Monday, 30 June 2014

[1] चीगोंग - मानव शरीर की साधना में प्रयोग होने वाली पध्दतियों के लिए उर्पयुक्त शब्द। वर्तमान में चीगोंग क्रियाएं चीन में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। नोट: यह और इसके बाद के सभी नोट अनुवादक के हैं.
[2] फालुन गोंग - ''धर्म चक्र चीगोंग'', फालुन गोंग और फालुन दाफा दोनों का प्रयोग इस प्रणाली के लिए होता है।
[3] फालुन - ''धर्म चक्र''
[4]गोंग - ''साधना शक्ति''
[5] नाड़ी - शरीर में शक्ति वाहिकाओं का जाल जिनमें ची का प्रवाह होता है। पारंपरिक चीनी वैद्यों के अनुसार रोग तभी उत्पन्न होता है जब नाड़ियों में ची का प्रवाह अबरुध्द हो जाता है।
[6] तान जिंग, ताओ जांग - साधना के लिए प्राचीन चीनी ताओ धर्म ग्रंथ।
[7] त्रिपिटक - पाली भाषा में बौध्द धर्म ग्रंथ।
[8] अरहत - बुध्द विचारधारा में एक ज्ञान प्राप्त व्यक्ति जो त्रिलोक से परे हैं किन्तु बोधिसत्व से निम्न हैं।
[9] तांग राजवंश - चीन के इतिहास में एक समृध्द काल (618-907 ए.डी.)।
[10] बनती - मूल शरीर, इस आयाम तथा अन्य आयामों का शरीर।
[11] ची - ''प्राण शक्ति'', ऐसा माना जाता है कि यह मनुष्य का स्वास्थ्य निर्धारित करती है।
[12] ची - इसमें चीनी भाषा का दूसरा अक्षर प्रयोग होता है किन्तु बोला एक समान जाता है।
[13] शिनशिंग - मन या हृदय की प्रकृति, सदाशीलता।
[14] तान - साधक के शरीर में दूसरे आयामों से एकत्रित शक्ति पुंज।
[15] ताओ विचारधारा में बाह्य रासायनिक प्रक्रियाओं को शरीर की आंतरिक साधना को समझाने के लिए मुहावरे की तरह किया जाता है।
[16] शानगन बिन्दु - दोनों भौहों के बीच थोड़ा नीचे स्थित एक एक्यूपंक्चर बिन्दु।
[17] 'ची' का प्रयोग उन पदार्थों का वर्णन करने के लिए भी किया जा सकता है जो अदृष्य और पारदर्षी हैं, जैसे वायु, गंध, क्रोध, आदि।
[18] प्राचीन काल में चीनी औषधियों के कुछ प्रसिध्द चिकित्सक।
[19] चीनी चिकित्सा में, नब्ज़ का निरीक्षण एक जटिल और महत्वपूर्ण भाग है।
[20] छाओ छाओ - तीन राजवंशों (220-265 ए.डी.) के काल का एक सम्राट।
[21] फोआ-तोआ - ''बुध्द''
[22] चहाई - एक प्रमुख चीनी शब्दकोश
[23] महान सांस्कृतिक क्रान्ति - चीन में एक कम्यूनिष्ट राजनैतिक आंदोलन जिसमें पारंपरिक मूल्यों और संस्कृति की आलोचना की गई (1966-1976).
[24] शाक्यमुनि - बुध्द शाक्यमुनि
[25] समाधि - बौध्द ध्यान अवस्था
[26] धर्म - धम्म। इसे चीन में फा कहते हैं।
[27] महायान - बुध्दमत की एक शाखा
[28] तथागत - बुध्द विचारधारा में एक ज्ञान प्राप्ति का स्तर जो अरहट और बोधिसत्व से ऊंचा है।
[29] बोधिसत्व - बुध्द विचारधारा में ज्ञान प्राप्ति का यह स्तर अरहट से ऊंचा किन्तु तथागत से कम है।
[30] शिन जियांग - चीन के उत्तर पश्चिम में एक राज्य।
[31] हान क्षेत्र - इसमें चीन के मध्य के क्षेत्र सम्मिलित हैं (जैसे तिब्बत आदि)।
[32] हवे चांग - तांग राजवंश (841-846) के समय में सम्राट वू जोंग का काल।
[33] तानत्येन - ''तान का श्क्ति क्षेत्र'', यह उदर के निचले भाग में होता है।
(1) पार्श्व द्वार बेढंगे मार्ग (पैंगमेन जुओताओ)
पार्श्व द्वार बेढंगी मार्गों को अपारंपरिक (चीमन) साधना मार्ग भी कहा जाता है। धर्मों की स्थापना से पहले अनेक चीगोंग साधना विधियां प्रचलित थीं। धर्मों के क्षेत्र से बाहर कई ऐसी पध्दतियां हैं जो सार्वजनिक हुई हैं। उनमें से अधिकतर में व्यवस्थित सिध्दांतों का अभाव रहा है और इसलिए पूर्ण साधना पध्दतियां नहीं बन पायी हैं। फिर भी चीमन साधना मार्गों की स्वयं अपनी व्यवस्थित, पूर्ण तथा अत्यधिक सघन साधना पध्दति रही है, और यह भी, जन साधारण में प्रचलित हुई है। इन अभ्यास पध्दतियों को अक्सर पार्श्व द्वार बेढंगा मार्ग कहा जाता है। इन्हें ऐसा क्यों कहा जाता है? अक्षरश: पैंगमेन का अर्थ है ''पार्श्व द्वार''; तथा जुओंताओ का अर्थ है ''बेढंगा मार्ग''। लोग बुध्द और ताओ दोनों विचारधाराओं के साधना मार्गों को सीधा मार्ग मानते हैं, और बाकी सभी को पार्श्व द्वार बेढंगा मार्ग अथवा दुष्ट साधना मार्ग। वास्तव में, ऐसा नहीं है। प्राचीन काल से ही पार्श्व द्वार बेढंगे मार्गों का गुप्त रूप से अभ्यास होता रहा है, तथा एक समय में एक ही शिष्य को सिखायी जाती है। इन्हें सार्वजनिक रूप से सिखाने की अनुमति नहीं थी। यदि इन्हें सार्वजनिक किया जाता तो लोग ठीक से समझ नहीं पाते। यहां तक कि इसके अभ्यासियों का भी मानना है कि इसका संबंध न तो बुध्द विचारधारा से है और न ही ताओ विचारधारा से। अपारंपरिक मार्गों के साधना नियमों में कठोर शिनशिंग की आवश्यकता होती है। इसकी साधना ब्रह्मांड की प्रकृति के अनुरूप है, तथा परोपकारी कार्य करने तथा अपने शिनशिंग पर ध्यान देने पर जोर है। इस पध्दति के कुछ पहुंचे हुए गुरु अत्यंत विलक्षण सिध्दियों के स्वामी हैं, और उनकी कुछ विलक्षण सिध्दियां बहुत शक्तिशाली हैं। मैं चीमन साधना पध्दति के तीन पहुंचे हुए गुरुओं से मिला हूं जिन्होंने मुझे कुछ ऐसी विधियां सिखाईं जो बुध्द या ताओ विचारधारा में नहीं पाई जातीं। साधना के दौरान इन सभी विधियों का अभ्यास बहुत कठिन था, इसलिए जो गोंग प्राप्त हुआ वह विलक्षण था। इसके विपरीत, तथाकथित बुध्द तथा ताओ विचारधारा की साधना पध्दतियों में कठोर शिनशिंग मानदण्ड का अभाव है, जिस कारण उनके अभ्यासी उच्च स्तर पर साधना नहीं कर पाते। इसलिए हमें प्रत्येक साधना प्रणाली को निष्पक्ष रूप से देखना चाहिए।
(2) युध्द कला चीगोंग
युध्द कला चीगोंग एक प्राचीन परंपरा की देन है। इसके अपने सिध्दान्तों और साधना पध्दतियों की पूर्ण प्रणाली होने के कारण, यह एक स्वतन्त्र प्रणाली बन गई है। स्पष्ट कहा जाये तो, इसमें वही अलौकिक सिध्दियां विकसित होती हैं जो आन्तरिक साधना के निम्नतम स्तर पर होती हैं। वे सभी अलौकिक सिध्दियां जो युध्द कला साधना में विकसित होती हैं वे आन्तरिक साधना में भी विकसित होती हैं। युध्द कला साधना का आरंभ भी ची क्रियाओं के करने से होता है। उदाहरण के लिए, जब एक पत्थर को वार करके तोड़ना होता है, तो आरंभ में युध्द कला अभ्यासी को अपनी बाहें घुमानी होती हैं जिससे उनमें ची सक्रिय हो सके। समय के साथ, उसके ची की प्रकृति बदल जाती है और यह एक शक्ति पुंज बन जाती है जिसकी उपस्थिति प्रकाश रूप में प्रतीत होती है। इस स्थिति पर उसकागोंग भी कार्य करना आरंभ कर देता है। गोंग में चेतनता होती है क्योंकि यह एक विकसित पदार्थ है। इसका अस्तित्व दूसरे आयाम में होता है और यह उसके मस्तिष्क से आने वाले विचारों द्वारा नियन्त्रित होता है। हमला होने पर, युध्द कला अभ्यासी को ची पहुंचाने की आवश्यकता नहीं पड़ती; केवल एक विचार करने से ही गोंग आ जाता है। साधना के विकासक्रम में उसका गोंग लगातार सुदृढ़ होता रहेगा, इसके कण और परिष्कृत और शक्ति और सघन होती जायेगी। लौह रेत पंजा, और सिंदूर पंजे जैसे कौशल प्रकट होंगे। जैसे हम फिल्मों, पत्रिकाओं और टेलीविजन कार्यक्रमों में देखते हैं, कुछ वर्षों में सुनहरे घंटियों वाली ढ़ाल और लौह कवच जैसे कौशल प्रकट हुए हैं। ये आन्तरिक साधना और युध्द कला साधना के परस्पर अभ्यास से उत्पन्न होते हैं। वे आन्तरिक और बाह्य साधना को एक साथ करने पर विकसित होते हैं। आन्तरिक साधना के लिए, व्यक्ति को नैतिकता का पालन और शिनशिंगकी साधना करना आवश्यक है। इसे यदि सैध्दान्तिक दृष्टिकोण से समझाया जाये तो, जब किसी व्यक्ति की योग्यताऐं एक विशेष स्तर तक पहुंच जाती हैं, तब गोंग शरीर के आन्तरिक भाग से बाह्य भाग की ओर निकलता है। इसके ऊंचे घनत्व के कारण यह एक सुरक्षा ढ़ाल बन जाता है। नियमों के अनुसार, हमारी आन्तरिक साधना और युध्द कला साधना में सबसे मुख्य अन्तर यह है कि युध्द कलाओं में बहुत प्रबल गति क्रियाऐं की जाती हैं और अभ्यासी शान्ति अवस्था में प्रवेश नहीं करते। शान्ति अवस्था में न रहने से ची त्वचा के नीचे प्रवाहित होती है और पेषियों के आर-पार निकलती है, इसका प्रवाह व्यक्ति के तानत्येन[33] में नहीं होता। इसलिए वे चेतनता की साधना नहीं करते, और न ही वे इसके सक्षम हैं।
(3) विपरीत साधना और गोंग ऋण
कुछ लोगों ने कभी चीगोंग का अभ्यास नहीं किया। तब एक दिन उन्हें अचानक गोंग की प्राप्ति हो जाती है और उनकी शक्ति बहुत प्रबल होती है, और वे दूसरों के रोग भी ठीक कर पाते हैं। लोग उन्हेंचीगोंग गुरु कहने लगते हैं और वे, स्वयं भी, दूसरों को सिखाने लगते हैं। उनमें से कुछ, यद्यपि उन्होंने स्वयं कभी चीगोंग नहीं सीखा या उसकी केवल कुछ क्रियाऐं ही सीखी हैं, दूसरों को कुछ फेरबदल करके सिखाने लगते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति चीगोंग गुरु कहलाने के योग्य नहीं है। उनके पास दूसरों को देने के लिए कुछ नहीं होता। वे जो कुछ सिखाते हैं उसका प्रयोग उच्च स्तर की साधना के लिए नहीं किया जा सकता; अधिक से अधिक उसका प्रयोग रोग हटाने और स्वास्थ्य की प्राप्ति में प्रयोग हो सकता है। इस प्रकार का गोंग कैसे आता है? पहले विपरीत साधना की बात करते हैं। साधारणत: ''विपरीत साधना'' का संबंध उन भद्र लोगों से है जिनका शिनशिंग बहुत ऊंचा होता है। अधिकतर वे वृध्द होते हैं, लगभग पचास से अधिक उम्र के। उनके पास आरंभ से साधना करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होता, क्योंकि ऐसे पहुंचे हुए गुरुओं का मिल पाना सरल नहीं है जो शरीर और मन दोनों के साधना की चीगोंग क्रियाऐं सिखा सकें। जिस पल इस प्रकार के व्यक्ति को साधना करने की इच्छा होती है, उच्च स्तर के गुरु उस व्यक्ति के पास उसके शिनशिंग के अनुपात में गोंग भेज देते हैं। इससे विपरीत में साधना, ऊपर से नीचे की ओर, संभव हो पाती है, और इस प्रकार यह बहुत शीघ्र हो जाती है। दूसरे आयाम में, ऊंचे स्तर के गुरु परावर्तन करते हैं और उस व्यक्ति को लगातार उसके शरीर के बाहर से गोंग उपलब्ध करते रहते हैं; विशेषकर तब जब वह व्यक्ति उपचार कर रहा होता है और उसके चारों ओर ऊर्जा क्षेत्र बना होता है। गुरु द्वारा दिया गया गोंग वैसे ही प्रवाहित होता है जैसे एक पाइप लाइन में। कुछ लोग यह जानते भी नहीं हैं कि गोंग कहां से आ रहा है। यह विपरीत साधना है।
दूसरे प्रकार की साधना ''गोंग ऋण'' कहलाती है, और इसके लिए उम्र की सीमा नहीं है। एक व्यक्ति के पास एक मुख्य चेतना (ज़ु यिशी) के साथ-साथ सह चेतना (फु यिशी) होती है, और यह मुख्य चेतना की तुलना में साधारणत: ऊंचे स्तर पर होती है। कुछ लोगों की सह चेतनाऐं इतने ऊंचे स्तर पर पहुंच जाती हैं कि वे ज्ञान प्राप्त लोगों से संपर्क कर सकती हैं। जब इस प्रकार के लोग साधना करना चाहते हैं, उनकी सह चेतनाऐं भी अपने स्तरों में उन्नति करना चाहती हैं और तुरन्त उन ज्ञान प्राप्त लोगों से गोंग को ऋण पर प्राप्त करने के लिए संपर्क करती हैं। गोंग को ऋण के रूप में प्रदान किये जाने के बाद यह व्यक्ति रातोंरात उसे प्राप्त कर लेता है। गोंग की प्राप्ति के बाद, उसमें लोगों का उपचार कर उनके दु:ख दर्द हटाने की योग्यता आ जाती है। वह व्यक्ति साधारणत: ऊर्जा क्षेत्र बना कर उपचार करने की प्रणाली का प्रयोग करता है। उसमें लोगों को व्यक्तिगत रूप से शक्ति प्रदान करने और कुछ तरीके सिखाने की योग्यता भी आ जाती है।
इस प्रकार के लोगों की शुरूआत साधारणतया बहुत अच्छी होती है। क्योंकि उनके पास गोंग होता है, वे लोकप्रिय हो जाते हैं और उन्हें प्रसिध्दि और निजी लाभ दोनों प्राप्त होते हैं। प्रसिध्दि और निजी लाभ के प्रति आसक्ति उनकी विचारधारा का एक बड़ा भाग बन जाती है & साधना से भी अधिक। उस स्थिति के बाद उनका गोंग कम होने लगता है, और कम होते होते अंत में समाप्त हो जाता है।
(4) विश्वक भाषा
कुछ लोग अचानक ही एक विशेष प्रकार की भाषा बोलने लगते हैं। जब वे बोलते हैं तो यह बहुत धारा प्रवाह सुनाई देती है, फिर भी यह किसी भी मानव समाज की भाषा नहीं है। इसे क्या कहा जाता है? इसे खगोलीय भाषा कहते हैं। ''विश्वक भाषा'' कहलाई जाने वाली यह वस्तु वास्तव में उन परजीवों की है जिनका स्तर बहुत ऊंचा नहीं है। वर्तमान में यह घटना देश भर के कई चीगोंग अभ्यासियों के साथ हो रही है; उनमें से कुछ तो कई प्रकार की भाषाऐं बोल सकते हैं। वास्तव में, हमारी मनुष्य जाति की भाषाऐं भी उत्कृष्ट हैं और वे एक हजार से भी अधिक प्रकार की हैं। क्या विश्वक भाषा को एक अलौकिक सिध्दि मानना चाहिए? मैं कहता हूं कि ऐसा नहीं है। यह कोई इस प्रकार की अलौकिक सिध्दि नहीं है जो आपसे उत्पन्न हुई हो, न ही यह उस प्रकार की सिध्दि है जो आपके बाहर से आई हो। बल्कि, यह बाहरी परजीवों का कौशल है। इन परजीवों का अस्तित्व कुछ ऊंचे स्तर से है & कम से कम मनुष्य जाति से ऊंचे स्तर से। उनमें से ही एक वार्तालाप करता है, जबकि जो व्यक्ति विश्वक भाषा बोल रहा होता है केवल एक माध्यम का कार्य करता है। अधिकतर लोग स्वयं यह नहीं जानते वे क्या बोल रहे हैं। केवल वे लोग जिनके पास मन को पढ़ पाने की योग्यता है, उन शब्दों का कुछ अर्थ लगा पाते हैं। यह अलौकिक सिध्दि नहीं है, किन्तु कई लोग जो इन भाषाओं को बोल चुके हैं स्वयं को श्रेष्ठ और गर्वान्वित महसूस करते हैं और मानते हैं कि यह एक अलौकिक सिध्दि है। वास्तव में, ऊंचे स्तर के तीसरे नेत्र वाला व्यक्ति निश्चित रूप से यह देख सकता है कि इस व्यक्ति के ठीक ऊपर से एक परजीव उसके मुंह के द्वारा बोल रहा है।
वह परजीव इस व्यक्ति को अपनी कुछ शक्ति देते हुए विश्वक भाषा बोलना सिखाता है। किन्तु इसके बाद यह व्यक्ति उसके नियन्त्रण में होगा, इसलिए यह सच्चा साधना मार्ग नहीं है। यद्यपि वह परजीव कुछ ऊंचे आयाम में है, किन्तु यह सच्चा साधना मार्ग नहीं है। इसलिए वह यह नहीं जानता कि साधकों को स्वस्थ रहना या रोग उपचार करना कैसे सिखाया जाये। इसलिए, वह बोलने के द्वारा शक्ति देने की विधि का प्रयोग करता है। क्योंकि यह बिखर जाती है, इस ऊर्जा में कोई शक्ति नहीं होती। यह कुछ मामूली रोगों के उपचार के लिए प्रभावशाली है किन्तु गंभीर रोगों के लिए अनुपयुक्त है। बुध्दमत बताता है कि कैसे ऊंचे स्तर के जीव साधना नहीं कर पाते क्योंकि वहां कष्ट और विरोधाभास का अभाव होता है; साथ ही, वे स्वयं तप नहीं कर सकते और अपना स्तर बढ़ा पाने में असमर्थ होते हैं। इसलिए वे ऐसे तरीके खोजते हैं जिससे लोगों को अपना स्वास्थ्य सुधारने में मदद मिल सके ओर वे स्वयं का स्तर उठा सकें। यही विश्वक भाषा है। यह न तो कोई अलौकिक सिध्दि है और न ही चीगोंग ।
(5) प्रेत ग्रसित होना (फूटी)
प्रेत ग्रसित (फूटी) होने का सबसे हानिकारक प्रकार किसी निम्न स्तर के परजीव द्वारा ग्रसित होना है। यह किसी दुष्ट मार्ग द्वारा साधना करने से होता है। यह लोगों के लिए वास्तव में हानिकारक है, और प्रेत ग्रसित होने के परिणाम भयावह होते हैं। अभ्यास आरंभ करने के कुछ समय पश्चात ही, कुछ लोगों में रोग उपचार करने और पैसा कमाने की धुन सवार हो जाती है; वे पूरे समय केवल इसी बारे में सोचते रहते हैं। हो सकता है आरंभ में बहुत अच्छे रहे हों और किसी गुरु की देखरेख में हों। किन्तु, जब वे रोग उपचार करने और पैसा कमारे के बारे में सोचने लगते हैं तो बात बिगड़ जाती है। तब वे इस प्रकार के परजीव को आकर्षित कर बैठते हैं। हालांकि यह हमारे भोतिक आयाम में नहीं है किन्तु इसका वास्तव में अस्तित्व होता है।
इस प्रकार के साधक अचानक यह अनुभव करते हैं कि उनका तीसरा नेत्र खुल गया है और उनके पास गोंग है, किन्तु यह वास्तव में ग्रसित करने वाली दुष्टात्मा है जिसका उनके मस्तिष्क पर नियंत्रण है। जो यह देखती है उसी की झलक उसके मस्तिष्क पर परावर्तित करती है, जिससे उस व्यक्ति को लगता है उसका तीसरा नेत्र खुल गया है। जबकि उस व्यक्ति का तीसरा नेत्र किसी भी तरह नहीं खुला है। ग्रसित करने वाली दुष्टात्मा या पशु उस व्यक्ति को गोंग क्यों देना चाहते हैं? यह उसकी मदद क्यों करना चाहती है? यह इसलिए क्योंकि हमारे विश्व में पशुओं को साधना करना निषेध है। पशुओं को सच्चे साधना मार्ग की प्राप्ति की अनुमति नहीं है क्योंकि वे न तो शिनशिंग के बारे में कुछ जानते हैं और न ही अपने में सुधार कर सकते हैं। परिणामस्वरूप, वे मानव शरीर में प्रवेश करके मानव सत्व प्राप्त करना चाहते हैं। इस विश्व में एक दूसरा नियम भी है, अर्थात : हानि के बिना लाभ नहीं मिलता। इसलिए वे प्रसिध्दि और निजी लाभ के प्रति आपकी इच्छा की पूर्ति करना चाहते हैं। वे आपको धनवान और प्रसिध्द बना देंगे, किन्तु वे आपकी मदद मुफ्त में नहीं करेंगे। वे भी कुछ पाना चाहते हैं : आपका सत्व। जब वे आपको छोड़ेंगे आपके पास कुछ नहीं बचेगा और आप बहुत कमजोर, क्षीण हो चुके होंगे। यह आपके गिरे हुए शिनशिंग के कारण होता है। एक सच्चा मन हजार बुराईयों को दबा सकता है। जब आप सच्चे हैं आप बुराई को आकर्षित नहीं करेंगे। दूसरे शब्दों में, एक पवित्र साधक बनें, बुराईयों से बचें और केवल सच्ची साधना मार्ग का अभ्यास करें।
(6) एक सच्चा अभ्यास दुष्ट साधना मार्ग बन सकता है
यद्यपि कुछ लोग जो अभ्यास पध्दतियां सीखते हैं वे सच्चे साधना मार्ग की होती है, वे वास्तव में भूल से दुष्ट मार्ग अपना सकते हैं क्योंकि वे स्वयं पर कठिन आवश्यकताओं की पूर्ति, अपने शिनशिंग का संवर्धन और अपनी क्रियायें करते हुए बुरे विचारों को रोकना, नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति खड़े होकर मुद्रा या बैठ कर ध्यानमुद्रा में होता है, उसके विचार वास्तव में धान, प्रसिध्दि, निजी स्वार्थ पर होते हैं या यह कि "उसने मेरे साथ बुरा किया है, मुझे अलौकिक सिध्दियां मिल जाऐं फिर मैं इसे देख लूंगा"। या वह किसी अलौकिक सिध्दि के बारे में सोच रहा होता है, जिससे उसके अभ्यास में कुछ बहुत बुरे तत्वों का मिलन हो जाता है और वास्तव में वह दुष्ट मार्ग से अभ्यास कर रहा है। यह बहुत खतरनाक है क्योंकि इससे कुछ निम्नस्तर के परजीव जैसे बुरे तत्व आकर्षित हो सकते हैं। हो सकता है वह व्यक्ति जानता भी न हो उसने उन्हें बुला लिया है। उसकी आसक्ति बहुत अधिक है; अपनी इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से साधना अभ्यास करना अमान्य है। वह पवित्र नहीं है, और उसका गुरु भी उसकी रक्षा करने में असमर्थ होगा। इसलिए, यह आवश्यक है कि साधक अपनेशिनशिंग को कठोरता से संभाले, मन पवित्र रखे और कोई आसक्ति न रखे। इसके विपरीत करने पर समस्याऐं आ सकती हैं।

[1] चीगोंग - मानव शरीर की साधना में प्रयोग होने वाली पध्दतियों के लिए उर्पयुक्त शब्द। वर्तमान में चीगोंग क्रियाएं चीन में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। नोट: यह और इसके बाद के सभी नोट अनुवादक के हैं.
[2] फालुन गोंग - ''धर्म चक्र चीगोंग'', फालुन गोंग और फालुन दाफा दोनों का प्रयोग इस प्रणाली के लिए होता है।
[3] फालुन - ''धर्म चक्र''
[4]गोंग - ''साधना शक्ति''
[5] नाड़ी - शरीर में शक्ति वाहिकाओं का जाल जिनमें ची का प्रवाह होता है। पारंपरिक चीनी वैद्यों के अनुसार रोग तभी उत्पन्न होता है जब नाड़ियों में ची का प्रवाह अबरुध्द हो जाता है।
[6] तान जिंग, ताओ जांग - साधना के लिए प्राचीन चीनी ताओ धर्म ग्रंथ।
[7] त्रिपिटक - पाली भाषा में बौध्द धर्म ग्रंथ।
[8] अरहत - बुध्द विचारधारा में एक ज्ञान प्राप्त व्यक्ति जो त्रिलोक से परे हैं किन्तु बोधिसत्व से निम्न हैं।
[9] तांग राजवंश - चीन के इतिहास में एक समृध्द काल (618-907 ए.डी.)।
[10] बनती - मूल शरीर, इस आयाम तथा अन्य आयामों का शरीर।
[11] ची - ''प्राण शक्ति'', ऐसा माना जाता है कि यह मनुष्य का स्वास्थ्य निर्धारित करती है।
[12] ची - इसमें चीनी भाषा का दूसरा अक्षर प्रयोग होता है किन्तु बोला एक समान जाता है।
[13] शिनशिंग - मन या हृदय की प्रकृति, सदाशीलता।
[14] तान - साधक के शरीर में दूसरे आयामों से एकत्रित शक्ति पुंज।
[15] ताओ विचारधारा में बाह्य रासायनिक प्रक्रियाओं को शरीर की आंतरिक साधना को समझाने के लिए मुहावरे की तरह किया जाता है।
[16] शानगन बिन्दु - दोनों भौहों के बीच थोड़ा नीचे स्थित एक एक्यूपंक्चर बिन्दु।
[17] 'ची' का प्रयोग उन पदार्थों का वर्णन करने के लिए भी किया जा सकता है जो अदृष्य और पारदर्षी हैं, जैसे वायु, गंध, क्रोध, आदि।
[18] प्राचीन काल में चीनी औषधियों के कुछ प्रसिध्द चिकित्सक।
[19] चीनी चिकित्सा में, नब्ज़ का निरीक्षण एक जटिल और महत्वपूर्ण भाग है।
[20] छाओ छाओ - तीन राजवंशों (220-265 ए.डी.) के काल का एक सम्राट।
[21] फोआ-तोआ - ''बुध्द''
[22] चहाई - एक प्रमुख चीनी शब्दकोश
[23] महान सांस्कृतिक क्रान्ति - चीन में एक कम्यूनिष्ट राजनैतिक आंदोलन जिसमें पारंपरिक मूल्यों और संस्कृति की आलोचना की गई (1966-1976).
[24] शाक्यमुनि - बुध्द शाक्यमुनि
[25] समाधि - बौध्द ध्यान अवस्था
[26] धर्म - धम्म। इसे चीन में फा कहते हैं।
[27] महायान - बुध्दमत की एक शाखा
[28] तथागत - बुध्द विचारधारा में एक ज्ञान प्राप्ति का स्तर जो अरहट और बोधिसत्व से ऊंचा है।
[29] बोधिसत्व - बुध्द विचारधारा में ज्ञान प्राप्ति का यह स्तर अरहट से ऊंचा किन्तु तथागत से कम है।
[30] शिन जियांग - चीन के उत्तर पश्चिम में एक राज्य।
[31] हान क्षेत्र - इसमें चीन के मध्य के क्षेत्र सम्मिलित हैं (जैसे तिब्बत आदि)।
[32] हवे चांग - तांग राजवंश (841-846) के समय में सम्राट वू जोंग का काल।
[33] तानत्येन - ''तान का श्क्ति क्षेत्र'', यह उदर के निचले भाग में होता है।
सैध्दान्तिक रूप से, चीगोंग उपचार अस्पताल में दिए जाने वाले उपचारों से बिल्कुल भिन्न होते हैं। पाश्चात्य उपचार साधारण मानव समाज की पध्दतियों का प्रयोग करते हैं। प्रयोगशाला परीक्षण और एक्स-रे परीक्षण होते हुए भी, वे रोग के कारणों का पता केवल इस आयाम में लगा सकते हैं और वे मूलभूत कारणों को नहीं देख सकते जिनका अस्तित्व दूसरे आयामों में है। इसलिए वे रोग के कारण को समझने में असफल रहते हैं। दवाईयां रोग के मूल कारण (जिसे पाश्चात्य चिकित्सक पैथोजन कहते हैं, और चीगोंग में कर्म कहते हैं) को तभी दूर कर सकती हैं यदि रोगी गंभीर रूप से रोगग्रस्त न हो। यदि रोग गंभीर हो तो दवाई का प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि हो सकता है रोगी दवाई की बढ़ाई गई मात्रा सहन न कर सके। सभी रोगों को इस संसार के नियमों में नहीं बांधा जा सकता। कुछ रोग बहुत गंभीर होते हैं और इस संसार की सीमाओं के परे होते हैं, जिस कारण अस्पताल उनका निदान करने में असमर्थ होते हैं।
चीनी औषधि हमारे देश में पारंपरिक औषध विज्ञान है। यह मानव शरीर की साधना द्वारा विकसित अलौकिक शक्तियों से अलग नहीं है। प्राचीन लोग मानव शरीर की साधना में विशेष ध्यान देते थे। कनफ्यूशियस विचारधारा, ताओ विचारधारा, बुध्द विचारधारा - और यहां तक कि कनफ्यूशियस मत के शिष्य - सभी ध्यान साधना पर विशेष बल देते रहे हैं। ध्यान में बैठना एक दक्षता मानी जाती रही है। यद्यपि वे क्रियायें नहीं किया करते थे, फिर भी समय बीतने पर वे गोंग और अलौकिक सिध्दियां विकसित किया करते थे। कैसे चीनी एक्यूपंक्चर मानव शरीर की नाड़ियों का इतनी स्पष्टता से पता लगा सका? क्यों एक्यूपंक्चर बिंदु समानांतर नहीं जुड़े हैं? क्यों वे एक दूसरे को पार नहीं करते, और क्यों वे लंबवत् जुड़े हैं? क्यों उनका माप इतने त्रुटिहीन तरीके से हो पाया? अलौकिक सिध्दियों द्वारा आधुनिक व्यक्ति स्वयं अपनी आंखों से वह सब देख सकते हैं जो उन चीनी चिकित्सकों की उपलब्धियां थीं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि प्रसिध्द प्राचीन चीनी चिकित्सक अलौकिक सिध्दियों के स्वामी थे। चीनी इतिहास में, ली शीज़ेन, सुन सिमियो, ब्येन चयुऐ, और हवा तोआ[18] नामक सभीचीगोंग गुरु वास्तव में अलौकिक सिध्दियों में समर्थ थे। वर्तमान तक पहुंचते-पहुंचते, चीनी औषधि अपना अलौकिक सिध्दियों वाला भाग गवां चुकी है और केवल चिकित्सा तकनीक ही बची है। प्राचीन काल में चीनी चिकित्सक (अलौकिक सिध्दियों के साथ) अपने नेत्रों का प्रयोग रोग के परीक्षण के लिए करते थे। बाद में, उन्होंने नब्ज़ देखने[19] की पध्दति भी विकसित कर ली। यदि चीनी चिकित्सा पध्दति में अलौकिक सिध्दियां वापस डाल दी जायें, तो यह कहा जा सकता है कि आने वाले कई वर्षों तक भी चीनी चिकित्सा पाश्चात्य चिकित्सा से अग्रणी रहेगी।
चीगोंग चिकित्सा रोग के मूल कारण को हटाती है। मैं रोग को एक प्रकार का कर्म मानता हूं, और रोग की चिकित्सा का अर्थ उससे संबंधित कर्म को क्षीण करने में मदद करना है। कुछ चीगोंग गुरु रोग के उपचार के लिए ची के हटाने और पूर्ति की पध्दति का प्रयोग करते हैं जिससे रोगी को काली ची को समाप्त करने में मदद मिल सके। एक निम्न स्तर पर ये चीगोंग गुरु काली ची को हटाते हैं, जबकि वे काली ची का मूल कारण नहीं जानते। यह काली ची वापस आ जाएगी और रोग लौट आऐगा। सत्य यह है कि काली ची रोग का मूल कारण नहीं है - काली ची की उपस्थिति केवल रोगी को बेचैन बनाती है। रोगी की बीमारी का मूल कारण एक चेतना है इसका अस्तित्व दूसरे आयाम में है। कई चीगोंग गुरु यह नहीं जानते। क्योंकि वह चेतना शक्तिशाली होती है, साधारण लोग उसे नहीं छू पाते, और न ही वे ऐसी हिम्मत कर सकते हैं। फालुन गोंग की चिकित्सा का तरीका इसी चेतना पर केन्द्रित है और इसी से आरंभ होता है, जिससे रोग का मूल कारण समाप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त उस क्षेत्र में एक कवच की स्थापना कर दी जाती है जिससे रोग दोबारा घुसपैठ न कर सके।
चीगोंग रोग का निदान तो कर सकता है किन्तु मानव समाज की परिस्थितियों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यदि इसे बड़े स्तर पर प्रयोग में लाया जाये तो यह साधारण लोगों के समाज की परिस्थितियों से हस्तक्षेप करेगा, जिसकी अनुमति नहीं है; और इसके आरोग्य की क्षमता भी बहुत प्रभावी नहीं होगी। जैसा कि आप जानते होंगे, कुछ लोगों ने चीगोंग परीक्षण केन्द्र, चीगोंग अस्पताल, और चीगोंगनिवारण केन्द्र आदि खोल लिए हैं। इन व्यापारों को आरंभ करने से पहले हो सकता है उनकी चिकित्सा प्रभावी रही हों। जैसे ही वे रोग की चिकित्सा के लिए व्यापार आरंभ करते हैं, प्रभाव क्षमता समाप्त हो जाती है। इसका अर्थ है कि लोगों के लिए यह वर्जित है कि वे अलौकिक पध्दतियों का प्रयोग साधारण लोक समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करें। ऐसा करने पर उनकी प्रभाव क्षमता अवश्य ही उतने स्तर तक कम हो जायेगी जितनी साधारण लोक समुदाय की दूसरी पध्दतियां हैं।
अलौकिक सिध्दियों के प्रयोग द्वारा व्यक्ति मानव शरीर के अंदरूनी भाग की परत दर परत परीक्षण कर सकता है, वैसे ही जैसे चिकित्सा में कोणीय अनुभाग लिया जाता है। कोमल ऊतक और शरीर के किसी भी और भाग को देखा जा सकता है। यद्यपि आज की सी.टी. स्कैन स्पष्टता से देख पाने में सक्षम है, किन्तु मशीन की आवश्यकता फिर भी है; इसमें वास्तव में बहुत समय लगता है, बहुत सी फिल्म का प्रयोग होता है, और मंद गति से चलती है और महंगी है। यह उतनी सुविधाजनक और त्रुटिहीन भी नहीं है जितनी कि मानवीय अलौकिक सिध्दियां। एक शीघ्र सूक्ष्म परीक्षण करने के लिए,चीगोंग गुरु अपनी आंखें बंद करते हैं और रोगी के शरीर के किसी भी भाग को सीधे और स्पष्टता से देख लेते हैं। क्या यह उच्च तकनीक नहीं है? यह वर्तमान की ऊंची तकनीकों से भी अधिक उन्नत है। जबकि इस प्रकार की दक्षता प्राचीन चीन में पहले से ही थी - यह प्राचीन काल की उच्च तकनीक थी। हवा तोआ ने छाओ छाओ के मस्तिष्क में एक गिल्टी देखी और उसकी शल्य चिकित्सा करना चाहता था। छाओ छाओ ने हवा तोआ को बंदी बनवा दिया, क्योंकि उसने उस पर विश्वास नहीं किया और समझा कि इसे उसे हानि पहुंच सकती है। अन्तत: छाओ छाओ[20] की मस्तिष्क की गिल्टी से मृत्यु हो गई। विगत में कई महान चीनी चिकित्सक वास्तव में अलौकिक सिध्दियों के स्वामी थे। आज स्थिति यह है कि आधुनिक समाज में लोग अंधाधुंध भौतिक वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं और प्राचीन परंपराओं को भूल चुके हैं।
हमारी उच्च स्तरीय चीगोंग साधना द्वारा पारंपरिक पध्दतियों का पुनर्निरीक्षण किया जाना चाहिए, पुन: अपनाया और विकसित किया जाना चाहिए और पुन: उनका प्रयोग मानव समुदाय की भलाई के लिए किया जाना चाहिए।

उसने सारे संसारको अन्धा कर दिया है

यदि अपने चाहनेवालो को इश्वर भी चाहता है तब तो वह इच्छाशून्य नहीं है 

बहुत सुंदर तर्क है ! क्या इश्वर इच्छा का दास है ..? भक्त जबतक इच्छाशून्य न हो जाय तबतक भाग्यहीन है ! इश्वर नित्य नवीन,  पवित्र एवं चैतन्य है ! और चैतन्य में इच्छा..? थोडा सा अटपटा सा लगता है !  इच्छा का स्थान मैं कहा बताऊ..?क्योकि वह तो हर एक मनुष्य में और हर एक स्थान में घुसी हुई है ! प्रतेक दिशामें वह रहती है ! जब तक मनुष्य सो न जाए तब तक वह इच्छा जमीन से असमानकी सैर कर आती है ! जैसा मैं कहता हूँ,वह अत्यंत लघु है परन्तु उसमे अन्धकार इतना है कि उसने सारे संसारको अन्धा कर दिया है ! जहा वह गयी,उसका नाश हो गया ! जिसमे वह बेठ गयी वह नष्ट हो गया ! जब तक मनुष्य सब स्वार्थो का त्याग नहीं करता,तब तक वह उसे नहीं छोडती ! सबमे उसका अस्तित्व ऐसा है जैसा कि सोने,चांदी और ताम्बे में पानी का ! इनमे चाहे जितना खोजो परन्तु पानी का पता नहीं चलेगा ! मगर ज्यो ही आग पे रखो, पिघल कर सब पानी हो जाता है ! इसी तरह जीवजगत अपने अज्ञानसे आश्चर्यमें पड़ा हुआ है ! जब गुरु के उपदेशसे प्रत्क्ष्य हो जाता है तब इश्वर में मिल जाता है !.

सबसे प्राचीन और प्रथम पुस्तक

ऋग्वेद को संसार की सबसे प्राचीन और प्रथम पुस्तक माना है। इसी पुस्तक पर आधारित है हिंदू धर्म। इस पुस्तक में उल्लेखित 'दर्शन' संसार की प्रत्येक पुस्तक में मिल जाएगा। माना जाता है कि इसी पुस्तक को आधार बनाकर बाद में यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद की रचना हुई। दरअसल यह ऋग्वेद के भिन्न-भिन्न विषयों का विभाजन और विस्तार था।

विश्व की प्रथम पुस्तक : वेद मानव सभ्यता के सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है।

हिन्दू शब्द की उत्पत्ति : हिन्दू धर्म को सनातन, वैदिक या आर्य धर्म भी कहते हैं। हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है।

भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है। इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है।

ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक 'अवेस्ता' में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति ‍इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिंदू' कहने लगे।

आर्य शब्द का अर्थ : आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।

हिन्दू इतिहास की भूमिका : जब हम इतिहास की बात करते हैं तो वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: कृष्ण के समय में वेद व्यास द्वारा पूरी तरह से वेद को चार भाग में विभाजित कर दिया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्‍य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5500 वर्ष पूर्व होने के तथ्‍य ढूँढ लिए गए।

हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो 4500 ई.पू. (आज से 6500 वर्ष पूर्व) मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे। कहते हैं कि आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म 2 हजार ई.पू.। बौद्ध धर्म 500 ई.पू.। ईसाई धर्म सिर्फ 2000 वर्ष पूर्व। इस्लाम धर्म 14 सौ साल पहले हुए।

लेकिन धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और धारणाएँ भी हैं। मान्यता यह भी है कि 90 हजार वर्ष पूर्व इसकी शुरुआत हुई थी। दरअसल हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रंगारिक होता गया। वह दौर ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर।

जब हम हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ते हैं तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: 14 मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वायंभव मनु था और प्रथम ‍स्त्री थी शतरूपा।

पुराणों में हिंदू इतिहास की शुरुआत सृष्टि उत्पत्ति से ही मानी जाती है, ऐसा कहना की यहाँ से शुरुआत हुई यह ‍शायद उचित न होगा फिर भी वेद-पुराणों में मनु (प्रथम मानव) से और भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का इसमें उल्लेख मिलता है।
खीर भवानी मंदिर | Kheer Bhawani Temple Srinagar

खीर भवानी मंदिर भारत की खूबसूरत वादियों में से एक कश्मीर प्रांत के श्रीनगर शहर में स्थित है. कश्मीर के मनोहर दृश्यों से युक्त यह स्थान एक पावन धाम रूप में भी विख्यात यहाँ आस पास के क्षेत्रों में अनेक मन्दिर स्थापित हैं जिन्हें देखकर सभी लोग भक्ति भाव से भर जाते हैं यहाँ के तमाम क्षेत्रों में अनेक हिंदु मंदिर देखे जा सकते हैं जो सैलानियों एवं भक्तों सभी को अपनी ओर आकर्षित करते हैं इन मंदिरों की शोभा से यहां का वातावरण और भी ज्यादा पावन हो जाता है.

कश्मीर के तमाम मंदिरों में से एक है खीर भवानी मंदिर जो देवी के भक्तों का एक पावन धाम है. देश भर से लोग यहाँ माँ के दर्शन करने के लिए आते रहते हैं. मां खीर भवानी मन्दिर यहाँ के महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक रहा है जिसकी प्रसिद्धि कोने-कोने तक फैली हुई है. माँ के मंदिर में आकर भक्त देवी के दर्शनों को पाता है उसका आशीर्वाद ग्रहण करता है. जो भी सैलानी जम्मू कश्मीर में घूमने के लिए आते हैं वह इस मंदिर में आना नहीं भूलते और श्रद्धा भाव के साथ इस दरबार में आकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं.

खीर भवानी मंदिर श्रीनगर के तुल्लामुला में स्थित है. खीर भवानी मंदिर यहाँ के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है तथा यह मंदिर माता रंगने देवी को समर्पित है. मंदिर में अनेकों श्रद्धालु लम्बी लम्बी कतारों में खड़े रहकर माँ की एक झलक पाने के लिए बेचैन रहते हैं. नवविवाहित युगल यहाँ माँ का आशीर्वाद प्राप्त करने आते हैं तथा अपनी ज़िदगी के सफल एवं सुखद रूप की कामना करते हैं. बच्चे से लेकर बडे़, बूढे सभी यहाँ पर आते हैं यहाँ के निवासियों के लिए देवी का यह रूप करूणा व प्रेम का प्रतीक है.

खीर भवानी मंदिर कथा | Kheer Bhawani Temple Story In Hindi

खीर भवानी मंदिर का धार्मिक मह्त्व खूब है यहाँ के लोग माँ की खूब सेवा तथा पूजा अराधना करते हैं. माँ के इस मन्दिर से एक कथा भी काफी प्रसिद्ध है जिसे सुन कर मां की कृपा हर किसी पर होती है माँ की कथा को पढकर या सुनकर सभी लोग सुख की प्राप्ति करते हैं.

यहाँ पर स्थित यह मंदिर पौराणिक महत्व से जुड़ा हुआ है जिसमें एक कथा अनुसार बहुत प्राचीन समय पहले रामायण काल में भगवान श्री राम जी ने अपनी पत्नी सीता जी को रावण के चंगुल से मुक्त कराने के लिए लंका पर चढाई करने का निश्चय किया.

राम जी ने अपनी सारी सेना के साथ रावण के राज्य लंका पर हमला बोल दिया और युद्ध आरंभ हो गया कहा जाता है की उस समय देवी राघेन्या जी लंका में निवास कर रही थी. और जब युद्ध आरंभ हुआ तो उन्होंने भगवान हनुमान जी से कहा की अब वह यहाँ पर रह नहीं सकती व उनका समय समाप्त हो चुका है

अत: वह उन्हें  अब लंका से बाहर निकाल कर हिमालय के कश्मीर क्षेत्र में ले जाएं जहां रावण के पिता पुलतस्य मुनी निवास करे थे देवी के वचन सुनकर भगवान हनुमान जी ने मां राघेन्याने को उस स्थान पर पहुँचाने का कार्य करते हैं.

इस पर देवी ने शिला का रूप धारण कर लिया तथा हनुमान जी ने उन्हें अपने हाथों में उठाकर लंका से बाहर निकाल ले गए व हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओ में घूमने लगे तथा उचित स्थान की खोज करने लगे तब उन्होंने इस स्थान को देखा तो उन्होंने यहीं पर देवी को स्थापित कर दिया यहीं पर मां राघेन्यादेवी विश्राम करने लगी.

कालांतर में यह स्थान उपेक्षा का शिकार हो गया था परंतु एक बार एक कश्मीरी पंडित को देवी राघेन्या ने नाग के रूप में दर्शन दिए तथा पंडित को उस स्थान में लेकर गईं जहाँ पर देवी का स्थान था इसके बाद उस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण किया गया मंदिर में  देवी की मूर्ति की स्थापित है. बाद में राजा प्रताप सिंह ने 1912 में इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था.

खीर भवानी मंदिर महत्व | Kheer Bhawani Temple Importance

श्रीनगर में स्थित यह देवी मंदिर श्रद्धालुओं का पवित्र देवी धाम है यहाँ पर हर साल मेले का आयोजन किया जाता है देवी खीर भवानी मन्दिर में की उत्सवों का आयोजन किया जाता है जिनमें सभी लोग बहुत उत्साह के साथ भाग लेते हैं सालाना होने वाले उत्सव में हजारों हिंदू श्रद्धालु पहुंचते हैं.

ज्येष्ठ माह में शुक्लपक्ष की अष्टमी को यहाँ पर मेले का आयोजन भी होता है इस पूजा के समय दूर दूर से भक्त यहाँ पहुँचते है. अपनी मनोकामनाओं के पूर्ण होने की कामना करते हैं इस अवसर पर देवी पर दूध चढ़ाया जाता है. एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि  मंदिर के बाहर बड़ी संख्या में मुस्लिम दूधवाले इकट्ठा होते हैं जिनसे भक्त लोग दूध खरीदते हैं. वास्तव में यह उत्सव हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक भी बन गया है.
रामायण की विश्व यात्रा
भारत के इतिहास में राम जैसा विजेता कोई नहीं हुआ। उन्होंने रावण और उसके सहयोगी अनेक राक्षसों का वध कर के न केवल भारत में शांति की स्थापना की बल्कि सुदूर पूर्व और आस्ट्रेलिया तक में सुख और आनंद की एक लहर व्याप्त कर दी। श्री राम अदभुत सामरिक पराक्रम व्यवहार कुशलता और विदेश नीति के स्वामी थे। उन्होंने किसी देश पर अधिकार नहीं किया लेकिन विश्व के अनेकों देशों में उनकी प्रशंसा के
विवरण मिलते हैं जिससे पता चलता है कि उनकी लोकप्रियता दूर दूर तक फैली हुई थी।

आजकल मेडागास्कर कहे जाने वाले द्वीप से लेकर आस्ट्रेलिया तक के द्वीप समूह पर रावण का राज्य था। राम विजय के बाद इस सारे भू भाग पर राम की कीर्ति फैल गयी। राम के नाम के साथ रामकथा भी इस भाग में फैली और बरसों तक यहां के निवासियों के जीवन का प्रेरक अंग बनी रही।

श्री लंका और बर्मा में रामायण कई रूपों में प्रचलित है। लोक गीतों के अतिरिक्त रामलीला की तरह के नाटक भी खेले जाते हैं। बर्मा में बहुत से नाम राम के नाम पर हैं। रामावती नगर तो राम नाम के ऊपर ही स्थापित हुआ था।अमरपुर के एक विहार में राम लक्ष्मण सीता और हनुमान के चित्र आज तक अंकित हैं।

मलयेशिया में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहां मुस्लिम भी अपने नाम के साथ अक्सर राम लक्ष्मण और सीता नाम जोडते हैं।यहां रामायण को ''हिकायत सेरीराम'' कहते हैं।
थाईलैंड के पुराने रजवाडों में भरत की भांति राम की पादुकाएं लेकर राज्य करने की परंपरा पाई जाती है। वे सभी अपने को रामवंशी मनते थे।यहां ''अजुधिया'' ''लवपुरी'' और ''जनकपुर'' जैसे नाम वाले शहर हैं । यहां पर राम कथा को ''रामकीर्ति'' कहते हैं और मंदिरों में जगह जगह रामकथा के प्रसंग अंकित हैं।

हिन्द चीन के अनाम में कई शिलालेख मिले हैं जिनमें राम का यशोगान है। यहां के निवासियों में ऐसा विश्वास प्रचलित है कि वे वानर कुल से उत्पन्न हैं और श्रीराम नाम के राजा यहां के सर्वप्रथम शासक थे। रामायण पर आधारित कई नाटक यहां के साहित्य में भी मिलते है।
कम्बोडिया में भी हिन्दू सभ्यता के अन्य अंगों के साथ साथ रामायण का प्रचलन आज तक पाया जाता है। छढी शताब्दी के एक शिलालेख के अनुसार वहां कई स्थानों पर रामायण और महाभारत का पाठ होता था।

जावा में रामचंद्र राष्ट्रीय पुरूषोत्तम के रूप में सम्मानित हैं। वहां की सबसे बडी नदी का नाम सरयू है। ''रामायण'' के कई प्रसंगों के आधार पर वहां आज भी रात रात भर कठपुतलियों का नाच होता है। जावा के मंदिरों में वाल्मीकि रामायण के श्लोक जगह जगह अंकित मिलते हैं।
सुमात्रा द्वीप का वाल्मीकि रामायण में ''स्वर्णभूमि'' नाम दिया गया है। रामायण यहां के जनजीवन में वैसे ही अनुप्राणित है जैसे भारतवासियों के। बाली द्वीप भी थाईलैंड जावा और सुमात्रा की तरह आर्य संस्कृति का एक दूरस्थ सीमा स्तम्भ है। ''रामायण'' का प्रचार यहां भी घर घर में है।

इन देशों के अतिरिक्त फिलीपाइन चीन जापान और प्राचीन अमरीका तक राम कथा का प्रभाव मिलता है।

मैक्सिको और मध्य अमरीका की मय सभ्यता और इन्का सभ्यता पर प्राचीन भारतीय संस्कृति की जो छाप मिलती है उसमें रामायण कालीन संस्कारों का प्राचुर्य है। पेरू में राजा अपने को सूर्यवंशी ही नहीं ''कौशल्यासुत राम'' वंशज भी मानते हैं।''रामसीतव'' नाम से आज भी यहां ''राम सीता उत्सव'' मनाया जाता है।
इसके लिए भगवान् व गुरु से प्रार्थना करें कि

साधना के मार्ग पर बिना गुरु के चल पाना संभव नहीं है |साधन के दौरान होने वाले अनुभव का विशेषण गुरु ही कर पाता है और आगे का मार्गदर्शन तदनुरूप करते हैं ,|साधना में आने वाले विघ्न बाधाओं का निवारण गुरु द्वारा ही संभव हो पता है |कभी कभी ऐसे भी अवसर आते हैं की साधक विचलित होने लगता है और गुरु की अत्यंत आवश्यकता महसूस करता है |साधित होने वाली शक्ति को कैसे धारण किया जाए इसकी तकनिकी गुरु ही मार्गदर्शित करता है ,अगर मार्गदर्शन न मिले तो आई शक्ति न नियंत्रित अथवा धारण होने पर बिखर भी सकती है और ऊर्जा परिपथ को बिगाड़ भी सकती है |कभी कभी गुरु के ही मात्र कृपा से कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है और साधक आगे बढ़ जाता है |इसी तरह से ईष्ट की प्रबलता भी साधक को अत्यधिक प्रभावित करती है |ईष्ट की ऊर्जा के आसपास संघनित होते ही परिवर्तन शुरू हो जाते है और साधक में उनके प्रवेश से बदलाव और उन्नति आने लगती है |
जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है. वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा.
कभी कभी गुरु या ईष्ट देव अपने सूक्ष्म शरीर से साधक के शरीर में प्रवेश करते हैं और उसे प्रबुद्ध करते हैं. प्रारम्भ में साधक को यह महसूस होता है कि आसपास कोई है जो अदृश्य रूप से उसके साथ साथ चलता है. कभी कोई सुगंध, कभी कोई स्पर्श, कभी कोई ध्वनि सुनाई दे सकती है, जिसका पता आसपास के किसी आदमी को नहीं लगेगा, उनका कोई वास्तविक कारण प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देगा. इसके बाद जब यह अभ्यास दृढ हो जाता है तो शरीर का कोई अंग तेजी से अपने आप हिलना, रोकने की कोशिश करने पर भी नहीं रुकना और उस समय एक आनंद बना रहना, इस प्रकार के अनुभव होते हैं. तब साधक यह सोचता है कि यह क्या है? कहीं साधना में कुछ गलत तो नहीं हो रहा. यह किसी दैवीय शक्ति का प्रभाव है या आसुरी शक्ति का? तो इसका उत्तर है कि यदि दांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि दैवीय शक्ति का प्रभाव है और यदि बांया अंग हिले तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति का प्रभाव है और वह शरीर में प्रवेश करना चाहती है. साथ ही यदि एक आनंद बना रहे तो समझें कि दैवीय शक्ति प्रवेश करना चाहती है. किन्तु यदि क्रोध से आँखें लाल हो जाएँ, मन में बेचैनी जैसी हो तो समझना चाहिए कि आसुरी शक्ति है. इस प्रकार जब पहचान हो जाए तो यदि आसुरी शक्ति हो तो उसे बलपूर्वक रोकना चाहिए. इसके लिए भगवान् व गुरु से प्रार्थना करें कि वह इस आसुरी शक्ति से हमारी रक्षा करें व उसे सदा के लिए हमसे दूर हटा दें. यदि दैवीय शक्ति है तो आपको प्रयत्न करने पर शीघ्र ही यह पता लग जाएगा कि वे कौन हैं और आगे आपको क्या करना चाहिए 

Sunday, 29 June 2014

मुझे तपस्वी वेश की लाज रखनी थी

एक बहुरूपिया राजा भोज के दरबार में पहुंचा और उसने पांच मुद्राओं की दक्षिणा मांगी। भोज ने कहा, 'कलाकार को कला के प्रदर्शन पर पुरस्कार दिया जा सकता है लेकिन दक्षिणा (दान) नहीं।' बहुरूपिया स्वांग दिखाने के लिए तीन दिन का समय मांग चला गया। अगले दिन राजधानी के बाहर एक पहाड़ी पर एक जटाधारी तपस्वी को समाधि रूप में देख चरवाहों का समूह इकट्ठा हो गया।
किसी ने पूछा, 'महाराज, इस भूमि को पवित्र करने आप कहां से पधारे?' लेकिन तपस्वी ने न तो आंखें खोली और न अपने शरीर को रंचमात्र हिलाया। चरवाहों से उस तपस्वी का वर्णन सुन लोगों का जमघट उस पहाड़ी पर लग गया। दूसरे दिन भोज के प्रधानमंत्री दर्शनार्थ पहुंचे और तपस्वी के चरणों में रत्नों की थैली रख आशीर्वाद देने की प्रार्थना की, मगर बाबा पर कोई असर नहीं पड़ा। तीसरे दिन राजा भोज खुद तपस्वी के पास जा पहुंचे। उनके चरणों में अशर्फियां, फल-फूलों के साथ चढ़ाकर आशीर्वाद मांगते रह गए, लेकिन तपस्वी के मौन के समक्ष उन्हें भी निराश होकर वापस लौटना पड़ा।
चौथे दिन बहुरूपिये ने दरबार में उपस्थित होकर बताया कि तपस्वी का स्वांग उसी ने किया था। अब उसे पुरस्कार के रूप में पांच मुद्राएं दी जाएं। राजा भोज ने कहा- मूर्ख! मैंने स्वयं जाकर तेरे चरणों में हजारों अशर्फियां रखकर स्वीकार करने की प्रार्थना की, तब तो तूने आंख तक नहीं खोली और अब मात्र पांच मुद्राएं मांग रहा है।' बहुरूपिया बोला, 'महाराज! उस समय सारे वैभव तुच्छ थे। मुझे तपस्वी वेश की लाज रखनी थी। अब पेट की आग और कला का प्रदर्शन, अपने परिश्रम का पुरस्कार चाहता है।' राजा भोज दंग रह गए।
अर्जुन के दस नाम 

एक बार की बात है जब कौरवों ने नपुसंक वेषधारी पुरुष को रथ में चढ़कर शमीवृक्ष की तरफ जाते हुए देखा तो वे अर्जुन के आने की आशंका से मन ही मन बहुत डरे हुए थे। तब द्रोणाचार्य ने पितामह भीष्म से कहा गंगापुत्र यह जो स्त्रीवेष में दिखाई दे रहा है, वह अर्जुन सा जान पड़ता है। इधर अर्जुन रथ को शमी के वृक्ष के पास ले गए और उत्तर से बोले राजकुमार मेरी आज्ञा मानकर तुम जल्दी ही वृक्ष पर से धनुष उतारो। 

ये तुम्हारे धनुष के बाहुबल को सहन नहीं कर सकेंगे। उत्तर को वहां पांच धनुष दिखाई दिए। उत्तर पांडवों के उन धनुषों को लेकर नीचे उतारा और अर्जुन के आगे रख दिए। जब कपड़े में लपेटे हुए उन धनुषों को खोला तो सब ओर से दिव्य कांति निकली। तब अर्जुन ने कहा राजकुमार ये तो अर्जुन का गाण्डीव धनुष है। राजकुमार उत्तर ने नपुसंक का वेष धरे हुए अर्जुन से कहा अगर ये धनुष पांडवों के हैं तो पांडव कहां हैं? तब अर्जुन ने कहा मै अर्जुन हूं। उत्तर ने पूछा कि मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं? अगर तुम मुझे उन नामों का व उन नामों के कारण बता दो तो मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास हो सकता है।

उत्तर बोला- मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं? यदि तुम मुझे उन नामों का कारण सुना दो तो मुझे तुम्हारी बात का विश्वास हो जाएगा। अर्जुन ने कहा- मैं सारे देशों को जीतकर उनसे धन लाकर धन ही के बीच स्थित था इसलिए मेरा नाम धनंजय हुआ। मैं संग्राम में जाता हूं तो वहां से शत्रुओं को जीते बिना कभी नहीं लौटता हूं। इसलिए मेरा दूसरा नाम विजय है। मेरे रथ पर सुनहरे और श्वेत अश्व मेरे रथ में जोते जाते हैं इसलिए मैं श्वेतवाहन हूं। मैंने हिमालय पर जन्म लिया था इसलिए लोग मुझे फाल्गुन कहने लगे।


इंद्र ने मेरे सिर पर तेजस्वी किरीट पहनाया था, इसलिए मेरा नाम किरीट हुआ। मैं युद्ध करते समय भयानक काम नहीं करता इसीलिए में देवताओं के बीच बीभत्सु नाम से प्रसिद्ध हूं। गांडीव को खींचने में मेरे दोनों हाथ कुशल हैं इसलिए मुझे सव्य सांची नाम से पुकारते हैं। मेरे जैसा शुद्धवर्ण दुर्लभ है और मैं शुद्ध कर्म ही करता हूं। इसलिए लोग मुझे अर्जुन नाम से जानते हैं। मैं दुर्जय का दमन करने वाला हूं। इसलिए मेरा नाम जिष्णु है। मेरा दसवां नाम कृष्ण पिताजी का रखा हुआ है क्योंकि मेरा वर्ण श्याम और गौर के बीच का है।

Saturday, 28 June 2014

ॐ जीवं रक्ष

                     स्वर विज्ञानं से कैसे बनायें अपने जीवन को सुखद 
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सवेरे नींद से जगते ही नासिका से स्वर देखें। जिस तिथि को जो स्वर होना चाहिए, वह हो तो बिस्तर पर उठकर स्वर वाले नासिका छिद्र की तरफ के हाथ की हथेली का चुम्बन ले लें और उसी दिशा में मुंह पर हाथ फिरा लें। यदि बांये स्वर का दिन हो तो बिस्तर से उतरते समय बांया पैर जमीन पर रखकर नीचे उतरें, फिर दायां पैर बांये से मिला लें और इसके बाद दुबारा बांया पैर आगे निकल कर आगे बढ़ लें। यदि दांये स्वर का दिन हो और दांया स्वर ही निकल रहा हो तो बिस्तर पर उठकर दांयी हथेली का चुम्बन ले लें और फिर बिस्तर से जमीन पर पैर रखते समय पर पहले दांया पैर जमीन पर रखें और आगे बढ़ लें। यदि जिस तिथि को स्वर हो, उसके विपरीत नासिका से स्वर निकल रहा हो तो बिस्तर से नीचे नहीं उतरें और जिस तिथि का स्वर होना चाहिए उसके विपरीत करवट लेट लें। इससे जो स्वर चाहिए, वह शुरू हो जाएगा और उसके बाद ही बिस्तर से नीचे उतरें।
स्नान, भोजन, शौच आदि के वक्त दाहिना स्वर रखें।
पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने, अच्छे काम करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए। जब शरीर अत्यधिक गर्मी महसूस करे तब दाहिनी करवट लेट लें और बांया स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठण्ढक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा। जिस किसी व्यक्ति से कोई काम हो, उसे अपने उस तरफ रखें जिस तरफ की नासिका का स्वर निकल रहा हो। इससे काम निकलने में आसानी रहेगी। जब नाक से दोनों स्वर निकलें, तब किसी भी अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। इस समय ध्यान करें तो ध्यान जल्दी लगेगा।
दक्षिणायन शुरू होने के दिन प्रातःकाल जगते ही यदि चन्द्र स्वर हो तो पूरे छह माह अच्छे गुजरते हैं। इसी प्रकार उत्तरायण शुरू होने के दिन प्रातः जगते ही सूर्य स्वर हो तो पूरे छह माह बढ़िया गुजरते हैं। कहा गया है - कर्के चन्द्रा, मकरे भानु।
रोजाना स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, पहले स्वर देखें और जिस तरफ स्वर चल रहा हो उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें और साथ में यह मंत्र बोलते जाएं - ॐ जीवं रक्ष। इससे दुर्घटनाओं का खतरा हमेशा के लिए टल जाता है। आप घर में हो या आफिस में, कोई आपसे मिलने आए और आप चाहते हैं कि वह ज्यादा समय आपके पास नहीं बैठा रहे। ऎसे में जब भी सामने वाला व्यक्ति आपके कक्ष में प्रवेश करे उसी समय आप अपनी पूरी साँस को बाहर निकाल फेंकियें, इसके बाद वह व्यक्ति जब आपके करीब आकर हाथ मिलाये, तब हाथ मिलाते समय भी यही क्रिया गोपनीय रूप से दोहरा दें। आप देखेंगे कि वह व्यक्ति आपके पास ज्यादा बैठ नहीं पाएगा, कोई न कोई ऎसा कारण उपस्थित हो जाएगा कि उसे लौटना ही पड़ेगा। इसके विपरीत आप किसी को अपने पास ज्यादा देर बिठाना चाहें तो कक्ष प्रवेश तथा हाथ मिलाने की क्रियाओं के वक्त सांस को अन्दर खींच लें। आपकी इच्छा होगी तभी वह व्यक्ति लौट पाएगा। 
कई बार ऐसे अवसर आते हैं, जब कार्य अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन स्वर विपरीत चल रहा होता है। ऐसे समय में स्वर की प्रतीक्षा करने पर उत्तम अवसर हाथों से निकल सकता है, अत: स्वर परिवर्तन के द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए प्रस्थान करना चाहिए या कार्य प्रारंभ करना चाहिए। स्वर विज्ञान का सम्यक ज्ञान आपको सदैव अनुकूल परिणाम प्रदान करवा सकता है।
गुप्त-सप्तशती
सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती, का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है। प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके बाद ‘गुप्त-सप्तशती’, तदन्तर ‘स्तवन‘ का पाठ करे।
कुञ्जिका-स्तोत्र
।।पूर्व-पीठिका-ईश्वर उवाच।।
श्रृणु देवि, प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका-मन्त्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेन चण्डीजापं शुभं भवेत्‌॥1॥
न वर्म नार्गला-स्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासं च न चार्चनम्‌॥2॥
कुञ्जिका-पाठ-मात्रेण दुर्गा-पाठ-फलं लभेत्‌।
अति गुह्यतमं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्व-योनि-वच्च पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठ-मात्रेण संसिद्धिः कुञ्जिकामन्त्रमुत्तमम्‌॥ 4॥
अथ मंत्र
ॐ श्लैं दुँ क्लीं क्लौं जुं सः ज्वलयोज्ज्वल ज्वल प्रज्वल-प्रज्वल प्रबल-प्रबल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
इस ‘कुञ्जिका-मन्त्र’ का यहाँ दस बार जप करे। इसी प्रकार ‘स्तव-पाठ’ के अन्त में पुनः इस मन्त्र का दस बार जप कर ‘कुञ्जिका स्तोत्र’ का पाठ करे।
।।कुञ्जिका स्तोत्र मूल-पाठ।।
नमस्ते रुद्र-रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमस्ते कैटभारी च, नमस्ते महिषासनि॥
नमस्ते शुम्भहंत्रेति, निशुम्भासुर-घातिनि।
जाग्रतं हि महा-देवि जप-सिद्धिं कुरुष्व मे॥
ऐं-कारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रति-पालिका॥
क्लीं-कारी कामरूपिण्यै बीजरूपा नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्ड-घाती च यैं-कारी वर-दायिनी॥
विच्चे नोऽभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि॥
धां धीं धूं धूर्जटेर्पत्नी वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं मे शुभं कुरु, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।
ॐ ॐ ॐ-कार-रुपायै, ज्रां-ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि, शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं-काररूपिण्यै ज्रं ज्रं ज्रम्भाल-नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवानि ते नमो नमः॥7॥
।।मन्त्र।।
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव, आविर्भव, हं सं लं क्षं मयि जाग्रय-जाग्रय, त्रोटय-त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा॥
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुञ्जिकायै नमो नमः।।
सां सीं सप्तशती-सिद्धिं, कुरुष्व जप-मात्रतः॥
इदं तु कुञ्जिका-स्तोत्रं मंत्र-जाल-ग्रहां प्रिये।
अभक्ते च न दातव्यं, गोपयेत् सर्वदा श्रृणु।।
कुंजिका-विहितं देवि यस्तु सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिं, अरण्ये रुदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ । 
गुप्त-सप्तशती
ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।।१
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।।२
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।।३
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।।४
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।।५
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।।६
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।।७
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।।८
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।।९
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।।१०
स्तवन
या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।१
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।२
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।३
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।४
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।५
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।६
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।७
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।।८
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।।९
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।।१०
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।।११
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।।१२
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देवि दुर्गा।।१३
सर्व-कामना-सिद्धि स्तोत्र
श्री हिरण्य-मयी हस्ति-वाहिनी, सम्पत्ति-शक्ति-दायिनी।
मोक्ष-मुक्ति-प्रदायिनी, सद्-बुद्धि-शक्ति-दात्रिणी।।१
सन्तति-सम्वृद्धि-दायिनी, शुभ-शिष्य-वृन्द-प्रदायिनी।
नव-रत्ना नारायणी, भगवती भद्र-कारिणी।।२
धर्म-न्याय-नीतिदा, विद्या-कला-कौशल्यदा।
प्रेम-भक्ति-वर-सेवा-प्रदा, राज-द्वार-यश-विजयदा।।३
धन-द्रव्य-अन्न-वस्त्रदा, प्रकृति पद्मा कीर्तिदा।
सुख-भोग-वैभव-शान्तिदा, साहित्य-सौरभ-दायिका।।४
वंश-वेलि-वृद्धिका, कुल-कुटुम्ब-पौरुष-प्रचारिका।
स्व-ज्ञाति-प्रतिष्ठा-प्रसारिका, स्व-जाति-प्रसिद्धि-प्राप्तिका।।५
भव्य-भाग्योदय-कारिका, रम्य-देशोदय-उद्भाषिका।
सर्व-कार्य-सिद्धि-कारिका, भूत-प्रेत-बाधा-नाशिका।
अनाथ-अधमोद्धारिका, पतित-पावन-कारिका।
मन-वाञ्छित॒फल-दायिका, सर्व-नर-नारी-मोहनेच्छा-पूर्णिका।।७
साधन-ज्ञान-संरक्षिका, मुमुक्षु-भाव-समर्थिका।
जिज्ञासु-जन-ज्योतिर्धरा, सुपात्र-मान-सम्वर्द्धिका।।८
अक्षर-ज्ञान-सङ्गतिका, स्वात्म-ज्ञान-सन्तुष्टिका।
पुरुषार्थ-प्रताप-अर्पिता, पराक्रम-प्रभाव-समर्पिता।।९
स्वावलम्बन-वृत्ति-वृद्धिका, स्वाश्रय-प्रवृत्ति-पुष्टिका।
प्रति-स्पर्द्धी-शत्रु-नाशिका, सर्व-ऐक्य-मार्ग-प्रकाशिका।।१०
जाज्वल्य-जीवन-ज्योतिदा, षड्-रिपु-दल-संहारिका।
भव-सिन्धु-भय-विदारिका, संसार-नाव-सुकानिका।।११
चौर-नाम-स्थान-दर्शिका, रोग-औषधी-प्रदर्शिका।
इच्छित-वस्तु-प्राप्तिका, उर-अभिलाषा-पूर्णिका।।१२
श्री देवी मङ्गला, गुरु-देव-शाप-निर्मूलिका।
आद्य-शक्ति इन्दिरा, ऋद्धि-सिद्धिदा रमा।।१३
सिन्धु-सुता विष्णु-प्रिया, पूर्व-जन्म-पाप-विमोचना।
दुःख-सैन्य-विघ्न-विमोचना, नव-ग्रह-दोष-निवारणा।।१४

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवता-स्वरुपिणी श्रीमहा-माया महा-देवी महा-शक्ति महालक्ष्म्ये नमो नमः।
ॐ ह्रीं श्रीपर-ब्रह्म परमेश्वरी। भाग्य-विधाता भाग्योदय-कर्त्ता भाग्य-लेखा भगवती भाग्येश्वरी ॐ ह्रीं।
कुतूहल-दर्शक, पूर्व-जन्म-दर्शक, भूत-वर्तमान-भविष्य-दर्शक, पुनर्जन्म-दर्शक, त्रिकाल-ज्ञान-प्रदर्शक, दैवी-ज्योतिष-महा-विद्या-भाषिणी त्रिपुरेश्वरी। अद्भुत, अपुर्व, अलौकिक, अनुपम, अद्वितीय, सामुद्रिक-विज्ञान-रहस्य-रागिनी, श्री-सिद्धि-दायिनी। सर्वोपरि सर्व-कौतुकानि दर्शय-दर्शय, हृदयेच्छित सर्व-इच्छा पूरय-पूरय ॐ स्वाहा।
ॐ नमो नारायणी नव-दुर्गेश्वरी। कमला, कमल-शायिनी, कर्ण-स्वर-दायिनी, कर्णेश्वरी, अगम्य-अदृश्य-अगोचर-अकल्प्य-अमोघ-अधारे, सत्य-वादिनी, आकर्षण-मुखी, अवनी-आकर्षिणी, मोहन-मुखी, महि-मोहिनी, वश्य-मुखी, विश्व-वशीकरणी, राज-मुखी, जग-जादूगरणी, सर्व-नर-नारी-मोहन-वश्य-कारिणी, मम करणे अवतर अवतर, नग्न-सत्य कथय-कथय।
अतीत अनाम वर्तनम्। मातृ मम नयने दर्शन। ॐ नमो श्रीकर्णेश्वरी देवी सुरा शक्ति-दायिनी। मम सर्वेप्सित-सर्व-कार्य-सिद्धि कुरु-कुरु स्वाहा। ॐ श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया महा-शक्ति महा-लक्ष्मी महा-देव्यै विच्चे-विच्चे श्रीमहा-देवी महा-लक्ष्मी महा-माया महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ।
ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः। ॐ श्री ऐरावत-हस्ति-वाहिन्यै नमः। ॐ श्री कल्प-वृक्ष-फल-भक्षिण्यै नमः। ॐ श्री काम-दुर्गा पयः-पान-कारिण्यै नमः। ॐ श्री नन्दन-वन-विलासिन्यै नमः। ॐ श्री सुर-गंगा-जल-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री मन्दार-सुमन-हार-शोभिन्यै नमः। ॐ श्री देवराज-हंस-लालिन्यै नमः। ॐ श्री अष्ट-दल-कमल-यन्त्र-रुपिण्यै नमः। ॐ श्री वसन्त-विहारिण्यै नमः। ॐ श्री सुमन-सरोज-निवासिन्यै नमः। ॐ श्री कुसुम-कुञ्ज-भोगिन्यै नमः। ॐ श्री पुष्प-पुञ्ज-वासिन्यै नमः। ॐ श्री रति-रुप-गर्व-गञ्हनायै नमः। ॐ श्री त्रिलोक-पालिन्यै नमः। ॐ श्री स्वर्ग-मृत्यु-पाताल-भूमि-राज-कर्त्र्यै नमः।
श्री लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीदेवी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री रसेश्वरी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री ऋद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री सिद्धि-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कीर्तिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रीतिदा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीइन्दिरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्री कमला-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहिरण्य-वर्णा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरत्न-गर्भा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुवर्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुप्रभा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपङ्कनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीराधिका-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्म-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरमा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलज्जा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीजया-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसरोजिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीहस्तिवाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीगरुड़-वाहिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसिंहासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकमलासन-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपुष्टिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतुष्टिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवृद्धिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपालिनी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीतोषिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीरक्षिणी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीवैष्णवी-यन्त्रेभ्यो नमः।
श्रीमानवेष्टाभ्यो नमः। श्रीसुरेष्टाभ्यो नमः। श्रीकुबेराष्टाभ्यो नमः। श्रीत्रिलोकीष्टाभ्यो नमः। श्रीमोक्ष-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीभुक्ति-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीकल्याण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीनवार्ण-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीअक्षस्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीसुर-स्थान-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीप्रज्ञावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीपद्मावती-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीशंख-चक्र-गदा-पद्म-धरा-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीमहा-लक्ष्मी-यन्त्रेभ्यो नमः। श्रीलक्ष्मी-नारायण-यन्त्रेभ्यो नमः। ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं श्रीमहा-माया-महा-देवी-महा-शक्ति-महा-लक्ष्मी-स्वरुपा-श्रीसर्व-कामना-सिद्धि महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः।
ॐ विष्णु-पत्नीं, क्षमा-देवीं, माध्वीं च माधव-प्रिया। लक्ष्मी-प्रिय-सखीं देवीं, नमाम्यच्युत-वल्लभाम्। ॐ महा-लक्ष्मी च विद्महे विष्णु-पत्नि च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात्। मम सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु-कुरु स्वाहा।

विधिः-
१॰ उक्त सर्व-कामना-सिद्धी स्तोत्र का नित्य पाठ करने से सभी प्रकार की कामनाएँ पूर्ण होती है।
२॰ इस स्तोत्र से ‘यन्त्र-पूजा’ भी होती हैः-
‘सर्वतोभद्र-यन्त्र’ तथा ‘सर्वारिष्ट-निवारक-यन्त्र’ में से किसी भी यन्त्र पर हो सकती है। ‘श्रीहिरण्यमयी’ से लेकर ‘नव-ग्रह-दोष-निवारण’- १४ श्लोक से इष्ट का आवाहन और स्तुति है। बाद में “ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं” सर्व कामना से पुष्प समर्पित कर धऽयान करे और यह भावना रखे कि- ‘मम सर्वेप्सितं सर्व-कार्य-सिद्धिं कुरु कुरु स्वाहा।’
फिर अनुलोम-विलोम क्रम से मन्त्र का जप करे-”ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीमहा-माया-महा-शक्त्यै क्लीं ह्रीं ऐं श्रीं ॐ।”
स्वेच्छानुसार जप करे। बाद में “ॐ श्रीपारिजात-पुष्प-गुच्छ-धरिण्यै नमः” आदि १६ मन्त्रों से यन्त्र में, यदि षोडश-पत्र हो, तो उनके ऊपर, अन्यथा यन्त्र में पूर्वादि-क्रम से पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। तदनन्तर ‘श्रीलक्ष्मी-तम्त्रेभ्यो नमः’ और ‘श्री सर्व-कामना-सिद्धि-महा-यन्त्र-देवताभ्यो नमः’ से अष्टगन्ध या जो सामग्री मिले, उससे ‘यन्त्र’ में पूजा करे। अन्त में ‘लक्ष्मी-गायत्री’ पढ़करपुष्पाजलि देकर विसर्जन करे।
»»»»»»»»»»»»»»»»नवरात्र«««««««««««««««
नवरात्र शब्द संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवानां रात्रीणां समाहारः ---ऐसा विग्रह करके तद्धितीय अच् प्रत्यय, द्विगु समास होने पर एकवद्भाव तथा " स नपुंसकम्" -पाणिनिसुत्र--2/4/17. से नपुंसक लिंग होकर "नवरात्रम्" शब्द बनता है । यह शब्द पुल्लिंग नही है और नवरात्रि या नवरात्रा अथवा नवरात्री कहना व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है । "नवरात्र" कहना ही शास्त्रसम्मत है। यह शब्द विशेषरूप से " आश्विन शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से नवमी" तक किये जाने वाले माँ दुर्गा के व्रतविशेष में रूढ है।
प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है, इसलिए दीपावली, होलिका, शिवरात्रि और नवरात्र आदि उत्सवों को रात में ही मनाने की परंपरा है।
मनीषियों ने वर्ष में दो बार नवरात्रों का विधान बनाया है। विक्रम संवत के पहले दिन अर्थात चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा (पहली तिथि) से नौ दिन अर्थात नवमी तक । ठीक इसी प्रकार आश्विन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी अर्थात् विजया दशमी के एक दिन पूर्व तक। परंतु सिद्धि और साधना की दृष्टि से दोनो नवरात्रों का विशेष महत्व होने पर भी शारदीय नवरात्र की प्रधानता देवी उपासना के लिए अधिक महत्व है । इस समय साधक अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति का संचय करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन आदि विविध प्रकार की साधनायें करते हैं। विशिष्ट साधक इस समय रात्रि 9बजे से2 के बीच बैठकर भगवती महाशक्ति कुण्डलिनी के जगाने का अथक प्रयास करते हैं।
विशेषकर इस नवरात्र में शक्ति के 51 महापीठों पर भक्तजन बड़े उत्साह से भगवती की उपासना के लिए एकत्र होते हैं। जो उपासक इन शक्ति पीठों पर नहीं पहुंच पाते, वे अपने आवास पर ही शक्ति का आवाहन करके उपासना सम्पन्न कर लेते हैं
रात्रि में प्रकृति के बहुत सारे अवरोध खत्म हो जाते हैं। आधुनिक विज्ञान भी इस बात से सहमत है। हमारे ऋषि - मुनि आज से कितने ही हजारों वर्ष पूर्व ही प्रकृति के इन वैज्ञानिक रहस्यों को जान चुके थे।
दिन में आवाज दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाएगी , किंतु रात्रि को आवाज दी जाए तो वह बहुत दूर तक जाती है। इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं। रेडियो इस बात का जीता - जागता उदाहरण है। कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है , जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है।
वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि सूर्य की किरणें दिन के समय रेडियो तरंगों को जिस प्रकार रोकती हैं , उसी प्रकार मंत्र जप की विचार तरंगों में भी दिन के समय रुकावट पड़ती है। इसीलिए ऋषि - मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है। मंदिरों में घंटे और शंख की आवाज के कंपन से दूर - दूर तक वातावरण कीटाणुओं से रहित हो जाता है। यह रात्रि का वैज्ञानिक रहस्य है। जो इस वैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए रात्रि में संकल्प और उच्च अवधारणा के साथ अपने शक्तिशाली विचार तरंगों को वायुमंडल में भेजते हैं , उनकी कार्य अवश्य सिद्ध होता है।
»»»»»»»»» नवरात्र की आवश्यकता«««««««««««
पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुध्द रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली सारी क्रियाओं के लिए "नवरात्र" परमावश्यक है। हमारे शरीर में 9 द्वार है जिससे हम सब कार्य करते हैंऔर उसके लिए जो ऊर्जा तथा दृढ़संकल्प आदि आवश्यक हैं। उनका समूह ही दुर्गा माँ हैं । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की संचालिका एक मात्र यही महाशक्ति है । जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है। इनकी उपासना से हम सभी इन्द्रियों में अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के लिए तथा शरीर रूपी यन्त्र को सुव्यवस्थित क्रियाशील रखने के लिए 9 द्वारों की शुध्दि 9 दिनों में 9 दुर्गाओं की उपासना के रूप में करते हैं। शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुध्दि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुध्दि, साफ सुथरे शरीर में शुध्द बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुध्द होता है। स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
»»»»»»»»» नव दुर्गा««««««««
9द्वार वाले शरीर को पूर्ण क्रियाशील बनाकर अपने परम लक्ष्य मोक्ष तक पहुंचने में ही इन 9 स्वरूपों की उपासना का तात्पर्य है । सांसारिक फल तो माँ विना मांगे ही दे देंगी जो हमें आवश्यक होगा । अपना हित अपने से अधिक इष्ट देवता को होता है केवल विश्वास की कमी से ही भटकाव है। इनके 9 स्वरूप हैं ----
1. शैलपुत्री
2. ब्रह्मचारिणी
3. चंद्रघण्टा
4. कूष्माण्डा
5. स्कन्दमाता
6. कात्यायनी
7. कालरात्रि
8. महागौरी
9. सिध्दिदात्री
इनका 9 जड़ी बूटी या विशेष व्रत की वस्तुओं से भी सम्बंध है, जिन्हे नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है-
1. कुट्टू (शैलान्न)
2. दूध-दही,
3. चौलाई (चंद्रघंटा)
4. पेठा (कूष्माण्डा)
5. श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
6. हरी तरकारी (कात्यायनी)
7. काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि)
8. साबूदाना (महागौरी)
9. आंवला(सिध्दिदात्री)
क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।
नवरात्र में कन्यापूजन का बड़ा महत्व है। पहले दिन 1,2रे दिन --2, 3रे दिन 3,इस प्रकार तिथि के अनुसार एक एक कन्या की संख्या बढ़ाते हुए 9वें दिन 9 कन्याओं का पूजन करने से माँ भगवती अधिक प्रसन्न होती है। अथवा प्रतिपदा (पड़वा) को 1 कन्या की पूजा पुनः द्वितीया को उससे दुगनी या तिगुनी संख्या में कन्यापूजन करें । 3रेदिन 6 या9,4थेदिन 24या 36 इस तररह संख्या बढ़ायें ।
अथवा प्रतिपदा से नवमी तक प्रत्येक तिथि को 9--9 कन्यायों की पूजा की जाय। 2वर्ष से लेकर 10 वर्ष की कन्या का पूजन करना चाहिए । 1वर्ष की या 10 वर्ष से अधिक का नही ।
एक वर्ष की कन्या को गन्ध पुष्प आदि में प्रेम नही होता और 10 वर्ष के बाद वाली को रजस्वला में गिना गया है । ---हेमाद्रि में स्कन्दपुराण का वचन ।
आज हम जिनकी पूजा से भगवती की पूजा पूर्ण होती है उन्ही का गर्भ में हत्या कर रहे हैं । अरे मानवों यदि तुम कन्यापूजन न कर सको तो न करो । कन्या भ्रूण की सुरक्षा करो इसी से तुम्हे कन्यापूजन का फल भगवती दे देगी और यदि इस कुकृत्य से नही रुके तो हे महिषासुरों तुम्हारे विनाश को कोई भी शक्ति नही रोक सकती ।

नवरात्र की प्रत्येकतिथि के लिए कुछ साधनज्ञानियो द्वारा नियतकिये गये है .....
प्रतिपदा - इसेशुभेच्छा कहते है । जो प्रेमजगाती है प्रेम बिना सबसाधन व्यर्थ है , अस्तुप्रेम को अबिचल अडिगबनाने हेतुशैलपुत्री का आवाहन पूजनकिया जाता है । अचलपदार्थो मे पर्वत सर्वाधिक अटल होता है ।
द्वितीया - धैर्यपूर्वकद्वैतबुद्धि का त्याग करकेब्रह्मचर्य का पालन करतेहुएमाँ ब्रह्मचारिणी का पूजनकरना चाहिए ।
तृतीया - त्रिगुणातीत(सत , रज ,तम से परे)होकरमाँ चन्द्रघण्टा का पूजनकरते हुए मनकी चंचलता को बश मेँकरना चाहिए ।
चतुर्थी - अन्तःकरणचतुष्टय मन ,बुद्धि ,चित्त एवं अहंकारका त्याग करते हुए मन,बुद्धि को कूष्माण्डा देवी केचरणोँ मेँ अर्पित करेँ ।
पंचमी - इन्द्रियो के पाँचविषयो अर्थात् शब्द रुपरस गन्ध स्पर्श का त्यागकरते हुएस्कन्दमाता का ध्यान करेँ ।
षष्ठी - काम क्रोध मदमोह लोभ एवं मात्सर्यका परित्याग करकेकात्यायनी देवी का ध्यानकरे ।
सप्तमी - रक्त , रस माँसमेदा अस्थि मज्जा एवंशुक्र इन सप्त धातुओ सेनिर्मित क्षण भंगुर दुर्लभमानव देह को सार्थककरने के लिएकालरात्रि देवी की आराधना करेँ ।
अष्टमी - ब्रह्मकी अष्टधा प्रकृति पृथ्वी जलअग्नि वायु आकाश मनबुद्धि एवं अहंकार से परेमहागौरी के स्वरुपका ध्यान करता हुआब्रह्म से एकाकार होनेकी प्रार्थना करे ।
नवमी -माँ सिद्धिदात्री की आराधना सेनवद्वार वाले शरीरकी प्राप्ति को धन्यबनाता हुआ आत्मस्थहो जाय ।.......

पौराणिक दृष्टि सेआठ लोकमाताएँ हैंतथा तन्त्रग्रन्थोँ मेँ आठशक्तियाँ है...,

1 ब्राह्मी -सृष्टिक्रिया प्रकाशितकरती है ।
2 माहेश्वरी - यह प्रलयशक्ति है ।
3 कौमारी -आसुरी वृत्तियोँ का दमनकरके दैवीयगुणोँ की रक्षा करती है ।
4 वैष्णवी -सृष्टि का पालन करती है।
5 वाराही - आधारशक्ति है इसे कालशक्ति कहते है ।
6 नारसिंही - ये ब्रह्मविद्या के रुप मेँ ज्ञानको प्रकाशित करती है|
7 ऐन्द्री - ये विद्युतशक्ति के रुप मेँ जीव केकर्मो को प्रकाशितकरती है ।
8 चामुण्डा -पृवृत्ति (चण्ड)निवृत्ति (मुण्ड)का विनाश करने वाली है।...

आठ आसुरी शक्तियाँ -

1 मोह - महिषासुर
2 काम - रक्तबीज
3 क्रोध - धूम्रलोचन
4 लोभ - सुग्रीव
5 मद मात्सर्य - चण्डमुण्ड
6 राग द्वेष - मधु कैटभ
7 ममता - निशुम्भ
8 अहंकार - शुम्भ,...

अष्टमी तिथि तक इनदुगुर्णो रुपी दैत्यो का संहारकरकेनवमी तिथि को प्रकृति पुरुषका एकाकारहोना ही नवरात्रका आध्यात्मिक रहस्य है ।

नवरात्रि (नव + रात्रि ) (अर्थार्त नौ दिव्य रात्रियों ) का पावन पर्व प्रतिवर्ष दो बार आता है - चैत्र और आश्विन मास में | नवरात्रि में हम "शक्ति" की आराधना करते हैं , जिनको हम 'देवी' या 'दुर्गा' भी कहते हैं | माना जाता है कि यह "शक्ति" वह ऊर्जा हैं , जो भगवान को सृजन, संरक्षण और विनाश के कार्य को आगे बढ़ाने में मदद करती हैं |
सच कहूँ तो, शक्ति की पूजा एक वैज्ञानिक सिद्धांत है जो पुष्टि करता है कि " समस्त ऊर्जा अविनाशी है, उसे न तो बनाया जा सकता है और ना ही नष्ट किया जा सकता है. यह हमेशा वहीँ विद्यमान है " |

हम क्यों देवी माँ की पूजा करें ?

हमें लगता है कि इस ऊर्जा का मूर्त रूप, एक दिव्य माँ के समान है , जो कि जगतजननी है और जिसकी हम सब संताने हैं | यहाँ आप यह भी पूँछ सकते हैं कि "माँ ही क्यों, पिता क्यों नहीं ?" इस पर मुझे बस यह कहना है कि परमेश्वर भगवान की महिमा, उनकी दिव्य ऊर्जा, उसकी महानता और उनका वर्चस्व; सबसे उत्तम प्रकार से केवल और केवल माँ कि मम्मत्व के रूप में ही दर्शाया जा सकता है | जब कभी भी हमको भगवान के इन गुणों कि आवश्यकता होती है , हम भगवान को एक माँ के रूप में देखते हैं | वास्तव में, हिंदू धर्म दुनिया का एकमात्र धर्म है, जो भगवान के मम्मत्व रूप को इतना महत्व देता है, क्योंकि हम मानते हैं कि केवल माँ ही इतनी रचनात्मक हो सकती हैं |

हमें शक्ति की आवश्यकता क्यों पड़ती है?

विश्व में किसे किसी न किसी रूप में शक्ति की आवश्यकता नहीं होती है ? माँ हमें उचित मात्रा में धन, सुख-समृद्धि, ज्ञान, और अन्य शक्तियों प्रदान करें , जिससे हम जीवन की हर बाधा को पार कर सकें | इसलिए हमें अपने माता पिता, बंधू बांधवों के साथ नवरात्रि में माँ की पूजा करनी चाहिए |

नौ ही क्यो ?
........... भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे प्रकृतिरष्टधा ।
कहकर भगवान ने आठ प्रकृतियोँ का प्रतिपादन किया है इनसे परे केवल ब्रह्म ही है अर्थात् आठ प्रकृति एवं एक ब्रह्म ये नौ हुए जो परिपूर्णतम है -

नौ देवियाँ , शरीर के नौ छिद्र , नवधा भक्ति , नवरात्र ये सभी पूर्ण हैँ

नौ के अतिरिक्त संसार मे कुछ नहीँ है इसके अतिरिक्त जो है वह शून्य (0) है ।

इसीलिए तुलसी जी ने नौ दोहो चौपाईयो मे नाम वन्दना की है ..

किसी भी अंक को नौ से गुणाकरने पर गुणन फल का योग नौ ही होता है .,....

अतः नौ ही परिपूर्ण है ।