तर्पण से पितरों को करें तृप्त
श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है। सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती। सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है। ऐसे में पितरों को केवल श्रद्धा की ही आ कांक्षा होती है। इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसीलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध एवं तर्पण किए जाते हैं। इन क्रियाओं का विधि-विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी उसे आसानी से संपन्न कर सकता है।
हां, इन पितृ-कर्मों को करने के दौरान दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें। उनके प्रति कृतज्ञता तथा सम्मान की भावना रखें। इस प्रकार की भावनाएं जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ïित मिलेगी। तर्पण को छ: भागों में विभक्ïत किया गया है-
1. देव तर्पण
2. ऋषि तर्पण
3. दिव्य मानव तर्पण
4. दिव्य पितृ तर्पण
5. यम तर्पण
6. मनुष्य पितृ तर्पण
देव तर्पणम्
दोनों हाथों की अनामिका अंगुलियों में पवित्री धारण करें।
ऊं आगच्छन्तु महाभागा: विश्वेदेवा महाबला:।
ये तपर्णेऽत्र विहिता: सावधाना भवन्तु ते॥
जल में चावल डालें। कुश-मोटक सीधे ही लें। यज्ञोपवीत सव्य (बायें कंधे पर) सामान्य स्थिति में रखें। तर्पण के समय अंजलि में जल भरकर सभी अंगुलियों के अग्र भाग के सहारे अर्पित करें। इसे देवतीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक देवशक्ïित के लिए पूर्वाभिमुख होकर एक-एक अंजलि जल डालें।
ऊं ब्रह्मादयो देवा: आगच्छन्तु गृöन्तु एतान् जलाञ्जलीनï्।
ऊं ब्रह्म तृप्यताम्।
ऊं विष्णुस्तृप्यताम्।
ऊं रुद्रस्तृप्यताम्।
ऊं प्रजापतितृप्यताम्।
ऊं देवास्तृप्यताम्।
ऊं छन्दांसि तृप्यन्ताम्।
ऊं वेदास्तृप्यन्ताम्।
ऊं ऋषयस्तृप्यन्ताम्।
ऊं पुराणाचायार्स्तृप्यन्ताम्।
ऊं गन्धवार्स्तृप्यन्ताम्।
ऊं इतराचायार्स्तृप्यन्ताम्।
ऊं संवत्सर: सावयवस्तृप्यन्ताम्।
ऊं देव्यस्तृप्यन्ताम्।
ऊं अप्सरसस्तृप्यन्ताम्।
ऊं देवानुगास्तृप्यन्ताम्।
ऊं नागास्तृप्यन्ताम्।
ऊं सागरास्तृप्यन्ताम्।
ऊं पवर्तास्तृप्यन्ताम्।
ऊं सरितस्तृप्यन्ताम्।
ऊं मनुष्यास्तृप्यन्ताम्।
ऊं यक्षास्तृप्यन्ताम्।
ऊं रक्षांसि तृप्यन्ताम्।
ऊं पिशाचास्तृप्यन्ताम्।
ऊं सुपर्णास्तृप्यन्ताम्।
ऊं भूतानि तृप्यन्ताम्।
ऊं पशवस्तृप्यन्ताम्।
ऊं वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्।
ऊं ओषधयस्तृप्यन्ताम्।
ऊं भूतग्राम: चतुविर्धस्तृप्यन्ताम्।
ऋषि तर्पण
ऋषियों को भी देवताओं की तरह देवतीर्थ से एक-एक अंजलि जल दिया जाता है।
ऊं मरीच्यादि दशऋषय: आगच्छन्तु गृöन्तु एतान्जलाञ्जलीन्।
ऊं मरीचिस्तृप्याताम्।
ऊं अत्रिस्तृप्यताम्।
ऊं अंगिरा: तृप्यताम्।
ऊं पुल: स्तृप्यताम्।
ऊं पुलस्त्यस्तृप्यताम्।
ऊं वसिष्ठस्तृप्यताम्।
ऊं क्रतुस्तृप्यताम्।
ऊं प्रचेतास्तृप्यताम्।
ऊं भृगुस्तृप्यताम्।
ऊं नारदस्तृप्यताम्।
दिव्य-मनुष्य तर्पण
तीसरा तर्पण दिव्य मानवों के लिए है। राजा हरिश्चंद्र, रन्तिदेव, शिवि, जनक, पाण्डव, शिवाजी, महाराणा प्रताप, भामाशाह, तिलक जैसे महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं। दिव्य मनुष्य तर्पण उत्तराभिमुख किया जाता है। जल में जौ डालें। जनेऊ कंठ की माला की तरह रखें। कुश हाथों में आड़े कर लें। कुशों के मध्य भाग से जल दिया जाता है। अंजलि में जल भरकर कनिष्ठा (छोटी अंगुली) की जड़ के पास से जल छोड़ें। इसे प्राजापत्य तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक संबोधन के साथ दो-दो अंजलि जल दें-
ऊं सनकादय: दिव्यमानवा: आगच्छन्तु गृöन्तु एतान्जलाञ्जलीन्।
ऊं सनकस्तृप्याताम्॥2॥
ऊं सनन्दनस्तृप्यताम्॥2॥
ऊं सनातनस्तृप्यताम्॥2॥
ऊं कपिलस्तृप्यताम्॥2॥
ऊं आसुरिस्तृप्यताम्॥2॥
ऊं वोढुस्तृप्यताम्॥2॥
ऊं पञ्चशिखस्तृप्यताम्॥2॥
दिव्य-पितृ-तर्पण
चौथा तर्पण दिव्य पितरों के लिए है। जो कोई लोकसेवा एवं तपश्ïचर्या तो नहीं कर सके, पर अपना चरित्र हर दृष्टि से आदर्श बनाये रहे, उस पर किसी तरह की आंच न आने दी। अनुकरण, परंपरा एवं प्रतिष्ïठा की संपत्ति पीछे वालों के लिए छोड़ गए। ऐसे लोग भी मानव मात्र के लिए वंदनीय हैं, उनका तर्पण भी ऋषि एवं दिव्य मानवों की तरह ही श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।
इसके लिए दक्षिणाभिमुख हों। वामजानु (बायां घुटना मोड़कर बैठें) जनेऊ अपसव्य (दाहिने कंधे पर सामान्य से उल्टी स्थिति में) रखें। कुशा दुहरे कर लें। जल में तिल डालें। अंजलि में जल लेकर दाहिने हाथ के अंगूठे के सहारे जल गिराएं। इसे पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक पितृ को तीन-तीन अंजलि जल दें।
ऊं कव्यवाडादयो दिव्यपितर: आगच्छन्तु गृöन्तु एतान् जलाञ्जलिन्।
ऊं कव्यवाडनलस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नम:॥3॥
ऊं सोमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नम:॥3॥
ऊं यमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नम:॥3॥
ऊं अयर्मा स्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नम:॥3॥
ऊं अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम:॥3॥
ऊं सोमपा: पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम:॥3॥
ऊं बहिर्षद: पितरस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम:॥3॥
यम तर्पण
जन्म-मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ïित को यम कहते हैं। मृत्यु को स्मरण रखें, मरने के समय पश्चात्ताप न करना पड़े, इसका ध्यान रखें और उसी प्रकार की अपनी गतिविधियां निर्धारित करें, तो समझना चाहिए कि यम को प्रसन्न करने वाला तर्पण किया जा रहा है। अपने इंद्रिय निग्रहकर्ता एवं कुमार्ग पर चलने से रोकने वाले विवेक को यम कहते हैं। इसे भी निरंतर पुष्ïट करते चलना हर भावनाशील व्यक्ïित का कत्र्तव्य है। इन कत्र्तव्यों की स्मृति यम तर्पण द्वारा की जाती है। दिव्य पितृ तर्पण की तरह पितृतीर्थ से तीन-तीन अंजलि जल यमों को भी दिया जाता है।
ऊं यमादिचतुर्दशदेवा: आगच्छन्तु गृöन्तु एतान् जलाञ्जलिन्।
ऊं यमाय नम:॥3॥
ऊं धमर्राजाय नम:॥3॥
ऊं मृत्यवे नम:॥3॥
ऊं अन्तकाय नम:॥3॥
ऊं वैवस्वताय नम:।॥3॥
ऊं कालाय नम:॥3॥
ऊं सवर्भूतक्षयाय नम:॥3॥
ऊं औदुम्बराय नम:॥3॥
ऊं दध्नाय नम:॥3॥
ऊं नीलाय नम:॥3॥
ऊं परमेष्ठिने नम:॥3॥
ऊं वृकोदराय नम:॥3॥
ऊं चित्राय नम:॥3॥
ऊं चित्रगुप्ïताय नम:॥3॥
इसके बाद निम्नलिखित मन्त्रों से यम देवता को नमस्कार करें-
ऊं यमाय धमर्राजाय मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय सवर्भूतक्षयाय च॥
औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नम:॥
मनुष्य-पितृ-तर्पण
इसके बाद अपने परिवार से संबंधित दिवंगत नर-नारियों का क्रम आता है।
1. पिता, बाबा, परबाबा, माता, दादी, परदादी।
2. नाना, परनाना, बूढ़े नाना, नानी, परनानी, बूढ़ी नानी।
ये तीन वंशावलियां तर्पण के लिए हंै। पहले स्वगोत्र तर्पण किया जाता है-
अमुक गोत्रोत्पन्ना: अस्मत् पितर: आगच्छन्तु गृöन्तु एतान् जलाञ्जलीन।
अस्मत्पिता (पिता) अमुक शर्मा अमुक गोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥3॥
अस्मत्पितामह (दादा) अमुक शर्मा अमुक गोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥3॥
अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुक शर्मा अमुक गोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥3॥
अस्मन्माता (माता) अमुकी देवी दा अमुक गोत्रा गायत्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥3॥
अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी दा अमुक गोत्रा सावित्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥3॥
अस्मत्प्रपितामही (परदादी) अमुकी देवी दा अमुक गोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥3॥
अन्य तर्पण
द्वितीय गोत्र तर्पण
इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करें। यहां भी पहले की भांति निम्नलिखित वाक्यों को तीन-तीन बार पढ़कर तिल सहित जल की तीन-तीन अंजलियां पितृतीर्थ से दें -
अस्मन्मातामह: (नाना) अमुक शर्मा अमुक गोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥3॥
अस्मत्प्रमातामह: (परनाना) अमुक शर्मा अमुक गोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥3॥
अस्मद्ï वृद्धप्रमातामह: (बूढ़े परनाना) अमुक शर्मा अमुक गोत्रो आदित्यरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नम:॥3॥
अस्मन्मातामही (नानी) अमुकी देवी दा अमुक गोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥3॥
अस्मत्प्रमातामही (परनानी) अमुकी देवी दा अमुक गोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥3॥
अस्मद्ï वृद्धप्रमातामही (बूढ़ी परनानी) अमुकी देवी दा अमुक गोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम:॥3॥
निम्न मन्त्र से पूर्वोक्ïत विधि से प्राणिमात्र की तुष्ïिट के लिए जलधार छोड़ें-
ऊं देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा:।
पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा:॥
जलेचरा भूनिलया वायवाधाराश्च जन्तव:।
प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला:॥
नरकेषु समस्तेषु यातनासुु च ये स्थिता:।
तेषामाप्यायनायैतद् दीयते सलिलं मया॥
ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:।
ते सवेर्तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकांक्षिण:। आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवषिर्पितृमानवा:।
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय:॥
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मभुवनाल्लोकाद् इदमस्तु तिलोदकम्।
ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:।
ते सवेर्तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा॥
वस्त्र-निष्पीडन
शुद्ध वस्त्र जल में डुबोएं और बाहर लाकर मंत्र पढ़ते हुए अपसव्य भाव से अपने बायें भाग में भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़ें।
ऊं ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृता:।
ते गृöन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम्॥
भीष्म तर्पण
अंत में भीष्म तर्पण किया जाता है। ऐसे परमार्थ परायण महामानव, जिन्होंने उच्च उद्ïदेश्यों के लिए अपना वंश चलाने का मोह नहीं किया, भीष्म उनके प्रतिनिधि माने गए हैं, ऐसी सभी श्रेष्ठ आत्माओं को जलदान दें-
ऊं वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृतिप्रवराय च।
गंगापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम्॥
अपुत्राय ददाम्येतत सलिलं भीष्मवमर्णे॥
किसी भी कार्य में मानवीय भूलवश कुछ त्रुटि रह जाना स्वाभाविक है। इसलिए सबसे अंत में श्रद्धाभाव से खुद को अकिंचन मानते हुए सभी देवताओं-ऋषियों-पितरों से तर्पण कर्म में हुई त्रुटियों के लिए क्षमायाचना अवश्य करें।
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