा बाहर की ओर मूलाधार नामक पहला चक्र स्थित है। मूलाधार चक्र का स्थान रीढ़ की हड्डी के एकदम निचले हिस्से में होता है। यानि यह जननेन्द्रिय और गुदा के मध्य में होता है। इस चक्र के बिलकुल उपर कुंडलिनी शक्ति होती है। मूलाधार चक्र को जागृत किए बिना कुंडलिनी शक्ति को जगृत नहीं किया जा सकता। मूलाधार चक्र को अधार चक्रप्रथम चक्रबेस चक्र या रूट चक्र भी कहते हैं। यह चक्र निष्कपटता तथा विवेक देवता द्वारा शासित है। यह देवता रीढ़ की हड्ड़ी में स्थित पवित्र अस्थि में विश्राम करती हुर्इ कुंडलिनी की अपवित्र इरादों के अनुचित प्रवेश से रक्षा करता है। मुलाधार चक्र से उपर की ओर पवित्र त्रिकोणकार अस्थि में स्थित मूलाधार’ कहलाता है।
1-मूलाधार चक्र यदि दुर्बल हो तो कुंडलिनी अपने स्थान से नहीं उठती और यदि यह चक्र अपवित्रता ग्रसित हो तो कुंडलिनी उठने के बाद भी खिंच कर वापस अपने स्थान पर आ जाती है। कुंडलिनी का उत्थान मूलाधार से सातवें चक्र तक होता है जहां यह सामूहिक चेतना को व्यक्त करने वाली आत्मा से एकाकार कर लेती है। शरीर के अन्दर मूलाधार चक्र को शारीरिक क्रियाओंअवरोधन और मल-त्याग को संभालना है। अमर्यादित यौन संबंधअवांछित नैतिकतानिष्कासन अंगों पर दबाव ( जैसे कब्ज तथा पेचिश ) इस चक्र में तनाव के कारण बनते है। प्रजनन को भी कई  प्रकार से यह चक्र नियंत्रित करता है। नशीले पदार्थ तथा तांत्रिक क्रियाएं इस चक्र को अत्यंत हानि पहुंचाते है। जागृत मूलाधारचक्र साहसनिष्कपटता तथा निर्देशन बुधि  प्रदान करता है। इस प्रकार का व्यक्ति अत्यंत शुभकर तथा पास-पड़ोस के लिए सौभागय और र्इश्वरीय आंनद को लाने वाला होता है। इस चक्र के देवता श्री गणेश है। यदि आपने अपने मूलाधार चक्र को जागृत कर लिया तो सच मानिएं आपने श्रीगणेश को प्राप्त कर लिया। यानि आपकी आध्यात्मिक उन्नति की शुरुआत हो जाएगी।

मूलाधार चक्र की विकृति से बीमारियां
जो व्यक्ति अधिक कामुकछलकपटप्रपंच और अहंकार को पालने वाला होता हैउसके मूलाधार चक्र में विकृतियां आने लगती है। इससे रीढ़ की हड्डी की बीमारियांजोड़ों का दर्दरक्त विकार,शरीर विकास की समस्याकैंसरकब्जगैससिर दर्दजोडों की समस्यागुदा संबंधी बीमारियांयौन रोगसंतान प्राप्ति में समस्याएंमानसिक कमजोरी आ सकती है। इन सभी समस्याओं से बचने के लिए जरूरी है कि हम शुद्ध आचरण करेंशुद्ध विचार रखेंकामवासना की शुद्धता का पालन करेंअहंकार त्यागें और अपने आप में मासूमियत विकसित करें। यदि  इन आप इन बातों का पालन कर लेते है तो निश्चित ही अपने आप में श्रीगणेश को जागृत कर लेंगे।
2-स्वाधिष्ठान चक्र- 
भौतिक शरीर में दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान चक्र के नाम से जाना जाता है। यह गुर्देजिगर के नीचे का हिस्साअग्नाश्य (पेनक्रियांस) प्लीहा (स्पलीन) और आंत्र (इन्टैस्टाइन) को चलाने का कार्य करता है। मस्तिष्क के भूरे तथा सफेद कणों की कमी को पूरा करने के लिए यह चक्र पेट की चर्बी के कणों को तोड़ कर मस्तिष्क को उर्जा प्रदान करता है। तथा इस प्रकार मस्तिष्क की विचार शक्ति को नव जीवन प्रदान करता है। फिर भी अत्याधिक सोच विचारहीन भावना सूर्य स्रोत को नि:शक्त कर देती है। चिंता इसी स्रोत का अपव्यय करके इसे दुर्बल बनाती है। यह चक्र र्सोदर्य बोध तथा कलात्मक दृष्टि कोण उत्पन्न करता है। दैवी सरस्वती इसकी शासक है।
3-नाभि चक्र-
भौतिक रूप में नाभि-चक्र नाम का तीसरा चक्र पेट और जिगर के उपरी भाग की देखभाल करता है। अव्यवस्थित जीवन शैलीउतेजनापूर्ण  चिन्तनधन लोलुपता इस चक्र के विकास में बाधा उत्पन्न करता है।
4-हृदय चक्र-
करूणा सभी पैगम्बरों और अवतरणों का सार-तत्व है। एक स्वस्थ हृदय चक्र ही इसका स्रोत है। केवल हृदय चक्र द्वारा ही निर्मल प्रेम के सुखद उल्लास का अनुभव हो पाता है। पति-पत्नी में से किसी का एक दूसरे पर प्रभुत्व जमाना या स्वामित्व भाव-ग्रस्त होना वास्तविक प्रेम का गला घोंट देता है। तथा संबंधों के विकास में बाधा डालता है। तिरस्कृति की अवस्था में नारी हतोत्साहित हो जाती है और उसमें दबा-दबा क्रोध विकसित हो जाता है। यह क्रोध प्राय: बच्चों पर या चरित्रहीनता के रूप में प्रकट होता है। तथा पुरानी बीमारियों की स्थिती में नारियों में स्तन संबंधी रोग उत्पन्न हो जाते है। असंतुलित जीवनतीव्र अनुशासनकठोर व्यवहार एवं हठ योग इस चक्र को दूषित करते है। दैवी नियमों की अवहेलनार्इश्वर का अपमानआत्मतत्व की और उदासीनतादास्ताचापलूसी तथा झूठी नम्रता इस चक्र के लिए हानिकारक है।
मध्य हृदय-मध्य हृदय की अधिष्ठात्री श्री जगदम्बा जी है। यह शक्तिप्रदायनी है। असुरक्षा भावनाभय,आशंका आदि से यह चक्र व्यथित हो जाता है। जगदम्बा रूप में श्री माता जी से हृदय-पूर्वक प्रार्थना करने से यह चक्र ठीक हो जाता है।
दायां हृदय- दायां हृदय के अधिष्ठाता श्री सीता राम जी है। मर्यादा इनका गुण है। मर्यादा विहिनता इस चक्र को हानि पहुंचाती है। यह पिता का चक्र हैं। जो पिता अपने बच्चों को अधार्मिकता में उतारता है या जिसकें संबंध अपने बच्चों से ठीक नहीं उसका यह चक्र विकृत हो जाता है। तथा उसे श्वास रोग हो सकता है। श्री राम तथा सीता के गुणों को अपने अंदर स्थापित करने तथा प्रार्थना करने से यह चक्र ठीक हो जाता है।
5-विशुद्धि चक्र-
विशुद्धि चक्र शरीर का प्रथम छन्ना (फिल्टर) है। अत: यह अति संवेदनशील चक्र है। तथा बाहरी जीवाणुओं से रक्षा करता है। दूषित वायु में श्वास लेनातथा ध्रुमपान से यह चक्र रूद्ध हो जाता है। झूठे अंधाधुध मंत्रोच्चारण से भी इस चक्र की संवेदनशीलता भंग हो जाती है। झूठे गुरूओं द्वारा दिये गए मंत्र इसकी संवेदनशीलता के लिए अति हानिकारक है।
इस चक्र के देवता राधा कृष्ण व्यवहार में कुशलता का उपदेश देते है। जिससे कि मनुष्य चतुराई  से विपत्ति का सामना कर सकें। जब यह चक्र खुलता है। तो मानवीय लघु-ब्रह्मंड़ अंतरिक्षीय ब्रहमांड  के प्रति जागरूक हो उठता है।
(अर्थात मानाव विराट के प्रति जागरूक हो जाता है।)
6-आज्ञा चक्र-
विकास के छठे चरण पर कुंड़लिनी इस चक्र का छेदन करके पूर्ण गौरव के साथ सातवें चक्र पर आरोहित हो पाती है। अंह से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सबको क्षमा करना पड़ता है।
दूसरों को क्षमा करने से हमारा अंह कम होता है।  परमात्मा के विषय में अनुचित विचार भी इस चक्र में बाधा उत्पन्न करते है। धार्मिक लोग मतांध हो जाते है। वे शास्त्रों के शब्द-जाल में उलझ कर पैगम्बरों द्वारा बताया सार-तत्व खो देते है। मनुष्य को कट्टर नहीं बनना है।
येशु मानव मात्र को सब दोषों से मुक्त करने के लिए आये। उन्होने सब को क्षमा कर दिया तथा सब दोषों को स्वय  पर ले लिया। स्वय को क्रूसारोपित करवा कर मानव को स्वनिहित अंह (अभिमान) का स्पष्ट अनुभव करने में सहायता की। मानव  के महान पश्चाताप का उद्य हुआ जिसने उसे अपने अंह की दुष्टता को देखने के योग्य बनाया। परिणामत: मानव में नम्रता जाग्रत हुर्इ।
(From a book of Mata Nirmla Devi Sahaj Yoga with thanks)
अवधू सहस दल अब देख। 
श्वेत रंग जहाँ पैंखरी छवि, अग्र डोर विशेख।।
अमृत वरषा होत अति झरि, तेज पुंज प्रकाश।
नाद अनहद बजत अद्भुत, महा ब्रह्मविलास।।
                             -सन्त चरण दास

उस सहस्त्रार चक्र में हज़ार पंखुडि़यों वाला कमल है, जो जल के बिना ही विकसित होता है। जानते हो, उससे निरन्तर अमृत की वर्षा होती है। वह अमृत जिसका पान कर जीवात्मा के दुःख, पाप, व्याधि आदि समाप्त हो जाते हैं। उस नगर में अद्भुत संगीत भी बज रहा है। ऐसी मधुर ध्वनि, जिसकी कोई हद नहीं- अनहद बाजे बाजन लागे, चोर नगरिया तजि-तजि भागे। उन बाजों-ध्वनियों को सुनकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी चोर, जो हमारी पुण्य पूँजी को लूट रहे थे, डर कर भाग जाते है। कितना विलक्षण है यह नगर, जहाँ कोई भय, दुःख क्लेश नहीं!! यदि है, तो मात्र आनंद ही आनंद, मात्र दर्शन ही दर्शन!