Friday, 1 August 2014

दिव्य मातंगी कवच
।। श्रीदेव्युवाच ।।
साधु-साधु महादेव ! कथयस्व सुरेश्वर ! मातंगी-कवचं दिव्यंसर्व-सिद्धि-करं नृणाम् ।।
श्री-देवी ने कहा – हे महादेव ! हे सुरेश्वर ! मनुष्यों को सर्व-सिद्धि-प्रद दिव्य मातंगी-कवच अति उत्तम हैउस कवच को मुझसे कहिए ।
।। श्री ईश्वर उवाच ।।
श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामिमातंगी-कवचं शुभं । गोपनीयं महा-देवि ! मौनी जापं समाचरेत् ।।
ईश्वर ने कहा – हे देवि ! उत्तम मातंगी-कवच कहता हूँसुनो । हे महा-देवि ! इस कवच को गुप्त रखनामौनी होकर जप करना ।

विनियोगः- ॐ अस्य श्रीमातंगी-कवचस्य श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषिः । विराट् छन्दः । श्रीमातंगी देवता । चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषये नमः शिरसि । विराट् छन्दसे नमः मुखे । श्रीमातंगी देवतायै नमः हृदि । चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
।। मूल कवच-स्तोत्र ।।
ॐ शिरो मातंगिनी पातुभुवनेशी तु चक्षुषी । तोडला कर्ण-युगलंत्रिपुरा वदनं मम ।।
पातु कण्ठे महा-मायाहृदि माहेश्वरी तथा । त्रि-पुष्पा पार्श्वयोः पातुगुदे कामेश्वरी मम ।।
ऊरु-द्वये तथा चण्डीजंघयोश्च हर-प्रिया । महा-माया माद-युग्मेसर्वांगेषु कुलेश्वरी ।।
अंग प्रत्यंगकं चैवसदा रक्षतु वैष्णवी । ब्रह्म-रन्घ्रे सदा रक्षेन्मातंगी नाम-संस्थिता ।।
रक्षेन्नित्यं ललाटे सामहा-पिशाचिनीति च । नेत्रयोः सुमुखी रक्षेत्देवी रक्षतु नासिकाम् ।।
महा-पिशाचिनी पायान्मुखे रक्षतु सर्वदा । लज्जा रक्षतु मां दन्तान्चोष्ठौ सम्मार्जनी-करा ।।
चिबुके कण्ठ-देशे चठ-कार-त्रितयं पुनः । स-विसर्ग महा-देवि ! हृदयं पातु सर्वदा ।।
नाभि रक्षतु मां लोलाकालिकाऽवत् लोचने । उदरे पातु चामुण्डालिंगे कात्यायनी तथा ।।
उग्र-तारा गुदे पातुपादौ रक्षतु चाम्बिका । भुजौ रक्षतु शर्वाणीहृदयं चण्ड-भूषणा ।।
जिह्वायां मातृका रक्षेत्पूर्वे रक्षतु पुष्टिका । विजया दक्षिणे पातुमेधा रक्षतु वारुणे ।।
नैर्ऋत्यां सु-दया रक्षेत्वायव्यां पातु लक्ष्मणा । ऐशान्यां रक्षेन्मां देवीमातंगी शुभकारिणी ।।
रक्षेत् सुरेशी चाग्नेयेबगला पातु चोत्तरे । ऊर्घ्वं पातु महा-देवि ! देवानां हित-कारिणी ।।
पाताले पातु मां नित्यंवशिनी विश्व-रुपिणी । प्रणवं च ततो मायाकाम-वीजं च कूर्चकं ।।
मातंगिनी ङे-युताऽस्त्रंवह्नि-जायाऽवधिर्पुनः । सार्द्धेकादश-वर्णा सासर्वत्र पातु मां सदा ।।
मातंगिनी देवी मेरे मस्तक की रक्षा करेभुवनेश्वरी दो नेत्रों कीतोतला देवी दो कर्णों कीत्रिपुरा देवी मेरे बदन-मण्डल कीमहा-माया मेरे कण्ठ कीमाहेश्वरी मेरे हृदय कीत्रिपुरा दोनों पार्श्वों की और कामेश्वरी मेरे गुह्य-देश की रक्षा करे । चण्डी दोनों ऊरु कीरति-प्रिया जंघा कीमहा-माया दोनों चरणों की और कुलेश्वरी मेरे सर्वांग की रक्षा करे । वैष्णवी सतत मेरे अंग-प्रत्यंग की रक्षा करे,मातंगी ब्रह्म-रन्घ्र में अवस्थान करके मेरी रक्षा करे । महा-पिशाचिनी बराबर मेरे ललाट की रक्षा करे,सुमुखी चक्षु की रक्षा करेदेवी नासिका की रक्षा करे । महा-पिशाचिनी वदन के पश्चाद्-भाग की रक्षा करेलज्जा मेरे दन्त की और सम्मार्जनी-हस्ता मेरे दो ओष्ठों की रक्षा करे ।
हे महा-देवि ! तीन ‘ठं’ मेरे चिबुक और कण्ठ की और तीन ‘ठं’ सदा मेरे हृदय-देश की रक्षा करे । लीला माँ मेरे नाभि-देश की रक्षा करेकालिका चक्षु की रक्षा करेचामुण्डा जठर की रक्षा करे और कात्यायनी लिंग की रक्षा करे । उग्र-तारा मेरे गुह्य कीअम्बिका मेरे पद-द्वय कीशर्वाणी मेरे दोनों बाहुओं की और चण्ड-भूषण मेरे हृदय-देश की रक्षा करे । मातृका रसना की रक्षा करेपुष्टिका पूर्व-दिशा की तरफविजया दक्षिण-दिशा कीतरफ और मेधा पश्चिम दिशा की तरफ मेरी रक्षा करे । श्रद्धा नैऋत्य-कोण की तरफलक्ष्मणा वायु-कोण की तरफशुभ-कारिणी मातंगी देवी ईशान-कोण की तरफसुवेशा अग्नि-कोण की तरफबाला उत्तर दिक् की तरफ और देव-वृन्द की हित-कारिणी महा-देवी ऊर्ध्व-दिक् की तरफ रक्षा करे । विश्व-रुपिणि वशिनी सर्वदा पाताल में मेरी रक्षा करे । ‘ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंगिन्यै फट् स्वाहा” – यह सार्द्धेकादश-वर्ण-मन्त्रमयी मातंगी सतत सकल स्थानों में मेरी रक्षा करे ।
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं देवि ! गुह्यात् गुह्य-तरं परमं । त्रैलोक्य-मंगलं नामकवचं देव-दुर्लभम् ।।
यः इदं प्रपठेत् नित्यंजायते सम्पदालयं । परमैश्वर्यमतुलंप्राप्नुयान्नात्र संशयः ।।
गुरुमभ्यर्च्य विधि-वत्कवचं प्रपठेद् यदि । ऐश्वर्यं सु-कवित्वं चवाक्-सिद्धिं लभते ध्रुवम् ।।
नित्यं तस्य तु मातंगीमहिला मंगलं चरेत् । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्चये देवा सुर-सत्तमाः ।।
ब्रह्म-राक्षस-वेतालाःग्रहाद्या भूत-जातयः । तं दृष्ट्वा साधकं देवि ! लज्जा-युक्ता भवन्ति ते ।।
कवचं धारयेद् यस्तुसर्वां सिद्धि लभेद् ध्रुवं । राजानोऽपि च दासत्वंषट्-कर्माणि च साधयेत् ।।
सिद्धो भवति सर्वत्रकिमन्यैर्बहु-भाषितैः । इदं कवचमज्ञात्वामातंगीं यो भजेन्नरः ।।
झल्पायुर्निधनो मूर्खोभवत्येव न संशयः । गुरौ भक्तिः सदा कार्याकवचे च दृढा मतिः ।।
तस्मै मातंगिनी देवीसर्व-सिद्धिं प्रयच्छति ।।
हे देवि ! तुमसे मैंने यह “त्रैलोक्य-मोहन” नाम का अति गुह्य देव दुर्लभ कवच कहा है । जो नित्य इसका पाठ करता हैवह सम्पत्ति का आधार होता है और अतुल परमैश्वर्य प्राप्त करता हैइसमें संशय नहीं है । यथा-विधि गुरु-पूजा करके उक्त कवच का पाठ करने से ऐश्वर्यसु-कवित्व और वाक्-सिद्धि निश्चय ही प्राप्त की जा सकती है । मातंगी उसे नित्य नारी-संग दिलाती है । हे देवि ! ब्रह्माविष्णुमहेश्वरदूसरे प्रधान देव-वृन्दब्रह्म-राक्षसवैतालग्रह आदि भूत-गण उस साधक को देखकर लज्जित होते हैं ।
जो व्यक्ति इस कवच को धारण करता हैवह सर्व-सिद्धियाँ लाभ करता है । नृपति-गण उसका दासत्व करते हैं । वह षट्-कर्म साधन कर सकता है । अधिक क्यावह सर्वत्र सिद्ध होता है । इस कवच को न जानकरजो मातंगी की पूजा करता हैवह अल्पायुधन-हीन और मूर्ख होता है । गुरु-भक्ति सर्वदा परमावश्यक है । इस कवच पर भी दृढ़ मति अर्थात् पूर्ण विश्वास रखना परम कर्तव्य है । फिर मातंगी देवी सर्व-सिद्धियाँ प्रदान करती है

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