कथा एवं मान्यताएँ
मान्यतानुसार कैला देवी मां
द्वापर युग में कंस की कारागार
में उत्पन्न हुई कन्या है,
जो राक्षसों से पीडि़त समाज
की रक्षा के लिए एक
तपस्वी द्वारा यहां बुलाई गई
थीं। बस तभी से
मां कैला यहां आने वाले हर भक्त
की मुराद पूरी करती हैं। चैत्र
मास में सैंकडों किलोमीटर
की पद यात्रा और कड़क दंडवत
करते श्रद्वालुओं
की आस्था देखते ही बनती है।
मान्यता है कि मां के दरबार में
जो भी मनौती मांगी जाती है
उसे मां कैला निश्चित
ही पूरा करती हैं। जब
भक्तों की मनौती पूरी हो जाती है
तो यह अपने परिवार सहित
मां की जात करने बड़ी संख्या में
कैलादेवी पहुंचते है, जिससे
यहां लगने
वाला लक्खी मेला मिनी कुंभ
जैसा नजर आता है। इस मेले में
लाखों की तादात में
श्रद्वालुओं आते हैं।
सूनी गोद भरने की आस
हो या सुहाग की चिरायु होने
की कामनाए कैला मां भक्त
की हर पुकार जल्द
ही पूरी करती है,
लिहाज़ा मंदिर में आस पूरी होने
पर श्रद्वालु अपने नवजात
बच्चों को इस कैला मां के
दरबार में लाते हैं,
जिनका यहां मुंडन संस्कार
किया जाता है। उधर पूरे
आस्थाधाम में
सजी हरी चूड़ियाँ अमर सुहाग
का प्रतीक है, जिन्हें यहां आने
वाली हर श्रद्वालु
महिला पहनना नहीं भूलती।
मंदिर परिसर में लहलहाती धर्म
पताकाएँ
यहां की ख्याति का प्रतीक है।
इन पताकाओं को पदयात्रा कर
रहे श्रद्वालु अपने कंधों पर रखकर
कई किलोमीटर की दुर्गम राह
तय कर यहां चढाते हैं।
कैलादेवी शक्तिपीठ आने वाले
श्रद्वालुओं में मां कैला के साथ
लांगुरिया भगत को पूजने
की भी परंपरा रही है।
लांगुरिया को मां कैला का अनन्य
भक्त बताया जाता है।
इसका मंदिर मां की मूर्ति के
ठीक सामने विराजमान है।
किवदंतियों के अनुसार स्वयं
बोहरा भगत के स्वप्न में आने पर
इस मंदिर
को यहां बनवाया गया था।
नए मकान की आस में
यहां श्रद्वालु
भक्तों द्वारा पर्वतमालाओं पर
पत्थरों के छोटे छोटे
प्रतीकात्मक मकान बनाए जाते
हैं तो सुदूर क्षेत्र से आए श्रद्वालु
यहां की पवित्र
नदी कालीसिल में स्नान
करना भी नहीं भूलते।
श्रद्वालु महिलाएँ इस
कालीसिल नदी में स्नान कर
खुले केशों से ही मंदिर में
पहुंचती है और मां कैलादेवी के
दर्शन करने के बाद
वहां कन्या लांगुरिया आदि को भोजन
प्रसादी खिलाकर पुण्य लाभ
अर्जित करती दिखाई देती है।
मान्यतानुसार कैला देवी मां
द्वापर युग में कंस की कारागार
में उत्पन्न हुई कन्या है,
जो राक्षसों से पीडि़त समाज
की रक्षा के लिए एक
तपस्वी द्वारा यहां बुलाई गई
थीं। बस तभी से
मां कैला यहां आने वाले हर भक्त
की मुराद पूरी करती हैं। चैत्र
मास में सैंकडों किलोमीटर
की पद यात्रा और कड़क दंडवत
करते श्रद्वालुओं
की आस्था देखते ही बनती है।
मान्यता है कि मां के दरबार में
जो भी मनौती मांगी जाती है
उसे मां कैला निश्चित
ही पूरा करती हैं। जब
भक्तों की मनौती पूरी हो जाती है
तो यह अपने परिवार सहित
मां की जात करने बड़ी संख्या में
कैलादेवी पहुंचते है, जिससे
यहां लगने
वाला लक्खी मेला मिनी कुंभ
जैसा नजर आता है। इस मेले में
लाखों की तादात में
श्रद्वालुओं आते हैं।
सूनी गोद भरने की आस
हो या सुहाग की चिरायु होने
की कामनाए कैला मां भक्त
की हर पुकार जल्द
ही पूरी करती है,
लिहाज़ा मंदिर में आस पूरी होने
पर श्रद्वालु अपने नवजात
बच्चों को इस कैला मां के
दरबार में लाते हैं,
जिनका यहां मुंडन संस्कार
किया जाता है। उधर पूरे
आस्थाधाम में
सजी हरी चूड़ियाँ अमर सुहाग
का प्रतीक है, जिन्हें यहां आने
वाली हर श्रद्वालु
महिला पहनना नहीं भूलती।
मंदिर परिसर में लहलहाती धर्म
पताकाएँ
यहां की ख्याति का प्रतीक है।
इन पताकाओं को पदयात्रा कर
रहे श्रद्वालु अपने कंधों पर रखकर
कई किलोमीटर की दुर्गम राह
तय कर यहां चढाते हैं।
कैलादेवी शक्तिपीठ आने वाले
श्रद्वालुओं में मां कैला के साथ
लांगुरिया भगत को पूजने
की भी परंपरा रही है।
लांगुरिया को मां कैला का अनन्य
भक्त बताया जाता है।
इसका मंदिर मां की मूर्ति के
ठीक सामने विराजमान है।
किवदंतियों के अनुसार स्वयं
बोहरा भगत के स्वप्न में आने पर
इस मंदिर
को यहां बनवाया गया था।
नए मकान की आस में
यहां श्रद्वालु
भक्तों द्वारा पर्वतमालाओं पर
पत्थरों के छोटे छोटे
प्रतीकात्मक मकान बनाए जाते
हैं तो सुदूर क्षेत्र से आए श्रद्वालु
यहां की पवित्र
नदी कालीसिल में स्नान
करना भी नहीं भूलते।
श्रद्वालु महिलाएँ इस
कालीसिल नदी में स्नान कर
खुले केशों से ही मंदिर में
पहुंचती है और मां कैलादेवी के
दर्शन करने के बाद
वहां कन्या लांगुरिया आदि को भोजन
प्रसादी खिलाकर पुण्य लाभ
अर्जित करती दिखाई देती है।
श्री कैलादेवी-जी की कहानी
करोली पर कैसे आई माँ
करोली के राज्य पर एक दानव बहुत अत्याचार
करता था। वहां के राजा दो भाई थे ।
दोनों भाई दानव से परेशान थे।
तो दोनों भाईयो ने
माँ कैला देवी की पूजा की ओर करोली में
आकर दानव से मुत्ति के लिए प्रार्थना की।
माँ कैला देवी बाड़ी (वर्तमान में
जिला धौलपुर की तहसील है। ) से करोली पर
आई, और दानव का संहार किया।
जिसका प्रमाण कलिशील नदी के किनारे
माँ और दानव के पैरो के चिह्न आज भी है।
कैलादेवी की महिमा
चैत्र माह में, नवरात्री के प्रथम
रात्रि को माँ स्वप्न में दर्शन देती है।
नवरात्री के
अष्टमी को माँ की प्रतिमा की गर्दन
सीधी हो जाती है। यहाँ पर जो भी सचे मन
के आता है। वहां मन बांछित फल पता है।
करोली पर कैसे आई माँ
करोली के राज्य पर एक दानव बहुत अत्याचार
करता था। वहां के राजा दो भाई थे ।
दोनों भाई दानव से परेशान थे।
तो दोनों भाईयो ने
माँ कैला देवी की पूजा की ओर करोली में
आकर दानव से मुत्ति के लिए प्रार्थना की।
माँ कैला देवी बाड़ी (वर्तमान में
जिला धौलपुर की तहसील है। ) से करोली पर
आई, और दानव का संहार किया।
जिसका प्रमाण कलिशील नदी के किनारे
माँ और दानव के पैरो के चिह्न आज भी है।
कैलादेवी की महिमा
चैत्र माह में, नवरात्री के प्रथम
रात्रि को माँ स्वप्न में दर्शन देती है।
नवरात्री के
अष्टमी को माँ की प्रतिमा की गर्दन
सीधी हो जाती है। यहाँ पर जो भी सचे मन
के आता है। वहां मन बांछित फल पता है।
कैला देवी मन्दिर, करौली
यादव वंश की कुलदेवी कैलादेवी का मन्दिर
करौली से 26 किमी दूर अवस्थित है।
यहाँ का मुख्य मन्दिर संगमरमर से बना हुआ है,
जिसमें कैलादेवी (महालक्ष्मी) एवं
चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं।
धार्मिक आस्था के प्रमुख केन्द्र के रूप में
प्रतिष्ठित इस मन्दिर में
लाखों दर्शनार्थी प्रतिवर्ष आते हैं। इसलिए
यहाँ लगने वाले मेले
को लक्खी मेला कहा जाता है। राजपूत,
मीणा आदि कैलादेवी के प्रमुख भक्त माने
जाते हैं। यहाँ एक भैरों मन्दिर और हनुमान
मन्दिर (लांगुरिया) भी स्थित है। यहाँ लगने
वाले मेले में लांगुरिया गीत गाये जाते
यादव वंश की कुलदेवी कैलादेवी का मन्दिर
करौली से 26 किमी दूर अवस्थित है।
यहाँ का मुख्य मन्दिर संगमरमर से बना हुआ है,
जिसमें कैलादेवी (महालक्ष्मी) एवं
चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ स्थापित हैं।
धार्मिक आस्था के प्रमुख केन्द्र के रूप में
प्रतिष्ठित इस मन्दिर में
लाखों दर्शनार्थी प्रतिवर्ष आते हैं। इसलिए
यहाँ लगने वाले मेले
को लक्खी मेला कहा जाता है। राजपूत,
मीणा आदि कैलादेवी के प्रमुख भक्त माने
जाते हैं। यहाँ एक भैरों मन्दिर और हनुमान
मन्दिर (लांगुरिया) भी स्थित है। यहाँ लगने
वाले मेले में लांगुरिया गीत गाये जाते
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