Tuesday, 12 August 2014

उपासना के दो चरण - जप और ध्यान


जप के समय ध्यान करते रहने की आवश्यकता इसलिए रहती है कि मन एक सीमित परिधि में ही भ्रमण करता रहेंउसें व्यर्थ की उछल-कुदभाग-दौड़ का अवसर न मिलें जिन्हें निराकार साधना-क्रम पंसद हैउनके लिए प्रात: काल उगते हुए अरूण वर्ण सूर्य का ध्यान करना उत्तम है।
मन को भागने से रोकने के लिए इष्टदेव की छवि को मनोयोगपूर्वक निरखते रहने से काम चल जाता हैपर इसमें रस प्रेमएकता और तादात्म्य उत्पन्न करना और भी शेष रह जाता है और यह प्रयोजन ध्यान में प्रेम-भावनाओं का समावेश करने से ही सम्भव होता है।
उपासना के आरम्भ में अपनी एक-दो वर्ष जितने निशिचन्तनिर्मलनिष्कामनिर्भय बालक जैसी मनोभूमि बनाने की भावना करनी चाहिए और संसार में नीचे नील जल और उपर नीन आकाश के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ एवं इष्टदेव के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति के न होने की  मान्यता जमानी चाहिएबालक और माताप्रेमी और प्रेमीका और सखा जिस प्रकार पुलकित हृदय परस्पर मिलते,आलिंगन करते हैवैसी ही इष्टदेव की समीपता की होनी चाहिए।
चकोर जैसे चन्द्रमा को प्रेमपूर्वक निहारता है और पतंगा जैसे दीपक पर अपना सर्वस्व समर्पण करते हुए तदनुरूप हो जाता हैऐसे ही भावोद्रेक इष्टदेव की समीपता के उस ध्यान-साधना में जुड़े रहना चाहिए। इससे भाव-विभोरता की स्थिति प्राप्त होती है और उपासना ऐसी सरस बन जाती है कि उसे छोड़ने को जी नहीं चाहता।
भारतीय ऋषियों-मुनियों ने ध्यान साधना को ईश्वरीय चेतना के साथ संपर्क स्थापना के लिए ही प्रयुक्त करने का निर्देश दिया है। इससे साधक ईश्वरीय सत्ता की तमाम विषेशताओं को आत्मसात कर लेता है। कहते है के भृंगी नाम का उड़ने वाला किड़ा झींगुर पकड़ लेता है और उसके सामने निरंतर गुंजन करता रहता है। उस गुंजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मन:स्थिति भृंग जैसी हो जाती है। वह अपने को भृंग समझने लगता है। अस्तुधीरे-धीरे उसका “शरीर भी भृंग रूप में बदल जाता है। कीटविज्ञानी इस किंवदंती पर संदेह कर सकते हैं पर यह तथ्य सुनिष्चित है कि एकाग्रतापूर्वक जिस भी व्यक्तिवस्तु या परिस्थिति का देर ते चिंतन करते रहा जाए, मनुष्य की सत्ता उसी साँचे में ढलने लगती है। परमात्मा की विषेशताओं व “व्यक्तियों पर जितना ध्यान एकाग्र किया जाता हैउतनी ही वे विषेशताएँ साधक में अवतरित होती जाती हैं।
चिता एक बार जलाती है लेकिन चिन्ता बार-बार जलाती है। बुढ़ापा भुनभुनाते हुए नहीं वरण गुनगुनाते हुए व्यतीत करें।
अन्तरात्मा के जिज्ञासु को चाहिए कि वह मन के कोलाहल की ओर से कान बन्द कर अन्तात्मा का निर्देश सुनने और पालन करने लगेनिश्चय ही उस दिन से यथार्थ सुख-शांति का अधिकारी बन जाएगा। जिज्ञासा की प्रबलता से मनुष्य के कान उस तन्मयता को सरलता से सिद्ध कर सकता है। आत्मा मनुष्य का सच्चा मित्र है। वह सदैव ही मनुष्य को सत् पथ पर चलने और कुमार्ग से सावधान रहने  की चेतावनी देता रहता हैकिन्तु खेद है कि मनुष्य मन के कोलाहल में खोकर उसकी आवाज नहीं सुन पाता। किन्तु यादि मनुष्य वास्तव में उसकी आवाज सुनना चाहे तो ध्यान देने से उसी प्रकार सुन सकता हैजिस प्रकार बहुत सी आवाजों के बीच भी उत्सुक शिशु अपनी माँ की आवाज सुनकर पहचान लेता है।
अपने दोष स्वीकार कर लेने का अर्थ हैसच्चाई  के प्रति प्रेम।
जब तुम्हारा मन टुटने लगेतब भी यह आशा रखो कि प्रकाश की कोई किरण कहीं न कहीं से उदय होगी और तुम डूबने न पाओगे पार लगोगे।
क्रोध से मनुष्य के पुण्य कार्यसद्भावनाएँसद्गुण उसी तरह नष्ट हो जाते हैजैसे बाढ़ आने पर उद्यान।
संसार मनुष्य के विचारों की ही छाया है। किसी के लिए संसार स्वर्ग हैतो किसी के लिए नरक।
जिसे केवल अपने लाभ की ही बात सूझती हैदुसरों के दु:ख दर्द से कोई वास्ता नहींवह सबसे बड़ा नास्तिक है।
जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को अनसुनी करते हैवे पापी हैं क्योंकि वे आत्मारूपी परमात्मा की अवहेलना करते है।

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