Tuesday, 29 July 2014

गुरु के बिना गति नहीँ होती,ज्ञान नहीँ होता- यह बात कहाँतक ठीक है?

उत्तर- यह बात एकदम ठीक है,सच्ची है; परंतु केवल गुरु बनानेसे अथवा गुरु बनने से कल्याण,मुक्ति हो जाय-यह बात ठीक जँचती नहीँ।यदि गुरुके भीतर यह भाव रहता है कि 'मेरा एक संप्रदाय (टोली) बन जाय,मैँ एक बड़ा आदमी बन जाऊँ' आदि और शिष्यका भी यह भाव रहता है कि 'एक चद्दर,एक नारियल और एक रुपया देनेसे मेरा गुरु बन जायगा,गुरु मेरे सब पाप हर लेगा' आदि, तो ऐसे गुरु-शिष्यके संबंधमात्रसे कल्याण नहीँ होता।कारण कि जैसे सांसारिक माता-पिता,भाई-भौजाई,स्त्री-पुत्र का संबंध है,ऐसे ही गुरुका एक और संबंध हो गया!

जिनके दर्शन,स्पर्श,भाषण और चिँतनसे हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होते हैँ,हमे शांति मिलती है,हमारेमेँ दैवी-संपत्ति बिना बुलाये आती है और जिनके वचनोँसे हमारे भीतरकी शंकाएँ दूर हो जाती हैँ, शंकाओँका समाधान हो जाता है,भीतरसे परमात्माकी तरफ गति हो जाती है,पारमार्थिक बातेँ प्रिय लगने लगती हैँ,पारमार्थिक मार्ग ठीक-ठीक दीखने लगता है,ऐसे गुरुसे हमारा कल्याण होता है।यदि ऐसा गुरु (संत) न मिले तो जिनके संगसे हम साधनमेँ लगे रहेँ,हमारी पारमार्थिक रुचि बनी रहे,ऐसे साधकोँसे संबंध जोड़ना चाहिए।परंतु उनसे हमारा संबंध केवल पारमार्थिक होना चाहिए,व्यक्तिगत नहीँ।फिर भगवान ऐसी परिस्थिति,घटना भेजेँगे कि हमेँ वह संबंध छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा और वहाँ हमेँ अच्छे संत मिल जायँगे! वे संत चाहे साधुवेशमेँ हो,चाहे गृहस्थवेशमेँ,उनका संग करनेसे हमेँ विशेष लाभ होगा।तात्पर्य है कि भगवान प्रधानाध्यापककी तरह हैँ; वे समयपर स्वतः कक्षा बदल देते हैँ।अतः हमेँ भगवानपर विश्वास करके रुचिपूर्वक साधनमेँ लग जाना चाहिए।

गीतामेँ भगवानने कहा है कि 'जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैँ,वे सब कुछ जान जाते हैँ'(7.29)।अतः भगवानपर विश्वास और भरोसा रखते हुए साधन-संबंधी,भगवत्संबंधी बातेँ सुननी चाहिए और सत्कर्म,सच्चर्चा,सच्चिँतन करते हुए तथा सबके साथ सद्भाव रखते हुए साधन करना चाहिए।फिर किसी संतसे,किसी शास्त्रसे,किसी घटना आदिसे अचानक परमात्मतत्त्वका बोध जाग्रत हो जायगा।

यदि गुरु मिल गया और ज्ञान नहीँ हुआ तो वास्तव मेँ असली गुरु मिला ही नहीँ।असली गुरू मिल जाय और साधक साधनमेँ तत्पर हो तो ज्ञान हो ही जायगा।यह हो ही नहीँ सकता कि अच्छा साधक हो,असली संत मिल जाय और बोध न हो! एक कहावत है-
पारस केरा गुण किसा,पलट्या नहीँ लोहा।
कै तो निज पारस नहीँ,कै बिच रहा बिछोहा।।
तात्पर्य है कि यदि शिष्य गुरुसे दिल खोलकर सरलतासे मिले,कुछ छिपाकर न रखे तो शिष्यमेँ वह शक्ति प्रकट हो जाती है,जिस शक्तिसे उसका कल्याण हो जाता है।

गुरु-तत्त्व नित्य होता है और वह कहीँ भी किसी घटनासे,किसी परिस्थितिसे,किसी पुस्तकसे,किसी व्यक्ति आदिसे मिल सकता है।अतः गुरुके बिना ज्ञान नहीँ होता-यह बात सच्ची है।
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       ॐ इस एकाक्षर मंत्र में शिव प्रतिष्ठित हैं.
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 “ॐ नमः शिवाय” मंत्र भगवान शिव की महिमा एवं उनके स्वरुप को दर्शाता है. ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जाप भक्त के हृदय की गहराइयों में पहुंचकर उसका साक्षात्कार शिव से कराता है. यह मंत्र भक्तों का सरल मंत्र है यह मंत्र पाँच अक्षरों का प्रभुत्व दर्शाता है अतः इसे पंचाक्षर स्तोत्र कहते हैं. “ॐ” के प्रयोग से यह मंत्र छः अक्षर का बनता है. ॐ इस एकाक्षर मंत्र में शिव प्रतिष्ठित हैं. यह मंत्र में पंचब्रह्मरूपधारी भगवान शिव इसमें वाच्य और वाचक भाव से विराजमान हैं वीरशैव मत अष्टावर्ण धारण मे पंचकाक्षरी मंत्र एकहै। संकेत -पद्धति ग्रंथ मे ||माननात् त्राण धर्मासौ मंत्रोयं परिकिर्तः ॥ मानसिक जपरूप तर्क मन से साधक को संरक्षण करने के कारण इसे मंत्र कहा जाता है इसे रक्षा कवच मानाजाता है इसी मत को पुष्टि करते हुवे योगशिखोपनिषत मे कहा ग़या है ” मननात् तृणाच्चैव मद्रूपस्यावबोधनात् मन्त्रमित्त्युच्यते ” मनन करते साधक को जनन मरणात्मक प्रपंच से पार करने के कारण मन्त्र कह जता है चन्द्र ज्ञान अगम मे क्रियापद अषटम पटल मे बृहस्पति को बोलते हूवे अनंत रूद्र कहते है कि ” अदौ नमः प्रयोक्तव्यम् शिवायेति ततः परम । सैषा पंचाक्षरी विद्या सर्वश्रुतिशिरोगता ॥ शब्द जातस्य सर्वस्य बीजभूता समासतः । आदौशिवमुखोद्गीर्णा स तस्मैवात्मवाचिका ॥ इसश्लोक क भावार्थ य है :- प्रथम नमः पद रख के नंतर शिवाय पद क प्रयोगको पंचाक्षरी विद्या कहाजाता है सर्व श्रुतिओं के शिरोभाग इस क स्थान है सक्षिप्त मे यह पंचाक्षरी मंत्र सभी प्रकार के विद्याओं का जननी है सृष्टि के प्रारंभ मे शिव के मुख से निकली यह विद्या (मंत्र) शिव जि के निज स्वरुप है।नमः शब्द वदेत् पूर्वं शिवायेति ततः परम । मंत्रः पञ्चाक्षरो ह्येषः सर्वश्रुतिशिरोगतः ॥ वीरशैव मत प्रतिपादक भाष्य श्री सिद्धांत शिखामणि मे पंचाक्षरी मंत्र उपदेश करते हुव

Monday, 28 July 2014

अस्तित्व का अभाव ही तो मृत्यु है।


याज्ञवल्क्य ने जाने कितने छात्रों को, जाने कितनी बार पढ़ाया होगा यह सूक्त। कितनी बार दुहराया होगा वह अर्थ जो उन्होंने अपने गुरु से सुना था। पर आज पहला मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, ‘‘न असत् आसीत् न सत् आसीत् तदानीं’’ कि हठात् रुक गये। शिष्यगण विस्मय से उन्हें देख रहे थे। उनके होठ खुले थे पर न तो उनमें कम्पन था न गति। शायद उन्हें यह बोध भी नहीं रह गया था कि उनके सामने उनके शिष्य भी बैठे हुए हैं। वह इस ऋचा पर नहीं रुके थे। पूरा सूक्त एक काली लौ की तरह उनकी चेतना में एक साथ काँप-सा रहा था। काली लौ। किसी को समझाना चाहें तो कितना कठिन होगा। समझेगा धुएँ या कुहासे की बात कर रहे हैं। पर धुएँ और कुहासे को देखने के लिए भी प्रकाश तो चाहिए। यह तो सघन काले अँधेरे के बीच एक काली शिखा के काँपने की अनुभूति थी जो दृष्टिगम्य नहीं थी पर फिर भी अनुभूतिगम्य थी। अनुभूतिगम्य भी नहीं, बोधगम्य।

सत् नहीं, असत् नहीं, वायु नहीं, आकाश नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई गति नहीं, कोई आधार नहीं, मृत्यु नहीं, अमरता नहीं, न रात, न दिन, न प्रकाश, न अन्धकार।

‘‘नहीं, अन्धकार तो था। उबलता हुआ अन्धकार! तरल! अपने में ही छिपा हुआ! अन्धकार तो था।’’ उनके मुँह से निकला पर इस समय भी न तो उन्हें यह बोध था कि उनके शिष्य उनको विस्मय से देख रहे हैं न ही यह कि वह उन्हें पाठ पढ़ाने बैठे थे। वह अपने से आत्मालाप कर रहे थे। आत्मालाप भी नहीं। बोलते हुए सोच रहे थे।

परन्तु इस अन्धकार से पहले। तब, जब अन्धकार भी नहीं रहा होगा। जब कुछ न रहा होगा, तब क्या था? कुछ नहीं के होने को क्या कहेंगे वह? उसे अन्धकार कहना ठीक नहीं लग रहा था और उन्हें उस अवस्था के लिए कोई शब्द मिल नहीं रहा था। सूक्तकार को भी शब्द न मिला होगा। तभी तो अन्धकार कह दिया। भाषा तो उसके रचे हुए संसार को व्यक्त करने का साधन है। उस अरचित, अरूप, अनाकार को कैसे व्यक्त कर पाएगी। और फिर प्रश्न केवल भाषा का था भी नहीं। विकास की उस प्रक्रिया का था जिसका न तो कोई द्रष्टा था, न ज्ञाता। जो केवल अनुमान और ध्यान का विषय था। एक लम्बा समय गुजर गया अपने आप से जूझते। शास्त्रों और श्रुतियों में जो पढ़ा था उसे जोड़ते-मिलाते।

पर तभी, उनकी कल्पना के सामने उपस्थित उस अन्धकार से ही जैसे एक शब्द फूटा, कुछ यूँ कि जैसे अन्धकार ही सिमटकर शब्द बन गया हो, ‘मृत्यु’ उन्हें लगा उन्होंने इस शब्द को सोचा नहीं है, सुना है। एक अस्फुट विस्फोट के रूप में।

‘‘जब कुछ नहीं था तब मृत्यु थी।’’ जैसे कोई समझा रहा हो उन्हें, परम गुरु की भाँति, मृत्यु का कोई रूप या आकार तो है नहीं। अस्तित्व का अभाव ही तो मृत्यु है। रूप का, आकार का, क्रिया का, गति का, किसी का भी न रह जाना। यदि किसी का अस्तित्व था ही नहीं तो वह अन्धकार भी नहीं रहा होगा। मृत्यु ही रही होगी। अन्धकार का भी रूप उसी ने लिया होगा। यदि कोई अपने जन्म से पूर्व की अवस्था को नहीं समझ पाता तो परमेष्ठी कैसे समझ पाते। वह भी अपने पूर्व रूप को समझ न पाये। उस अन्धकार से पहले वह स्वयं मृत्यु रूप ही थे। जीवन और सृजन क्या जो नहीं था उसका हो जाना, जिसका अस्तित्व नहीं था उसका अस्तित्व में आ जाना ही नहीं है।

‘‘सब कुछ मृत्यु से निकला है। मृत्यु ही जीवन का गर्भ है। सृष्टि का मूल।’’ उनके मुँह से निकला। अब वह कुछ आत्मसजग हो गये थे।

शिष्यों पर दृष्टि गयी तो हँसी आ गयी, ‘‘सब कुछ उसी से निकला है। मृत्यु से ही। वही थी। मृत्युना एव इदं आवृतं आसीत्। मृत्यु से ही सब कुछ ढका हुआ था। क्षुधा से ही आवृत था सब कुछ। अशनाया से। अशनाया हि मृत्युः। मृत्यु क्षुधा का ही दूसरा नाम तो है। सब कुछ को निगलती चली जाती है यह। परम क्षुधा। अमिट और अनन्त भूख। इसी का कभी अन्त नहीं होता। सृष्टि से पहले भी यही थी और सृष्टि के बाद भी यही क्रियाशील रहती है। कभी अपने गर्भ में छिपी और कभी अपने को ही उद्घाटित करती। अपने से बाहर आकर अपने को ही ग्रसती।’’

‘‘अनन्त भूख। यही तो मृत्यु की लालसा है। और इसी से सब कुछ पैदा हुआ। मृत्यु की इस लालसा से ही।’’

Saturday, 26 July 2014

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            घर की सन्तान नियंत्रित होती है.
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हनुमान चालीसा है चमत्कारिक ऑफिस में कुछ ठीक नहीं चल रहा...
घर पर पति-पत्नी की नहीं बनती... विद्यार्थियों को परीक्षा का टेंशन है...
किसी को भूत-पिशाचों का भय सता रहा है... मानसिक शांति नहीं मिलती... स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं पीछा नहीं छोड़ती... ऐसी ह...ी मानव जीवन से जुड़ी सभी समस्याओं का हल है रामभक्त श्री हनुमान के पास।
परंतु आज के दौर में जब हमारे समयाभाव है और इसी के चलते हम मंदिर नहीं जा पाते, विधि-विधान से पूजा-अर्चना नहीं कर पाते हैं। ऐसे में भगवान की कृपा कैसे प्राप्त हो? क्या किया जा जिससे कम समय में ही हमारे सारे दुख-कलेश, परेशानियां दूर हो जाए? अष्ट सिद्धि और नवनिधि के दाता श्री हनुमान जी... जिनके हृदय में साक्षात् श्रीराम और सीता विराजमान हैं... जिनकी भक्ति से भूत-पिशाच निकट नहीं आते... हमारे सारे कष्टों और दुखों को वे क्षणांश में ही हर लेते हैं।
ऐसे भक्तवत्सल श्री हनुमान जी की स्मरण हम सभी को करना चाहिए। ये आपकी सभी समस्या का सबसे सरल और कारगर उपाय है.
श्री हनुमानचालीसा का जाप। कुछ ही मिनिट की यह साधना आपकी सारी मनोवांछित इच्छाओं को पूरा करने वाली है। श्री हनुमान चालिसा का जाप कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है।
गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित श्री हनुमान चालीसा अत्यंत ही सरल और सहज ही समझ में आने वाला स्तुति गान है।
श्री हनुमान चालीसा में हनुमान के चरित्र की बहुत ही विचित्र और अद्भुत व्याख्या की गई हैं। साथ ही इसके जाप से श्रीराम का भी गुणगान हो जाता है। श्री हनुमानजी बहुत ही कम समय की भक्ति में प्रसन्न होने वाले देवता है।
श्री हनुमान चालीसा की एक-एक पंक्ति भक्ति रस से सराबोर है जो आपको श्री हनुमान जी के उतने ही करीब पहुंचा देगी जितना आप उसका जाप करेंग। कुछ समय में इसके चमत्कारिक परिणाम आप सहज ही महसूस कर सकेंगे।
यदि ऑफिस से सम्बंधित कोई परेशानी है तो सोमवार दोपहर को लगभग दो बजे से चार बजे के मध्य श्री हनुमान चालीसा का पाठ उत्तर दिशा की ओर मुख कर के करे.
ध्यान रखें कि बैठने का आसन और सिर पर लाल रंग का शुद्ध वस्त्र रख कर करे. तथा अपने सामने किसी भी साफ़ बर्तन में गुड़ या गुड़ से बनीं मिठाई जरूर रखे पाठ के बाद उसे स्वयं प्रसाद के रूप में लें.
इसे सोमवार (शुक्ल-पक्ष) से आरम्भ कर प्रत्येक सोमवार करने से ऑफिस से सम्बंधित संकट समाप्त हो जाता है.
यदि घर में पति-पत्नी की नहीं बनती है औए प्रतिदिन घर में क्लेश की स्थिति बनी रहती है तो भी इसका समाधान श्री हनुमान जी के पास है.
नित्य प्रातःकाल सूर्योदय के समय पति या पत्नी एक ताम्बे के लोटे में थोडा सा गुड़ और एक छोटी इलायची डाल कर सूर्य देव के सामने बैठ कर श्री हनुमान चालीसा के दो पाठ कर सूर्य देव को अर्घ्य प्रदान कर दें.
कुछ ही दिनों में पति व पत्नी तथा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य सद्भावनापूर्ण व्यवहार होने लगेगा.
प्रत्येक मंगलवार तथा शनिवार सांयकाल श्री हनुमान चालीसा के पांच पाठ सामने गुग्गल का धूप जला कर करे तो घर की सन्तान नियंत्रित होती है.
घर में कोई संकट नहीं आता है विद्या बुद्धि बल बड़ता है समस्त दोष स्वत: ही समाप्त होने लगते है
. जो प्रतिदिन श्री हनुमान चालीसा का पाठ आसन में बैठ कर करता है उसकी समस्त कामनाये भगवान राम जी के द्वारा शीघ्र पूरी होती है.
परदेश या विदेश में सफलता नहीं मिल रही तो श्री हनुमान चालीसा के एक सौ आठ १०८ पाठ नौ दिन में करें या रात को पांच पांच पाठ रोज करने से वेदेश में प्रतिष्ठा व सफलता प्राप्त होती है
. प्रतिदिन किसी भी समय श्री हनुमान चालीसा का पाठ करने से नवग्रह की शान्ति तो होती है और जटिल समस्याओं से छुटकारा भी मिल जाता ह

Friday, 25 July 2014

चरणामृत का क्या महत्व है?



अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है.
क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की.
कि चरणामृतका क्या महत्व है.
शास्त्रों में कहा गया है
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।
"अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप- व्याधियोंका शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।
जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता"
जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता,
जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है.
जब भगवान का वामन अवतार हुआ,
और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे मेंऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर
भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत
को वापस अपने
कमंडल में रख लिया.
वह चरणामृत गंगा जी बन गई,
जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है,
ये शक्ति उनके पास कहाँ से आई ये शक्ति है भगवान के चरणों की.
जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी .
जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है -
"चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी "
धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन
किया जाता है।
चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।
कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है।
चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।
आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है।
उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।
इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है।
तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए।
ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।
इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।
कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ काम या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है। इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं।
चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं?
दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।
कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है।
इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।..

Wednesday, 23 July 2014

एक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हूं

रामचरितमानस के रचनाकार संत शिरोमणि तुलसीदास के जीवन से उद्धृत एक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हूं! 

संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ। 
दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्मके दिन था। 

उस दिन प्रातःकाल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। 
दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में इस दैवी ग्रन्थ का लेखन सम्पन्न हुआ। 

संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। 
इसके पश्चात् भगवान की आज्ञा से तुलसीदासजी काशी चले आए । 

वहां उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया । 
रात्रिको ग्रंथ विश्वनाथ-मन्दिरमें रख दिया । 
प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो ग्रंथ पर लिखा हुआ पाया गया- ’सत्यं शिवं सुन्दरम्’ जिसके नीचे भगवान् शंकर के हस्ताक्षर (पुष्टि) थे। 

उस समय वहां उपस्थित लोगों ने “सत्यंशिवं सुन्दरम्” की ध्वनि भी अपने कानों से सुनी। 

इधर काशी के पण्डितों को जब यह ज्ञात हुआ तो उनके मन में ईर्ष्याउत्पन्न हुई । 
वे दल बनाकर तुलसीदासजी की निन्दा और उस ग्रंथ को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। 

उन्होंने ग्रंथ चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। 
चोरों ने जाकर देखाकि तुलसीदासजी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये सुरक्षा कर रहे हैं। 
दोनों युवक बडे ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। 
उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई । 
उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड दिया और भगवान के भजन में लग गये। 

तुलसीदासजी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी की सम्पूर्ण सामग्री लुटा दी और ग्रंथ अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दिया। 

इसके पश्चात् उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्तिसे एक दूसरी प्रति लिखी। 
उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गईं और ग्रंथ का प्रचार दिनों-दिन बढने लगा। 

इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस ग्रंथ को दिखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। 

मधुसूदन सरस्वतीजी ने उसे देखकर बडी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी:- 
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः। 
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥ 

इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है:-
”काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता- फिरता तुलसी का पौधा है। 
उसकी काव्य- मञ्जरी बडी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।” 

पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। 
तब ग्रंथ की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। 

काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान् विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। 

प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। 

अब तो सभी पण्डित बडे लज्जित हुए। 
उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
प्रिय मित्रो........
मँगलकामनाओ के साथ सुप्रभात.!

रामचरितमानस के रचनाकार संत शिरोमणि तुलसीदास के जीवन से उद्धृत एक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हूं! 

संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ। 
दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्मके दिन था। 

उस दिन प्रातःकाल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। 
दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में इस दैवी ग्रन्थ का लेखन सम्पन्न हुआ। 

संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। 
इसके पश्चात् भगवान की आज्ञा से तुलसीदासजी काशी चले आए । 

वहां उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया । 
रात्रिको ग्रंथ विश्वनाथ-मन्दिरमें रख दिया । 
प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो ग्रंथ पर लिखा हुआ पाया गया- ’सत्यं शिवं सुन्दरम्’ जिसके नीचे भगवान् शंकर के हस्ताक्षर (पुष्टि) थे। 

उस समय वहां उपस्थित लोगों ने “सत्यंशिवं सुन्दरम्” की ध्वनि भी अपने कानों से सुनी। 

इधर काशी के पण्डितों को जब यह ज्ञात हुआ तो उनके मन में ईर्ष्याउत्पन्न हुई । 
वे दल बनाकर तुलसीदासजी की निन्दा और उस ग्रंथ को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। 

उन्होंने ग्रंथ चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। 
चोरों ने जाकर देखाकि तुलसीदासजी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये सुरक्षा कर रहे हैं। 
दोनों युवक बडे ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। 
उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई । 
उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड दिया और भगवान के भजन में लग गये। 

तुलसीदासजी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी की सम्पूर्ण सामग्री लुटा दी और ग्रंथ अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दिया। 

इसके पश्चात् उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्तिसे एक दूसरी प्रति लिखी। 
उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गईं और ग्रंथ का प्रचार दिनों-दिन बढने लगा। 

इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस ग्रंथ को दिखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। 

मधुसूदन सरस्वतीजी ने उसे देखकर बडी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी:- 
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः। 
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥ 

इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है:-
”काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता- फिरता तुलसी का पौधा है। 
उसकी काव्य- मञ्जरी बडी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।” 

पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। 
तब ग्रंथ की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। 

काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान् विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। 

प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। 

अब तो सभी पण्डित बडे लज्जित हुए। 
उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।

Sunday, 20 July 2014

ऋषभ अवतार द्वारा भगवान नरसिंह का मान मर्दन


भगवान विष्णु के वराह अवतार द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष के वध के पश्चात उसके छोटे भाई हिरण्यकश्यप के अत्याचार हद से अधिक बढ़ गए. सारी सृष्टि त्राहि त्राहि करने लगी. जहाँ एक ओर हिरण्यकश्यप पूरे संसार से धर्म का नाश करने पर तुला हुआ था वहीँ उसका अपना पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु की भक्ति में लीन था. हिरण्यकश्यप जब किसी भी तरह प्रह्लाद को नहीं समझा सका तो उसने उसे कई बार मारने का प्रयत्त्न किया किन्तु प्रह्लाद हर बार भगवान विष्णु की कृपा से बच गया. यहाँ तक कि इस प्रयास में उसकी बहन होलिका भी मृत्यु को प्राप्त हो गयी. अंत में जब वो स्वयं प्रह्लाद को मारने को तत्पर हुआ तो अपने भक्त की रक्षा के लिए भगवान विष्णु स्वयं नरसिंह अवतार में प्रकट हुए.
भगवान नरसिंह में वो सभी लक्षण थे जो हिरण्यकश्यप के मृत्यु के वरदान को संतुष्ट करते थे. भगवान नरसिंह के द्वारा हिरण्यकश्यप का नाश हुआ किन्तु एक और समस्या खड़ी हो गयी. भगवान नरसिंह इतने क्रोध में थे कि लगता था जैसे वो प्रत्येक प्राणी का संहार कर देंगे. यहाँ तक कि स्वयं प्रह
्लाद भी उनके क्रोध को शांत करने में विफल रहा. सभी देवता भयभीत हो भगवान ब्रम्हा की शरण में गए. परमपिता ब्रम्हा उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे अपने अवतार के क्रोध शांत कर लें किन्तु भगवान विष्णु ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता जतलाई. भगवान विष्णु ने सबको भगवान शंकर के पास चलने की सलाह दी. उन्होंने कहा चूँकि भगवान शंकर उनके आराध्य हैं इसलिए केवल वही नरसिंह के क्रोध को शांत कर सकते हैं. और कोई उपाय न देख कर सभी भगवान शंकर के पास पहुंचे.
देवताओं के साथ स्वयं परमपिता ब्रम्हा और भगवान विष्णु के आग्रह पर भगवान शिव नरसिंह का क्रोध शांत करने उनके समक्ष पहुंचे किन्तु उस समय तक भगवान नरसिंह का क्रोध सारी सीमाओं को पार कर गया था. साक्षात भगवान शंकर को सामने देख कर भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ बल्कि वे स्वयं भगवान शंकर पर आक्रमण करने दौड़े. उसी समय भगवान शंकर ने एक विकराल ऋषभ का रूप धारण किया और भगवान नरसिंह को अपनी पूंछ में लपेट कर खींच कर पाताल में ले गए. काफी देर तक भगवान शंकर ने भगवान नरसिंह को वैसे हीं अपने पूंछ में जकड कर रखा. अपनी सारी शक्तियों और प्रयासों के बाद भी भगवान नरसिंह उनकी पकड़ से छूटने में सफल नहीं हो पाए. अंत में शक्तिहीन होकर उन्होंने ऋषभ रूप में भगवान शंकर को पहचाना और तब उनका क्रोध शांत हुआ. इसे देख कर भगवान ब्रम्हा और भगवान विष्णु के आग्रह पर ऋषभ रुपी भगवान शंकर ने उन्हें मुक्त कर दिया. इस प्रकार देवताओं और प्रह्लाद के साथ साथ सभी सत्पात्रों को दो महान अवतारों के दर्शन हुए.
●●●   महाभारत युद्ध में अपने ही पुत्र के हाथों मारे गए अर्जुन को किसने किया पुनर्जीवित? महाभारत की एक अनसुनी महान प्रेम-कहानी   ●●●

महान धनुर्धर अर्जुन हमेशा अजेय माने जाते रहे हैं. महाभारत में अर्जुन के समान धनुर्धर और कोई नहीं बन सका इसके बावजूद अर्जुन कई जगह हारे. द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी मानी गई हैं पर वह मुख्य रूप से अर्जुन की प्रिय थीं. अर्जुन ने ही धनुर्विद्या से द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था और उनसे विवाह किया था. कुंती के अनायास ही फल बांटकर खा लेने के कथन का पालन करते हुए द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी बन गईं लेकिन वह हमेशा अर्जुन-प्रिया मानी गईं. इसके बावजूद अर्जुन कई बार कई और के प्रेम में पड़े और कई विवाह किया. अभिमन्यु के अलावे भी अर्जुन के तीन और पुत्र थे और अपने ही पुत्र के द्वारा अर्जुन महाभारत युद्ध में मारे भी गए. पर हर किसी से जीते हुए अर्जुन को इस हार में एक स्त्री ने जीवनदान दिया था. यहां हम आपको बता रहे हैं द्रौपदी के अलावे अर्जुन की अन्य प्रेम-कहानियां और जीवन-दान की कहानी:

● सुभद्रा-अर्जुन प्रेम विवाह
कृष्ण की बहन सुभद्रा से अर्जुन का प्रेम विवाह था. इससे पहले ही अर्जुन द्रौपदी से विवाह कर चुके थे. सुभद्रा से अर्जुन का दूसरा विवाह था और यह किसी परेशानी या दबाव में नहीं हुआ था बल्कि अर्जुन खुद यह विवाह करना चाहते थे क्योंकि वे और सुभद्रा एक-दूसरे को पसंद करने लगे थे.

सुभद्रा का भाई गदा और अर्जुन ने साथ ही द्रोणाचार्य के गुरुकुल में शिक्षा ली थी. बाद में द्वारका जाने पर अर्जुन की मुलाकात सुभद्रा से हुई और उन दोनों में प्रेम हो गया. कृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने सुभद्रा से ब्याह भी रचा लिया पर द्रौपदी को यह बताने की हिम्मत नहीं कर सके. इसलिए सुभद्रा जब पहली बार द्रौपदी से मिलीं तो अर्जुन की पत्नी होने की बात द्रौपदी को नहीं बताई. बाद में जब दोनों एक-दूसरे से घुल-मिल गए तो सुभद्रा ने खुद के अर्जुन की दूसरी पत्नी होने की बात बताई.

● चित्रांगदा-अर्जुन प्रेम विवाह
मणिपुर राज्य की राजकुमारी चित्रांगदा बेहद खूबसूरत थीं. एक बार किसी कारणवश मणिपुर गए अर्जुन ने उन्हें देखा और देखते ही उन पर मोहित हो गए. अर्जुन ने चित्रांगदा के पिता और मणिपुर के राजा चित्रवाहन से चित्रांगदा के साथ अपनी विवाह की इच्छा बताई. चित्रवाहन विवाह के लिए मान तो गए लेकिन एक शर्त रख दी कि चित्रवाहन के बाद अर्जुन और चित्रांगदा का पुत्र ही मणिपुर का राज्य भार संभालेगा. अर्जुन मान गए और इस तरह चित्रांगदा के साथ अर्जुन का विवाह भी हो गया. चित्रांगदा के साथ अपने पुत्र बभ्रूवाहन के जन्म होने तक अर्जुन मणिपुर में ही रहे. बभ्रूवाहन के जन्म के बाद वे पत्नी और बच्चे को वहीं छोड़ इंद्रप्रस्थ आ गए. चित्रवाहन की मृत्यु के बाद बभ्रूवाहन मणिपुर का राजा बना. बाद में महाभारत युद्ध के दौरान बभ्रूवाहन ने दुर्योधन की ओर से युद्ध भी किया और अर्जुन को भी हराया.


● उलूपी
जल राजकुमारी उलूपी अर्जुन की चौथी पत्नी थीं. महाभारत और अर्जुन के जीवन में उनके बहुत योगदान थे. उन्हीं ने अर्जुन को जल में हानि रहित रहने का वरदान दिया था. इसके अलावे चित्रांगदा और अर्जुन के पुत्र बभ्रूवाहन को भी उसी ने युद्ध शिक्षा दी थी. महाभारत युद्ध में अपने गुरु भीष्म पितामह को मारने के बाद ब्रह्मा-पुत्र से शापित होने के बाद उलूपी ने ही अर्जुन को शापमुक्त भी किया था और इसी युद्ध में अपने पुत्र के हाथों मारे जाने पर उलूपी ने ही अर्जुन को पुनर्जीवित भी किया था.

अर्जुन और उलूपी की प्रेम-कहानी शुरू भी एक प्रकार के शाप से ही हुई थी. द्रौपदी जो पांचों पांडवों की पत्नी थीं एक-एक साल के समय-अंतराल के लिए हर पांडव के साथ रहती थी. उस समय किसी दूसरे पांडव को द्रौपदी के आवास में घुसने की अनुमति नहीं थी. इस नियम को तोड़ने वाले को एक साल तक देश से बाहर रहने का दंड था. एक बार जब द्रौपदी युद्धिष्ठिर के साथ थीं तब अर्जुन ने यह नियम तोड़ दिया.

अर्जुन और द्रौपदी की एक वर्ष की अवधि अभी-अभी समाप्त हुई थी और द्रौपदी-युधिष्ठिर के साथ का एक वर्ष का समय शुरू हुआ था. अर्जुन भूलवश द्रौपदी के आवास पर ही अपना तीर-धनुष भूल आए. पर किसी दुष्ट से ब्राह्मण के पशुओं की रक्षा के लिए लिए उन्हें उसी समय इसकी जरूरत थी. अत: क्षत्रिय धर्म का पालन करने के लिए तीर-धनुष लेने के लिए नियम तोड़ते हुए वह पांचाली (द्रौपदी) के निवास में घुस गए. बाद में इसके दंड स्वरूप वह एक साल के लिए राज्य से बाहर चले गए. इसी दौरान अर्जुन की मुलाकात उलूपी से हुई और वह अर्जुन पर मोहित हो गईं. वह अर्जुन को जलनगर भी ले गईं. उन्होंने अर्जुन को वरदान दिया कि सभी जल-प्राणी उसका कहा मानेंगे और उन्हें पानी में कोई नुकसान नहीं होगा.

बाद में महाभारत युद्ध में जब अर्जुन अपने ही पुत्र बभ्रूवाहन के हाथों मारे गए तो उलूपी ने अर्जुन को दुबारा जीवित भी किया. बभ्रूवाहन को पता नहीं था कि वह अर्जुन का पुत्र है, अत: जीवित होने के पश्चात अर्जुन और बभ्रूवाहन को एक साथ लाने में भी उलूपी का बहुत बड़ा हाथ था.

~~●~~● पृथ्वी का सबसे सत्यवादी इंसान कैसे बना सबसे बड़ा झूठा व्यक्ति? ●~~●~~

महाभारत में हर किरदार अपने आप में अनोखा और अद्वितीय है. एक तरफ जहां अर्जुन और कर्ण को विश्व का सबसे बड़ा धनुर्धर माना जाता है तो वहीं भीम को गदाधारी और धर्मराज युधिष्ठिर को भाले में निपुण माना गया है. वैसे युधिष्ठिर में एक और योग्यता थी कि वह विश्व के सबसे बड़े सत्यवादी थे. वह अपनी सत्यवादिता एवं धार्मिक आचरण के लिए विख्यात रहे हैं, लेकिन इतने बड़े सत्य निष्ठावादी होने के बावजूद भी युधिष्ठिर झूठे कैसे बन गए?

दरअसरल बात युद्ध के दिनों की है जब भीष्म पितामह की तरह गुरु द्रोणाचार्य भी पाण्डवों के विजय में सबसे बड़ी बाधा बनते जा रहे थे. श्रीकृष्ण जानते थे कि गुरु द्रोण के जीवित रहते पाण्डवों की विजय असम्भव है. इसलिए श्रीकृष्ण ने एक योजना बनाई जिसके तहत महाबली भीम ने युद्ध में अश्वत्थामा नाम के एक हाथी का वध कर दिया था. यह हाथी मालव नरेश इन्द्रवर्मा का था.

द्रोणाचार्य के पुत्र का नाम भी अश्वत्थामा था और यह भी निश्चित था कि अपने पुत्र से प्रेम करने के कारण द्रोणाचार्य अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनकर स्वयं भी प्राण त्याग देंगे.

इसलिए अश्वत्थामा हाथी के मृत्यु के बाद योजना के तहत जब यह समाचार भीम द्वारा द्रोणाचार्य को बताया गया तो पहले उन्हें यकीन नहीं हुआ, लेकिन यही बात जब उन्होंने कभी झूठ न बोलने वाले सत्यवादी युधिष्ठिर से पूछा तो युधिष्ठिर ने भी अपने तरीके से हां कह दिया.

द्रोणाचार्य ने पूछा “युधिष्ठिर! क्या यह सत्य है कि मेरा पुत्र अश्वत्थामा मारा गया?” युधिष्ठिर ने कहा- “अश्वत्थामा हतोहतः, नरो वा कुञ्जरोवा”, अर्थात “अश्वत्थामा मारा गया, परंतु मनुष्य नहीं पशु.” युधिष्ठिर ने ‘नरो वा कुञ्जरोवा’ अत्यंत धीमे स्वर में कहा था और इसी समय श्रीकृष्ण ने भी शंख बजा दिया, जिस कारण द्रोणाचार्य युधिष्ठिर द्वारा कहे गए अंतिम शब्द नहीं सुन पाए. उन्होंने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिए और समाधिष्ट होकर बैठ गए. इस अवसर का लाभ उठाकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सर धड़ से अलग कर दिया.
||●||  अपने पिता के शरीर का मांस खाने के लिए क्यों मजबूर थे पांडव  ||●||

हिंदुओं का सबसे बड़ा ग्रंथ महाभारत एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसकी एक-एक घटना लोगों रोमांचित करती है. खास तौर पर उस तरह की घटनाएं जिनको लेकर आप पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं. लोग बार-बार ऐसी घटनाओं को सुनना पसंद करते हैं. आज हम आपको महाभारत की एक ऐसी ही दिलचस्प और उल्लेखनीय पहलू बाताने जा रहे हैं जिससे शायद आप अंजान हो.

पाण्डु पुत्रों में (युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव) सहदेव ही एकमात्र ऐसे पुत्र थे जिनके बारे में कहा जाता है कि पिता का सबसे ज्यादा ज्ञान उन्हीं को ही प्राप्त हुआ था. दरअसल राजा पांडव ने मृत्यु से पहले एक अजीब तरह का वरदान मांगा था. उनके अनुसार जब उनकी मृत्यु हो तो उनके शरीर का मांस उनके पांचों पुत्र खाएं. उनका मानना था कि इस तरह करने से उनका पूरा ज्ञान जो उन्होंने अपने जीवनकाल में प्राप्त किया था उनके बच्चों को स्थानांतरित हो जाएगा.

पुत्रों द्वारा पिता पांडव के मांस खाने को लेकर तरह-तरह की घटनाएं है. कोई कहता है कि बाकी पुत्रों को छोड़कर केवल सहदेव ने ही मांस खाया था, तो कोई कहता है कि मांस तो पांचों पुत्रों ने खाया लेकिन उनमें से सबसे ज्यादा मांस सहदेव ने खाया. इस तरह से पाण्डु पुत्रों में सहदेव को ही सबसे ज्यादा ज्ञान प्राप्त हुआ.

तलवार में निपुण सहदेव ने अपने पिता से जो ज्ञान अर्जित किया उसके अनुसार वह भविष्य की घटनाओं को बहुत ही जल्दी भांप लेते थे. उन्हें यह भी पता था कि आने वाले वक्त में महाभारत युद्ध होने वाला था. युद्ध में कौन जीतेगा, कौन हारेगा, किसकी मृत्यु होगी आदि सबकुछ पता था.

● भगवान श्रीकृष्ण का श्राप
शास्त्रों के अनुसार महाभारत युद्ध का परिणाम केवल एक ही व्यक्ति जानता था वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। लेकिन श्रीकृष्ण को यह भी ज्ञात था कि उनके अलावा सहदेव भी जानते थे कि युद्ध में क्या होने वाला है इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने सहदेव को बहुत पहले ही श्राप दे रखा था कि अगर वह युद्ध के बारे में किसी को बताएंगे तो उनकी मृत्यु हो जाएगी
●||● एक अप्सरा के पुत्र थे हनुमान पर फिर भी लोग उन्हें वानरी की संतान कहते है ●||●

हिंदू धर्म ग्रंथों में 33 करोड़ देवी-देवताओं का जिक्र किया गया है, जिनकी अलग-अलग महिमा और भिन्न-भिन्न आदर्श हैं. इन्हीं देवी-देवताओं में से एक हैं राम भक्त, पवनपुत्र हनुमान, जिनका आज जन्मदिन है. अंजना और केसरी के लाल हनुमान के जन्मदिन को हिंदू धर्म के अनुयायी हनुमान जयंती के रूप में बड़े धूमधाम से मनाते हैं. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन से जुड़ी रामायण, जो हिन्दुओं का एक पवित्र ग्रंथ है, में हनुमान को भी एक अभिन्न हिस्से के रूप में पेश किया गया है, इसलिए इनसे संबंधित घटनाओं, शिव के अवतार के रूप में इनका जन्म और बालपन में इनकी अठखेलियों के बारे में आपने कई बार सुना या पढ़ा होगा. लेकिन आज हम आपको उनकी मां अंजना और उनके पिता की मुलाकात कैसे हुई, कैसे हनुमान शिव के रूप में इस धरती पर अवतरित हुए इससे संबंधित पुराणों में लिखी एक बड़ी रहस्यमय घटना से अवगत करवाने जा रहे हैं

हनुमान का जन्म कैसे हुआ, ये जानने के लिए पहले हम उनके माता-पिता के विवाह की भेंट कैसे हुई इस बारे में जान लेते हैं. हनुमान के जन्म की दैवीय घटना की शुरुआत होती है ब्रह्मा, जिनके हाथ में पृथ्वी के सृजन की कमान है, के दरबार से.  स्वर्ग में स्थित उनके महल में हजारों सेविकाएं थीं, जिनमें से एक थीं अंजना. अंजना की सेवा से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा.

अंजना ने हिचकिचाते हुए उनसे कहा कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें. ब्रह्मा ने उनसे कहा कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें.ै

अंजना ने उन्हें अपनी कहानी सुनानी शुरू की. अंजना ने कहा ‘बालपन में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा, मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए. बस यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे. मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी. मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा’.
अपनी कहानी सुनाने के बाद अंजना ने कहा कि अगर ब्रह्म देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी. ब्रह्म देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए अंजना को धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी. शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजना को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी.

ब्रह्मा की बात मानकर अंजना धरती पर चली गईं और एक शिकारन के तौर पर जीवन यापन करने लगीं. जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं. जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजना पर पड़ीं, अंजना का चेहरा वानर जैसा हो गया. अंजना जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजना ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह बदसूरत हो गई हैं. अंजना ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था.
अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं. अंजना का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया.
भगवान शिव के भक्त होने के कारण केसरी और अंजना अपने आराध्य की तपस्या में मग्न थे. तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा. अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें.

‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए. इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और किसी दूसरे कोने में महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए यज्ञ कर रहे थे. अग्नि देव ने उन्हें दैवीय ‘पायस’ दिया जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस पायस की कटोरी में थोड़ा सा पायस अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया.
अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया और कुछ ही समय बाद उन्होंने वानर मुख वाले हनुमान जी को जन्म दिया.

Saturday, 19 July 2014

●~● क्यूं मां लक्ष्मी ने भगवान विष्णु की बात ना मानी और कर दिया एक पाप, ●~●

परमेश्वर के तीन मुख्य स्वरूपों में से एक भगवान विष्णु का नाम स्वयं ही धन की देवी मां लक्ष्मी के साथ लिया जाता है. शास्त्रों में विख्यात कथाओं के अनुसार मां लक्ष्मी हिन्दू धर्म में धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं. माता लक्ष्मी विष्णु जी की अर्धांगिनी हैं. सुख व समृद्धि की प्रतीक मां लक्ष्मी व भगवान विष्णु को युगों-युगों से एक साथ देखा गया है.

यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में धन का वास चाहता है तो हमेशा ही मां लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु की आराधना अवश्य करे. इन दोनों का रिश्ता काफी शुद्ध व सर्वश्रेष्ठ माना जाता है परंतु ऐसा क्या हुआ था जो लक्ष्मी जी के कारण भगवान विष्णु की आंखें भर आईं? पुराणों में विख्यात एक कथा के अनुसार लक्ष्मी जी की किस बात से विष्णु जी इतने निराश हो गए?

पुराणों में लिखी एक कथा के अनुसार एक बार भगवान विष्णु जी शेषनाग पर बैठे-बैठे उदास हो गए और उन्होंने धरती पर जाने का विचार बनाया. धरती पर जाने का मन बनाते ही विष्णु जी जाने की तैयारियों में लग गए. अपने स्वामी को तैयार होता देख कर लक्ष्मी मां ने उनसे पूछा, “स्वामी, आप कहां जाने की तैयारी में लगे हैं?” जिसके उत्तर में विष्णु जी ने कहा, “हे लक्ष्मी, मैं धरती लोक पर घूमने जा रहा हूं.”

यह सुन मां लक्ष्मी जी का भी धरती पर जाने का मन हुआ और उन्होंने श्रीहरि से इसकी आज्ञा मांगी. मां लक्ष्मी द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान विष्णु बोले, “तुम मेरे साथ चल सकती हो, लेकिन एक शर्त पर, तुम धरती पर पहुंच कर उत्तर दिशा की ओर बिलकुल मत देखना, तभी मैं तुम्हें अपने साथ लेकर जाऊंगा.” यह सुनते ही माता लक्ष्मी ने हां कह दिया और विष्णु जी के साथ धरती लोक जाने के लिए तैयार हो गईं.

मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु सुबह-सुबह धरती पर पहुंच गए. जब वे पहुंचे तब अभी सूर्य देवता उदय हुए ही थे, रात्रि में बरसात हुई थी जिस कारण चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी. धरती बेहद सुन्दर दिख रही थी जिसके फलस्वरूप  मां लक्ष्मी मन्त्र मुग्ध हो कर धरती के चारों ओर देख रही थीं और भूल गईं कि पति को क्या वचन दे कर आई हैं. अपनी नजर घुमाते हुए उन्होंने कब उत्तर दिशा की ओर देखा उन्हें पता ही नहीं चला.

मन ही मन में मुग्ध हुई मां लक्ष्मी जी ने जब उत्तर दिशा की ओर देखा तो उन्हें एक सुन्दर बागीचा नजर आया. उस ओर से भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी. बागीचे में बहुत ही सुन्दर-सुन्दर फूल खिले थे. फूलों को देखते ही मां लक्ष्मी बिना सोचे समझे उस खेत में चली गईं और एक सुंदर सा फूल तोड़ लाईं.

फूल तोड़ने के पश्चात जैसे ही मां लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास वापस लौट कर आईं तो भगवान विष्णु की आंखों में आंसू थे. मां लक्ष्मी के हाथ में फूल देख विष्णु बोले, “कभी भी किसी से बिना पूछे उसका कुछ भी नहीं लेना चाहिए” और साथ ही उन्हें विष्णु जी को दिया हुआ वचन भी याद दिलाया.

मां लक्ष्मी को अपनी भूल का जब आभास हुआ तो उन्होंने भगवान विष्णु से इस भूल की क्षमा मांगी. विष्णु ने कहा कि तुमने जो भूल की है, उस की सजा तो तुम्हें अवश्य मिलेगी? जिस माली के खेत से तुमने बिना पूछे फूल तोड़ा है, यह एक प्रकार की चोरी है, इसीलिए अब तुम तीन वर्ष तक माली के घर नौकर बन कर रहो, उस के बाद मैं तुम्हें बैकुण्ठ में वपस बुलाऊंगा.ं

भगवान विष्णु का आदेश मां लक्ष्मी ने चुपचाप सर झुका कर मान लिया, जिसके बाद मां लक्ष्मी ने एक गरीब औरत का रूप धारण किया और उस खेत के मालिक के घर गईं. माधव नाम के उस माली का एक झोपड़ा था जहां माधव की पत्नी, दो बेटे और तीन बेटियां रहती थीं.

मां लक्ष्मी जब एक साधारण औरत बन कर माधव के झोपड़े पर गईं तो माधव ने पूछा, ‘बहन तुम कौन हो?’ तब मां लक्ष्मी ने कहा, मैं एक गरीब औरत हूं, मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं, मैंने कई दिनों से खाना भी नहीं खाया, मुझे कोई भी काम दे दो. मैं तुम्हारे घर का काम कर दूंगी और इसके बदले में आप मुझे अपने घर के एक कोने में आसरा दे दो.

माधव बहुत ही अच्छे दिल का मालिक था, उसे दया आ गई, लेकिन उस ने कहा, बहन मैं तो बहुत ही गरीब हूं, मेरी कमाई से मेरे घर का खर्च काफी कठिनाई से चलता है, लेकिन अगर मेरी तीन की जगह चार बेटियां होतीं तो भी मुझे गुजारा करना था, अगर तुम मेरी बेटी बन कर जैसा रूखा-सूखा हम खाते हैं उसमें खुश रह सकती हो तो बेटी अन्दर आ जाओ.

माधव ने मां लक्ष्मी को अपने झोपड़े में शरण दी और मां लक्ष्मी तीन साल उस माधव के घर पर नौकरानी बन कर रहीं. कथा के अनुसार कहा जाता है कि जिस दिन मां लक्ष्मी माधव के घर आईं थी उसके दूसरे दिन ही माधव को फूलों से इतनी आमदनी हुई कि शाम को उसने एक गाय खरीद ली. फिर धीरे-धीरे माधव ने जमीन खरीद ली और सबने अच्छे-अच्छे कपड़े भी बनवा लिए. कुछ समय बाद माधव ने एक बडा पक्का घर भी बनवा लिया. माधव हमेशा सोचता था कि मुझे यह सब इस महिला के आने के बाद मिला है, इस बेटी के रूप में मेरी किस्मत आ गई है.

एक दिन माधव जब अपने खेतों से काम खत्म करके घर आया तो उसने अपने घर के द्वार पर गहनों से लदी एक देवी स्वरूप औरत को देखा. जब निकट गया तो उसे आभास हुआ कि यह तो मेरी मुंहबोली चौथी बेटी यानि वही औरत है. कुछ समय के बाद वह समझ गया कि यह देवी कोई और नहीं बल्कि स्वयं मां लक्ष्मी हैं.

यह जानकर माधव बोला, “हे मां हमें क्षमा करें, हमने आपसे अनजाने में ही घर और खेत में काम करवाया, हे मां यह कैसा अपराध हो गया, हे मां हम सब को माफ़ कर दे.”

यह सुन मां लक्ष्मी मुस्कुराईं और बोलीं, “हे माधव तुम बहुत ही अच्छे और दयालु व्यक्त्ति हो, तुमने मुझे अपनी बेटी की तरह रखा, अपने परिवार का सदस्य बनाया, इसके बदले मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि तुम्हारे पास कभी भी खुशियों की और धन की कमी नहीं रहेगी, तुम्हें सारे सुख मिलेंगे जिसके तुम हकदार हो. इसके पश्चात मां लक्ष्मी अपने स्वामी के द्वारा भेजे रथ में बैठकर वैकुण्ठ चली गईं.
$~~●●°°°°  जब इंसानी दुनिया में प्रवेश कर ले जिन्न  °°°°●●~~$

धर्म चाहे कोई भी हो लेकिन सच यही है कि सभी धर्म अपने-अपने तरीके से पारलौकिक ताकतों में भरोसा करते हैं. ईश्वर, अल्लाह, जीसस आदि को तो सभी मानते हैं लेकिन जिस प्रकार सच्ची और अच्छी ताकतों का घेराव हमारे आसपास है वैसे ही कुछ बुरी ताकतें भी हर समय हमें नुकसान पहुंचाने की फिराक में रहती हैं और हर धर्म में उन्हें अलग-अलग नाम से जाना जाता है. हिंदू धर्म में उन्हें आत्माएं, प्रेत और पिशाच, ईसाई डेविल या स्पिरिट और इस्लाम धर्म में जिन्नों के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है. भूत-प्रेत और आत्माओं के बारे में तो हम आपको कई बार बता चुके हैं लेकिन आज हम आपको जिन्नों के विषय में कुछ विशिष्ट जानकारियां प्रदान करने वाले हैं. इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग जरूर जिन्नों के विषय में बहुत हद तक जानकारी रखते होंगे लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जो सभी को जाननी जरूरी है, जैसे:


1. जिन्न शब्द का अर्थ और इनका उद्भव: जिन्न अरबी भाषा से लिया गया शब्द है क्योंकि सबसे पहले जिन्नों के होने का एहसास अरबी देशों में ही हुआ था. इस शब्द का अर्थ अंग्रेजी भाषा के ही एंजेल्स की अवधारणा से मिलता-जुलता है जिसका अर्थ अलौकिक और ना दिखने वाली ताकत है. कुरान के अनुसार जिन्न का उद्भव हवाओं में से हुआ है, कह सकते हैं कि जिन्न नकारात्मक या सकारात्मक ऊपरी हवाओं से संबंधित है. इस्लाम की मान्यताओं के अनुसार मरने के पश्चात इंसान जिन्न बन जाता है और अपनी किसी इच्छा को पूरी करने के 1000 से 8000 वर्षों बाद दुनिया को छोड़कर चला जाता है.


2. जिन्न के प्रकार: जानकारों के अनुसार जिन्न को चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है. इन चारो ही तरह के जिन्न खतरनाक तो होते हैं लेकिन अलग-अलग तरीके से वह इंसानी दुनिया को प्रभावित करते हैं.

मानो या ना मानो लेकिन ऐसा भी होता है

(क) मरीद: जिन्न की सबसे खतरनाक और ताकतवर प्रजाति है मरीद. आपने कई बार इन्हें किस्सों और कहानियों में सुना होगा. लोकप्रिय कहानी अलादीन का चिराग में भी इसी जिन्न को शामिल किया गया था. इन्हें समुद्र या फिर खुले पानी में पाया जा सकता है. यह हवा में उड़ते हुए भी देखे जा सकते हैं.ै

(ख) इफरित: इंसानी दुनिया जैसे ही इफरित जिन्नों की भी दुनिया होती है जिसमें महिला और पुरुष दोनों इफरित साथ रहते हैं. यह इंसानों को समझने की ताकत रखते हैं और बहुत ही जल्द इंसानों को अपना दोस्त बना लेते हैं. इफरित अच्छे भी होते हैं और बुरे भी लेकिन इन पर विश्वास करना घातक सिद्ध हो सकता है.

अगर आप हैंडसम हैं तो आपके साथ भी ऐसा हो सकता है

(ग) सिला: सिला प्रजाति में सिर्फ महिला जिन्न ही होती हैं जो देखने में बेहद आकर्षक और खूबसूरत होती हैं. इंसानी दुनिया में विचरण तो करती हैं लेकिन उनसे दूरी भी रखती हैं. सिला ज्यादा मात्रा में देखी नहीं जातीं लेकिन वह मानसिक तौर पर मजबूत और बहुत समझदार होती हैं.


(घ) घूल: इंसानी मांस खाने वाली यह प्रजाति बहुत खौफनाक होती हैं. यह कब्रिस्तान के आसपास ही रहते हैं. इनका व्यवहार क्रूर और शैतान से मिलता-जुलता है इसीलिए इंसानों के लिए यह बहुत भयावह होते हैं.

(ङ) वेताल: यह वैम्पायर होते हैं, इंसानों के खून पर ही जिंदा रहते हैं. विक्रम वेताल की कहानियों में इसी वेताल का जिक्र था. यह भविष्य देख सकते हैं और जब चाहे भूतकाल में भी जा सकते हैं.

नीज स्वरुप

परमात्मा का स्वरूप क्या है और उसको पहचानने के उपाय क्या है?

प्रश्न तो उपासना करने पर ही समझ में आता है तथा गोपनीय भी है फिर भी जो मैं समझ सका हूँ वह यह है कि मूल रूप से नीज ( स्वयं ) का ही विशाल स्वरुप है। नीज दो नहीं हो सकते है नीज नित्य विद्यमान रहता है। वही प्रकृति के साथ मिलकर रुपमय हो जाता है तथा प्रकृति से हटकर अरुप हो जाता है।

चरम सत्य की बात तो ये है कि वह द्वैत भी नहीं हैअद्वैत भी नहीं है, सत्य व असत्य भी नहीं है और उसका कोई विकल्प नहीं है वह विश्वात्मक ( सारे संसार की आत्मा ) भी है और विश्वातित ( सारे विश्व से अलग ) भी है साथ में दोनों से रहित भी है। सब में वही है तथा उसी में सब ! कुछ नहीं होते हुए भी सब कुछ वहीं है। यही सच्चिदानंद का स्वरूप है।

महासत्ता में महंत्तता ( अहंकार ) से सहसा एक स्पंदन उठता है उसके उठने पर भी महासत्ता ज्यौं की त्यौं बनी रहती है। स्पंदन का उठना ही प्रणव ( ॐ ) का उल्लास हैं । इसी परब्रह्म सत्ता से शब्द ब्रह्म उत्पन्न हुआ। परब्रह्म के स्वरुप का संधान ( घर्षण ) महामाया में समत्व का उन्मेष उत्पन्न होता है इसी से ज्ञान का साक्षात्कार होता है तथा महामाया के उन्मेष ( स्पंदन ) से अनेक ज्ञान की शाखाएँ निकलती हैं।

प्रणव उल्लास से स्वयं प्रकाश बोध होता है और चित् सत् की अभिव्यक्ति माया में स्थित है इसका बोध भी है और चित् का माया से अलग होने पर सत्य का बोध होता है। तब चित् और सत् दोनों से ही नेगेटिव व पाजिटीव दोनों ही प्रकाश फट पड़ते है तथा दोनों मिलकर आनंद स्वरूप में परिणत हो जाते हैं। महामाया प्रणव की अर्द्धमात्रा ( बिंदु,हूं ( हूंकार )) ही है। महामाया शरीर प्रणव बीज नाद द्वारा अभिव्यक्त है तथा महामाया का ज्ञान या महामाया का भ्रूण अहंब्रह्मास्मी हैं ।

जिस समय ज्ञान हट जाता है, स्वभान बोध समाप्त हो जाता है और वही ब्रह्म,जीव शरीर भाव में आ जाता है और शरीर रहेगा तो अभिमान रहेगा। माया व महामाया से परे ही नित्य की अवस्था होती है।

"एकाग्रता" ये मन की एक मात्रा है तथा उनमना अवस्था ( व्याकुलता ) में प्रवेश होने के लिए करुणा भाव की आवश्यकता होती है। जब तक दीन व करुणा भाव नहीं होगा तब तक इस ओर जाना कठिन है। महामाया का शुद्ध रूप, विराट स्वरुप विश्व है। माया इसका मलीन रुप है और व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक होता है जब उनमना ( र्निविकल्प,निरहीन ) भूमि में प्रवेश होकर नीज स्वरुप को शिवोsहम् भाव में स्थापित करें तो ये सारी चीजें सहज में ही बोध हो जाएगी।

यज्ञों के गूढ़ रहस्यों के प्रतिपादक हैं आरण्यक

पं.चंद्रशेखर शास्त्री
वेदों के यज्ञीय विधान को स्पष्ट करने वाले ग्रंथ को ब्राह्मण कहा गया है। जिसमें तीन कांड हैं, कर्मकांड, उपासना कांड और ज्ञान कांड। इसके उपासना कांड को आरण्यक कहा गया है। आरण्यकों में ब्रह्मविद्या का विवेचन और यज्ञ के गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन किया गया है। आत्म तत्व, ब्रह्म तत्व, ब्रह्म और आत्मा, प्राण सिद्धान्त, ब्रह्म और जगत, पुनर्जन्म और कर्म सिद्धान्त तथा नैतिक मूल्यों पर इनमें विस्तृत विवेचना है।
ब्रह्मचारी ऋषियों द्वारा वेदों के दुर्गम ज्ञान को प्राणीमात्र के कल्याण के लिए सुलभ बनाने के उद्देश्य से जनशून्य अरण्य(वन) में इस विद्या का अनुसंधानपरक पठन पाठन किया गया, इसलिए इन्हें आरण्यक कहा जाता है।
आरण्यक आध्यात्मिक तत्वों की यथार्थ मीमांसा और ब्रह्मविद्या के रहस्यों को समाहित किए हुए हैं। सूक्ष्म अध्यात्मवाद के कारण नगरीय अथवा ग्रामीण कोलाहल से दूर अरण्यों में ब्रह्मचारी और वानप्रस्थी ऋषि गुरुओं द्वारा अरण्यवासी योग्य शिष्यों को प्रदान किया गया विशिष्ट ज्ञान ही आरण्यक ग्रंथों के रूप में उपलब्ध है।
आरण्यकों के अनुसार संपूर्ण ब्रह्माण्ड यज्ञमय है और यज्ञ ही समस्त सृष्टि का नियन्ता है। प्राण विद्या का विवेचन आरण्यकों का विशिष्ट विषय है। प्राण ही समस्त सृष्टि का आधार है। समस्त जगत प्राण से ही आवृत्त है। उसके द्वारा ही सभी प्राणी धारण किए गए हैं।
आरण्यकों के बिना वेदों को समझ पाना असंभव है। क्यों कि वेद ब्रह्मविद्या का ज्ञान है और ब्रह्मविद्या के रहस्य आरण्यकों में ही छिपे हुए हैं। इनमें जीवन शैली और जप तप के द्वारा ईश्वर को जानने का मार्ग बताया गया है। ये सभी आरण्यक संवाद शैली में लिखे गए हैं। इनमें गुरु उपदेश करता और शिष्य सुनता है। आपस्तंब धर्मसूत्र में तो मंत्र और ब्राह्मण(ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद) का संयोजन ही वेद कहा गया है। 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदानामधेयम्।
केवल तीन वेदों के आरण्यक ही उपलब्ध हैं। ऋग्वेद के दो (ऐतरेय आरण्यक एवं शांखायन अथवा कौषीतकी आरण्यक), यजुर्वेद के तीन ( शुक्ल यजुर्वेद का बृहदारण्यक और कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तरीय आरण्यक व मैत्रायणी आरण्यक) तथा सामवेद के छान्दोग्यारण्यक व जैमिनीय आरण्यक हैं। इसके अतिरिक्त सामवेद के पूर्वाचिक खंड में आरण्यक संहिता का भी उल्लेख है। अथर्ववेद में कोई आरण्यक नहीं है, पुनरपि पिप्लाद ब्राह्मण के गोपथ ब्राह्मण को अथर्ववेद के आरण्यक के रूप में माना जा सकता है।
ऐतरेय आरण्यक
ऋग्वेद के इस आरण्यक के पांच भाग हैं, जिन्हें आरण्यक ही कहा जाता है। इसके प्रथम आरण्यक में पांच, द्वितीय में सात, तृतीय में दो, चतुर्थ में एक और पांचवें में तीन अध्याय हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें अठारह अध्याय हैं। इसके प्रथमारण्यक में महाव्रत विवेचन है, दूसरे आरण्यक के प्रथम तीन अध्यायों में प्राण विद्या और पुरुष का वर्णन है। चार से षष्ठम आरण्यक तक ऐतरेयोपनिषद है। जिसमें यज्ञ के विधान का विशेष वर्णन है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार अग्नि, सूर्य और वायु आहुति ग्रहण करते हैं। तीसरे आरण्यक को संहितापनिषद कहा गया है क्यों कि इसमें संहिता, क्रम, पदपाठ वर्णन और स्वर व्यंजन आदि के स्वरूप का विवरण है। चतुर्थ आरण्यक में महाव्रत के पांचवें दिन में प्रयुक्त होने वाली महानाम्नी ऋचाओं का वर्णन है तथा पांचवें आरण्य में महाव्रत के मध्यान्दिन वनक्षेत्र में पढ़े जाने वाले निष्कैवल्य शास्त्र का विवेचन है। ऐतरेय में प्राण को ही विश्वमित्र, वशिष्ठ, वामदेव, अत्रि और भारद्वाज बताया गया है।
शांखायन आरण्यक
इसे कौषतकि आरण्यक भी कहा गया है। यह भी ऋग्वेद का ही आरण्यक है। इसमें कुल पंद्रह अध्याय और 137 खंड हैं। इसके पहले दो अध्यायों को ब्राह्मणभाग माना जाता है और तीन से छ:अध्याय तक कौषीतकि उपनिषद के रूप में जाना जाता है। षष्ठम अध्याय में कुरुक्षेत्र, मत्स्य, उशीनर, काशी, पांचाल, विदेह आदि प्रदेशों का उल्लेख है। दशम अध्याय में यज्ञ के रहस्यों को गूढ़ विधान को और पूजा पद्धति को लक्ष्यकर लिखा गया है। एकादश अध्याय में रोग और मृत्यु पर विजय कैसे पाई जाए और स्वप्न का क्या अर्थ होता है, इस पर विशद वर्णन है। बारहवां अध्याय प्रार्थनाओं के फल पर लिखा गया है। तेरहवें अध्याय में उपनिषदों से अनेक उदाहरण लिए गए हैं। महाव्रत आदि कृत्यों के सहित इसमें भी ऐतरेय आरण्यक के समान ही विषयों का विवेचन किया गया है।
बृहदारण्यक
शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण की मध्यान्दिन और काण्व दोनों शाखाओं के अंतिम छ: अध्यायों को बृहदारण्यक कहा जाता है। इसमें आरण्यक और उपनिषद दोनों का मिश्रण है। बृहदारण्यक अन्य आरण्यकों की अपेक्षा अधिक बड़ा है। इसके अध्यायों के भागों को ब्राह्मण कहा गया है। बृहदारण्यक में छ: अध्याय हैं। इसके प्रथम अध्याय में अश्वमेध यज्ञ के रहस्य का विवेचन है। इससे आगे प्रजापति के पुत्र देव और असुरों के विग्रह का वर्णन है। ऋत्विक धर्म का विवेचन है। दूसरे अध्याय में दृप्तबालाकि गार्ग्य और अजातशत्रु का संवाद है। इसी अध्याय के चतुर्थ भाग में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का विश्वप्रसिद्ध संवाद है। तीसरे और चौथे अध्याय में जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद है। पांचवें अध्याय में उपासना के प्रकार और गायत्री की उपासना पर विशद विवेचन है। छठे अध्याय में पंचाग्नि विद्या और संतानोत्पत्ति पर विवेचना है। इसमें आत्म तत्व का विस्तृत उपदेश है और बीच बीच में यज्ञ के रहस्यों का वर्णन है।
मध्यान्दिन और काण्व दोनों ही शाखाओं के बृहदारण्यकों में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद तथा ब्रह्मवादिनी मैत्रेयी व गार्गी का संवाद है।
तैत्तरीय आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा का आरण्यक है। इसमें दस प्रपाठक या परिच्छेद (भाग)हैं। हर प्रपाठक के कई अनुवाक (अध्याय) हैं, कुल मिलाकर 170 अनुवाक हैं। सातवें से नौवें प्रपाठक को तैत्तरीयोपनिषद कहा जाता है। दशम प्रपाठक महानारायणीयोपनिषद है। जिसे तैत्तरीय आरण्यक का परिशिष्ट माना जाता है। इसके प्रथम प्रपाठक में अग्नि की उपासना और इष्ट चयन का वर्णन है। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय और पंच महायज्ञों के विधान का वर्णन है। तीसरे प्रपाठक में चतुर्होम के उपयोगी मंत्रों का विवेचन है और चतुर्थ प्रपाठक में अभिचारपरक मंत्रों का वर्णन है। पंचम प्रपाठक में यज्ञीय संकेत भाषा का वर्णन है। षष्ठम प्रपाठक में पितृमेध संबंधी मंत्रों का वर्णन है। सप्तम प्रपाठक में यज्ञोपवीत और यज्ञ विधान पर विस्तृत चर्चा है।
मैत्रायणी आरण्यक
यह कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा से संबंधित है। इसे मैत्रायणी उपनिषद भी कहा जाता है। इसमें सात प्रपाठक हैं। पांचवें प्रपाठक से कैत्सायनी स्तोत्र का प्रारंभ होता है। इसमें ईश्वर को अग्नि और प्राण बताते हुए उन पर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें विश्व सृष्टि का उपाख्यान है। प्रकृति के सत्व, रजस और तमस गुणों का संबंध ब्रह्म, विष्णु और रुद्र से किया गया है। इसमें ऋग्वेद के साथ साथ सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को भी समन्वित किया है। इस आरण्यक का विषय विवेचन तीन प्रश्नों के रूप में प्रकट होता है, पहला- आत्मा भोतिक शरीर में किस प्रकार प्रवेश पाता है। दूसरा- परमात्मा किस प्रकार भूतात्मा बनता है और तीसरा- दु:खात्मक स्थिति से मुक्ति किस प्रकार मिल सकती है।
तवल्कार आरण्यक
सामवेद की जैमिनीय शाखा से संबंधित इस आरण्यक को जैमिनीय आरण्यक भी कहते हैं। इसमें चार अध्याय हैं। जिनमें साम मंत्रों का सुंदर विवेचन किया गया है। इस आरण्यक के चतुर्थ अध्याय को केनोपनिषद भी कहते हैं। ब्रह्म और परब्रह्म पर इसमें विस्तृत चर्चा की गई है। तवल्कार में ब्रह्म के रहस्यमय स्वरूप का विवेचन किया गया है। परब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता का विवेचन भी किया गया है। तवल्कार में वायु, अग्नि आदि को ब्रह्म का ही विकसित रूप कहा गया है और जीवात्मा को परब्रह्म का अंश बताया गया है।
छान्दोग्य आरण्यक
सामवेद के ताण्ड्य ब्राह्मण से संबंधित इस ब्राह्मण में दस अध्याय हैं, प्रथम दो को आरण्यक कहा गया है, जो आख्यायिका स्वरूप है। इसके शेष आठ अध्याय और 143 खंड छांदोग्य उपनिषद कहे जाते हैं। इसमें ओंकार उपासना, साम उपासना, मधु विद्या, ब्रह्म उपासना, इंद्रिय परीक्षा, अश्वपति और उद्दालक संवाद और दहर ब्रह्म की उपासना के आख्यान हैं। सामन् और उद्गीथ की आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या की गई है। इसमें तत्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म और उपासनाओं का विस्तृत वर्णन है। इसमें अमृत विद्या भी विवेचन है। विश्व समाज को प्रसिद्ध वेदान्त वाक्य तत्वमसि इसी से प्राप्त हुआ है।
आरण्यक : एक दृष्टि
ऐतरेय आरण्यक: 5 आरण्यक, 18 अध्याय
शांखायन आरण्यक : 15 अध्याय, 137 खंड
बृहद आरण्यक : 6 अध्याय, 47 ब्राह्मण
तैत्तरीय आरण्यक : 10 प्रपाठक, 170 अनुवाक
मैत्रायणी आरण्यक : 7 प्रपाठक
छान्दोग्य आरण्यक : 10 अध्याय
तवल्कार आरण्यक : 4 अध्याय

Friday, 18 July 2014

समझने वाले बहुत कम लोग बचे हैं

प्रकृति (ईश्वर) के नियमों का पालन करना धर्म कहलाता है इसका एक ही कानून है कि इस धरती पर पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति सभी कर्म करने के लिए स्वतंत्र है वशर्ते उसके कर्म से किसी भी जड़ या चेतन को कोई आपत्ति न हो, न ही किसी का कोई नुकसान हो, धर्म का यही मूल नियम है, यदि कोई व्यक्ति इसका उलंघन करता है तो उसके लिए ईश्वर द्वारा इस प्रकार की प्रक्रिया बनाई गई है कि मनुष्य प्रकृति के नियम के विपरीत किए गए कर्म के फल स्वरूप ही दुख बीमारी एवं दंड भोगता रहता है। परंतु अज्ञान के कारण वह इसे समझ नहीं पाता कि वह अपने स्वयं के कर्मों का फल भोग रहा है, वह इसका दोष हमेशा ईश्वर, भाग्य या अन्य किसी को देता है, जबकि ईश्वर न तो कभी किसी को दुख देता है न ही सुख देता है। मनुष्य जो भी सुख दुख प्राप्त करता है इसके लिए उसके कर्म ही जबावदार होते हैं। प्रतिक्रिया हेतु कर्म का उद्देश्य प्रमुख होता है क्योंकि एक ही कर्म के अच्छे या बुरे कई उद्देश्य हो सकते हैं। यदि मनुष्य प्रकृति या जीवों का विनाश करता है तब उसका भी विनाश निश्चित है। इस घरती पर पैदा होने वाले मनुष्य सहित प्रत्येक जीव को ईश्वर द्वारा रहने खाने एवं जीने का हक समान रूप से दिया गया है, परंतु आज स्वार्थी लोगों द्वारा मनुष्य सहित अन्य जीवों के इस हक को छीना जा रहा है जिससे आगे चलकर इसके भयानक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।                 
                          इस धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक जीव अपने जीवनकाल में दो ही कार्य करता है एक तो अपने जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना एवं दूसरा दुख निवृति कर सुख प्राप्ति का प्रयास करना। विज्ञान को तो अभी यह भी मालूम नहीं है कि पृथ्वी पर मनुष्य क्यों पैदा होता है एवं उसके जीवन का लक्ष्य क्या है तथा उसके जीवन की इकाई क्या है। घार्मिक ग्रथों में मनुष्य जीवन के चार लक्ष्य बतलाए गए हैं।
1. घर्म 2. अर्थ 3. कर्म 4. मोक्ष। 
                       उपरोक्त चार लक्ष्य प्राप्ति के लिए चार वेद लिखे गए हैं। गायत्री मंत्र के चार चरण इन चार वेदों का सार है। कलयुग में अब मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य अर्थ अर्थात धन कमाना ( वह भी अनैतिक तरीके से ) ही शेष बचा है, कर्म भी दिशाहीन हो गया है धर्म का स्वरूप बदल चुका है और मोक्ष तो समाप्त ही हो चुका है।
                    संसार में कई धर्म प्रचलित हैं परंतु इन धर्मों में कुछ समानताऐं भी हैं, जैसे सभी धर्म ईश्वर को निराकार मानते हैं इसी कारण किसी भी धर्म में ईश्वर का कोई चित्र या मूर्ति नहीं है। ( निराकार का अर्थ है जिसका कोई आकार न हो जो त्रिविमीय आकाश में कोई जगह न घेरता हो अर्थात जिसका आयतन शून्य हो)। सभी धर्म एक मत से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं एवं इसे जीवन की इकाई मानते हैं। सभी धर्मों में ईश्वर तक पहुंचने का माध्यम ध्यान होता है, चूंकि शरीर को ध्यान के योग्य बनाने के कई तरीके होते हैं अतः अपने अपने धर्म संस्थापकों द्वारा बतलाए गए तरीकों के आधार पर धर्म यहां से अलग अलग हो जाते है तथा एक ही धर्म में धर्म गुरुओं के आधार पर कई संप्रदाय बन जाते हैं, परंतु सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य होता है ईश्वर तक पहुंचना। धार्मिक ग्रथों में ईश्वर को निराकार निर्विकार निर्लिप्त सर्वव्यापी एवं सर्व शक्तिमान कहा गया है। वर्तमान में धर्म को समझने वाले बहुत कम लोग बचे हैं, अब धर्म अंधविश्वास व्यवसाय एवं राजनीति तक सीमित रह गया है। वैज्ञानिक क्रियाओं को हम भौतिक साधनों द्वारा प्रमाणित कर सकते हैं, देख सकते हैं एवं  दूसरों को भी दिखा सकते हैं। आध्यात्मिक क्रियाओं को हम स्वयं तो प्रमाणित कर सकते हैं परंतु इन्हें हम दूसरों को नहीं दिखा सकते क्योंकि घर्म पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है भौतिक रूप से इसका कोई महत्व नहीं है न ही इस क्षेत्र में किसी की नकल की जा सकती है। आध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए हमें सबसे पहिले मन पर नियंत्रण करना सीखना होता है इसके बिना इस क्षेत्र में कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि धर्म एक मानसिक प्रक्रिया है इसका भौतिक रूप में कोई महत्व नहीं है भौतिक रूप में सिर्फ यज्ञ का महत्व होता है जो पर्यावरण शुद्धि के लिए है। आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य वास्तिविक ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना है। आधुनिक धर्म के ठेकेदारों ने धर्म को भौतिक सुख प्राप्ति का साधन बताकर इसके वास्तविक स्वरूप को बदलकर इसे व्यवसाय, राजनीति एवं साम्प्रदायिकता फैलाने का साधन बना लिया है जिससे मनुष्य अंध विश्वास और लालच में फंसकर अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है, जब कि धर्म का भौतिक सुख सुविधा, अंधविश्वास, चमत्कार आदि से कोई संबंध नहीं है। धर्म स्वस्थ सुखी एवं दीर्धायु जीवन जीने के लिए एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। यह धरती मनुष्य की कर्म भूमि है यहां बिना कर्म किए किसी को कुछ नहीं मिलता भगवान और भाग्य के भरोसे कुछ प्राप्त करने की इच्छा रखना मूर्खों का काम है।
तुलसीदास ने कहा है कि:-
       सकल पदारथ है जग मांहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।।
                    गीता में भी श्रीकृष्ण ने कर्म का ही उपदेश दिया है। किसी भी देवी देवता का कृपा पात्र बनने के लिए संसार में आसक्ति को छोड़कर उन देवी देवता तक पहुंचना जरूरी है। धर्म एवं आध्यात्म विज्ञान को समझने के लिए सबसे पहिले ईश्वर को समझना आवश्यक है।

निर्मल दृष्टि की प्राप्ति का क्या उपाय हैं ?

संसार में वस्तुओं को प्राप्त करने की उपासना तो अनेक लोग करते है लेकिन जो ईश्वर को ईश्वर के निमित्त प्रेम करता है वही सबसे बड़ा उपासक हैं। जो व्यक्ति ईश्वर की उपासना प्रारंभ करता है उसका विकास क्रम से होता है। इसकी समय सीमा हमारी मन व बुद्धि से जडत्व ( प्रकृति ( संसार प्राप्ती की इच्छा )) से जितनी जल्दी दूरी आप कर सकते हो ईश्वर उतना जल्दी मिल जाता है। जगत तो खेल तुम ईश्वर के साथ खिलाड़ी की तरह खेलों उसमें बिना हार जीत व बिना सुख दुख के उस खेल को दरीद्रो की झोपडी में भी देखना सीखो व विशालतम राज भवन में भी देखना सीखो । पाप व पुण्य के चक्कर में न पड़े। अपना अहं जो जड़त्व है उस को निकाल कर फेकों । तथा अनासक्त (आसक्ति रहित) के पथ पर चलो तभी तुम्हें आश्चर्यजनक रहस्य समझ में आएगा। उसकी क्रियाशीलता में स्पंदन व गहन निश्छल शांति प्राप्त होगी। इस जगत का रहस्य प्रतिक्षण कार्य व प्रतिक्षण शांति है अगर हममें सबलता है (इंद्रजित) तो स्व रुप में स्थित होकर सहज समाधि भाव में पहुँच जाओं ओर अगर इंद्रियों से कमजोर हो तो सभी के हृदय में स्थित परमात्मा की उपासना करो। इंद्रियों के कारण मनुष्य हमेशा प्रकृति का दास रहा है। व दासत्व की मुक्ति के दो ही तरीके है जो उपर बताएँ हैं। आलस्य ही हमारा सबसे बड़ा शत्रु हैं। जिसके कारण पूजा पाठ,ध्यान व ईश्वर की आराधना में बाधा उत्पन्न करता है। अज्ञानी व्यक्ति अपने आप को सबसे ज्यादा बुद्धिमान व वीर मानता है। इसलिए कदम-कदम पर अनुचित फल पाता है। ज्ञानी मनुष्य भावुकता व कर्तव्य में अंतर रखता है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करता है तथा ज्ञानी को शोक व भय नहीं होता है। अंधविश्वास व आलस्य के सामने घुटने नहीं टेकता है। मन बुद्धि के हाथ में विवेक व स्वभान को नहीं बेचता है। ये निश्चित है कि मनुष्य को कर्म करने के लिए भगवान ने स्वतंत्रता दी है। महापुरुषों के अनुभव का साहित्य व क्षुतिया भी उसके सामने रखी है पर परमात्मा ने ये नहीं कहा कि तुम ऐसा करो या वैसा करो। कर्म के लिए वह स्वतंत्र है इसलिए कर्म के अनुरूप उसको फल की प्राप्ति होती है जो भोगना ही पड़ती हैं चाहे उसमें सुख का अनुभव करें या दुख का। साधक की ऊंचाई पर जाने में सहायता होगी अगर वह अपनी सत्ता से भी परे जाने का प्रयास करे तथा शरीर पर या इंद्रियों पर ( मन,चित्,बुद्धि,अहंकार) अपने आप को स्थिर ना करे अन्यथा ये सारा खेल कब्रिस्तान का हैतुम एक बार खड़े होकर अपनी आत्मा की महिमा को तो देखो। ( सभी इच्छाओं का परित्याग ) तो हमारी इंद्रियां स्थिर प्रज्ञ बन कर बिना कुछ किए ही भीतर में खींच जाएगी और शिवत्व का बोध हो जाएगा।

Thursday, 17 July 2014

*** अँग्रेजी भाषा के बारे में भ्रम ***
आज के मैकाले मानसों द्वारा अँग्रेजी के पक्ष में तर्क और उसकी सच्चाई :
1. अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है:: दुनिया में इस समय 204देश हैं और मात्र 12 देशों में अँग्रेजी बोली, पढ़ी और समझी जाती है। संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है। इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीहअंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। पूरी दुनिया में जनसंख्या के हिसाब से सिर्फ 3% लोग अँग्रेजी बोलते हैं। इस हिसाब से तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा चाइनिज हो सकती है क्यूंकी ये दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाती है और दूसरे नंबर पर हिन्दी हो सकती है।
2. अँग्रेजी बहुत समृद्ध भाषा है:: किसी भी भाषा की समृद्धि इस बात से तय होती है की उसमें कितने शब्द हैं और
अँग्रेजी में सिर्फ 12,000 मूल शब्द हैं बाकी अँग्रेजी के सारे शब्द चोरी के हैं या तो लैटिन के, या तो फ्रेंचके, या तो ग्रीक के, या तो दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ देशों की भाषाओं के हैं। उदाहरण: अँग्रेजी में चाचा, मामा, फूफा, ताऊ
सब UNCLE चाची, ताई, मामी, बुआ सब AUNTY क्यूंकी अँग्रेजी भाषा में शब्द ही नहीं है। जबकि गुजराती में अकेले 40,000 मूल शब्द हैं। मराठी में 48000+ मूल शब्द हैं जबकि हिन्दी में 70000+ मूल शब्द हैं। कैसे माना जाए अँग्रेजी बहुत समृद्ध भाषा है ? अँग्रेजी सबसे लाचार/पंगु/ रद्दी भाषा हैक्योंकि इस भाषा के नियम कभी एक से नहीं होते। दुनिया में सबसे अच्छी भाषा वो मानी जाती है जिसके नियम हमेशा एक जैसे हों, जैसे: संस्कृत। अँग्रेजी में आज से 200 साल पहले This की स्पेलिंग Tis होती थी। अँग्रेजी में 250 साल पहले Nice मतलब
बेवकूफ होता था और आज Nice मतलब अच्छा होता है। अँग्रेजी भाषा में Pronunciation कभी एक सा नहीं होता। Today को ऑस्ट्रेलिया मेंTodie बोला जाता है जबकि ब्रिटेन में Today. अमेरिका और ब्रिटेन में इसी बात
का झगड़ा है क्योंकि अमेरीकन अँग्रेजी में Zका ज्यादा प्रयोग करते हैं और ब्रिटिश अँग्रेजी में S का, क्यूंकी कोई नियम ही नहीं है और इसीलिए दोनों ने अपनी अपनी अलग अलग अँग्रेजी मान ली।
3. अँग्रेजी नहीं होगी तो विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई नहीं हो सकती:: दुनिया में 2 देश इसका उदाहरण हैं की बिना अँग्रेजी के भी विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई होटी है- जापान और फ़्रांस । पूरे जापान में इंजीन्यरिंग, मेडिकल के जीतने भी कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं सबमें पढ़ाई"JAPANESE" में होती है, इसी तरह फ़्रांस में बचपन से लेकर उच्चशिक्षा तक सब फ्रेंच में पढ़ाया जाता है। हमसे छोटे छोटे, हमारे शहरों जितने देशों में हर
साल नोबल विजेता पैदा होते हैं लेकिन इतने बड़े भारत में नहीं क्यूंकी हम विदेशी भाषा में काम करते हैं और विदेशी भाषा में कोई भी मौलिक काम नहीं किया जा सकता सिर्फ रटा जा सकता है। ये अँग्रेजी का ही परिणाम है
की हमारे देश में नोबल पुरस्कार विजेता पैदा नहीं होते हैं क्यूंकी नोबल पुरस्कार के लिए मौलिक काम करना पड़ता है और कोई भी मौलिक काम कभी भी विदेशी भाषा में नहीं किया जा सकता है। नोबल पुरस्कार के लिए
P.hd, B.Tech, M.Tech की जरूरत नहीं होती है। उदाहरण: न्यूटन कक्षा 9 में फ़ेल हो गया था, आइंस्टीन कक्षा 10 के आगे पढे ही नही और E=hv बताने वाला मैक्स प्लांक कभी स्कूल गया ही नहीं। ऐसी ही शेक्सपियर,
तुलसीदास, महर्षि वेदव्यास आदि के पास कोई डिग्री नहीं थी, इन्होने सिर्फ अपनी मात्र भाषा में काम किया। जब हम हमारे बच्चों को अँग्रेजी माध्यम सेहटकर अपनी मात्र भाषा में पढ़ाना शुरू करेंगे तो इस अंग्रेज़ियत से हमारा रिश्ता टूटेगा। क्या आप जानते हैं जापान ने इतनी जल्दी इतनी तरक्की कैसे कर ली ?  क्यूंकी जापान के लोगों में अपनी मात्र भाषा से जितना प्यार है उतना ही अपने देश से प्यार है। जापान के बच्चों में बचपन से कूट- कूट कर राष्ट्रीयता की भावना भरी जाती है।
* जो लोग अपनी मात्र भाषा से प्यार नहीं करते वो अपने देश से प्यार नहीं करते सिर्फ झूठा दिखावा करते हैं। 
*दुनिया भर के वैज्ञानिकों का मानना है की दुनिया में कम्प्युटर के लिए सबसे अच्छी भाषा 'संस्कृत' है। सबसे
ज्यादा संस्कृत पर शोध इस समय जर्मनी और अमेरिका चल रही है। नासा ने 'मिशन संस्कृत' शुरू किया है और अमेरिका में बच्चों के पाठ्यक्रम में संस्कृतको शामिल किया गया है। सोचिए अगर अँग्रेजी अच्छी भाषा होती तो ये अँग्रेजी को क्यूँ छोड़ते और हम अंग्रेज़ियत की गुलामी में घुसे हुए है। कोई भी बड़े सेबड़ा तीस मार खाँ अँग्रेजी बोलते समय सबसे पहले उसको अपनी मात्र भाषा में सोचता है और फिर उसको दिमाग में Translate करता है
फिर दोगुनी मेहनत करके अँग्रेजी बोलता है। हरव्यक्ति अपने जीवन के अत्यंत निजी क्षणों मेंमात्र भाषा ही बोलता है। जैसे: जब कोई बहुत गुस्सा होता है तो गाली हमेशा मात्र भाषा में ही देता हैं।
॥ मात्रभाषा पर गर्व करो.....अँग्रेजी की गुलामी छोड़ो॥ —
वैदो की और लोटो
सद् गुरु जीव की यात्रा कैसे कराता हैं ?

सद् गुरु शिष्य का पहले भेद ज्ञान समाप्त करते है। तभी उसमें स्वयं कर्ता भाव की समाप्ति होती है और जीव चीतात्तमक भाव में रहता है। माया,महामाया के प्रभाव से मुक्त रहता है। शिव कभी शक्ति विहीन नहीं होता है शिव महाप्रकाश है इसलिए नित्य व्यक्त है । इसलिए गुरु शिष्य को शिव के साथ एकता कराने का प्रयास करता है। सद् गुरु में करुणा व जीव के उद्धार की इच्छा होना चाहिए जैसे माता मल मूत्र से भरे बच्चे को स्वच्छ करने में स्वयं को गंदा होने का भान नहीं करती है। इसी तरह गुरु भी होते है। पर शिष्य का अपने गुरु पर कितनी श्रद्धा व विश्वास है ये उस पर निर्भर करता है। वो जीव बड़ा सौभाग्यशाली होता है जिसको सद् गुरु मिल जाए। अनेक जन्मों के भोग विलास के बाद जीव को सद् गुरु की कृपा से निर्वत्ति मार्ग का दरवाजा खुलता है। पूर्ण शिवत्व का ज्ञान तो शिव होने के बाद ही ज्ञात होता है। महाकरुणा का भाव ही गुरु या भगवान का महा प्रेम है। संविद को ही देवीयाँ कहते है तथा इन्हीं संविद से ज्ञान तथा चैतन्य का उदय होता है। मनुष्य अपने पूरे जीवन में ३५ % ही अपनी इच्छाओं को पूरा कर पाता है। यदि हमें शक्ति संपन्न शिव बनना है तो स्थूल,सूक्ष्म,कारण,महाकारण इन सभी स्थितियों को समाप्त करना होगा । केवल विचार से, शिव सोच लेने से हममें कोई शक्ति नहीं होगी। वो केवल खयालों का पुलाव होगा। जिससे हम न तो ज्ञान की दृष्टि से और न विज्ञान की दृष्टि से प्रकृति में न कुछ बना पाएगें न कुछ बिगाड़ पाएगें। जब से हम माँ के पेट में आए है तभी से स्वतंत्रता की समाप्ति हो गई व बंधन प्रारंभ हो गया। बंधन कई है ( योनि बंधन,जाति बंधन,राष्ट्र के नियम,शिक्षा,आजीविका,भूख,प्यास,कामवासना,व्यवसाय आदि) तथा बचपन,युवा,पौढ़,वृद्धा,मृत्यु इन्हीं अवस्थाओं में जीरों से लेकर १०० वर्ष व्यतीत कर देते है। जरा सोच कर देखें क्या मिला। केवल एक साइकिल के पहिये की तरह घूमता हुआ जीवन जिसमें पैडल के हिसाब से उतार व चढ़ाव। कर्मों से बंधा हुआ जीवन दरिद्रता,व्यापार,दौलत,सुख या दुख,दुखमय मृत्यु या मंगलमय मृत्यु क्या जीवन का यही सार है। शून्य से जीव का विकास होता ब्रह्म अवस्था में,विष्णु अवस्था में,रुद्र अवस्था में,ईश्वर अवस्था में तथा सदाशिव अवस्था में पहुँचता है तथा रोधीनि शक्ति ही उसे ९९ कलाओं से परे बिंदु में ले जाती है। तब ही ये बिंदु फूटता है और सिंधु बन जाता है। तब बिंदु सिंधु का अंतर समाप्त हो जाता है। ये सारा खेल माया से प्रारंभ होकर महामाया,योगमाया,ब्रह्मा,विष्णु,महेश,ईश्वर,सदाशिव इन पदों से गुजरता हुआ रोधीनि शक्ति को रौदता हुआ शब्दातीत,ज्ञानातीत,भावातीत,दिव्य अनुभव युक्त पूर्ण अर्मत्व,पूर्ण पूर्णता,ऐकेश्वर वाद ( शुद्ध अद्वैत ) में मिल जाता हैं।

Wednesday, 16 July 2014

मंत्र दो प्रकार के होते हैं

मंत्र साधना से पाये आनंद
मंत्र विज्ञान मंत्र एक गूढ़ ज्ञान है। सद्गुरु की कृपा एवं मन को एकाग्र कर जब इसको जान लिया जाता है, तब यह साधक की सभी मनोकामनाओं को पूरा करता है। मंत्रागम के अनुसार दैवी शक्तियों का गूढ़ रहस्य मंत्र में अंतर्निहित है। व्यक्ति की प्रसुप्त या विलुप्त शक्ति को जगाकर उसका दैवीशक्ति से सामंजस्य कराने वाला गूढ़ ज्ञान मंत्र कहलाता है। यह ऐसी गूढ़ विद्या है जो साधकों को दु:खों से मुक्त कर न केवल उनकी सभी मनोकामनाओं को पूरा करती है, बल्कि उनको परम आनंद तक ले जाती है। मंत्र विद्या विश्व के सभी देशों, मानवजाति, धर्माें एवं संप्रदायों में हजारों-लाखों वर्षो से आस्था एवं विश्वास के साथ प्रचलित है।
मंत्रों के प्रकार
मंत्र दो प्रकार के होते हैं- वैदिक मंत्र एवं तांत्रिक मंत्र। वैदिक संहिताओं की समस्त ऋचाएं वैदिक मंत्र कहलाती हैं और तंत्रागमों में प्रतिपादित मंत्र तांत्रिक मंत्र कहलाते हैं। तांत्रिक मंत्र तीन प्रकार के होते हैं— बीज मंत्र, नाम मंत्र एवं माला मंत्र। बीज मंत्र भी तीन प्रकार के होते हैं — मौलिक बीज, यौगिक बीज तथा कूट बीज। इसी तरह माला मंत्र दो प्रकार के होते हैं— लघु माला मंत्र एवं बृहद माला मंत्र।
बीज मंत्र
दैवी या आध्यात्मिक शक्ति को अभिव्यक्ति देने वाला संकेताक्षर बीज कहलाता है। इसकी शक्ति एवं रूप अनंत हैं। बीज मंत्र विभिन्न देवताओं, धर्मो एवं उनके संप्रदायों की साधनाओं के माध्यम से साधक को भिन्न-भिन्न प्रकार के रहस्यों से परिचित करवाता है। शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, जैन एवं बौद्ध धर्मो के सभी संप्रदायों में ‘ह्रीं’, ‘कलीं’ एवं ‘श्रीं’ आदि बीजों का मंत्रसाधना में समान रूप से प्रयुक्त होना इसका साक्ष्य है।
बीज मंत्र समस्त अर्थो का वाचक एवं बोधक होने के बावजूद अपने आपमें गूढ़ है। अपने आराध्य देव का समस्त स्वरूप इसके बीज मंत्र में निहित होता है। ये बीज मंत्र तीन प्रकार के होते हैं— मौलिक, यौगिक व कूट। इनको कुछ आचार्य एकाक्षर, बीजाक्षर एवं घनाक्षर भी कहते हैं। जब बीज अपने मूल रूप में रहता है तब मौलिक बीज कहलाता है, जैसे- ऐं, यं, रं, लं, वं, क्षं आदि। जब यह बीज दो वर्षो के योग से बनता है, तब यौगिक कहलाता है, जैसे- ह्रीं, क्लीं, श्रीं, स्त्रीं, क्ष्रौं आदि।
इसी तरह जब बीज तीन या उससे अधिक वर्षो से बनता है, तब यह कूट बीज कहलाता है। यह श्रीविद्या, जैन एवं बौद्ध मंत्रों में अधिक मिलते हैं। खास बात यह है कि बीज मंत्रों में समग्र शक्ति विद्यमान होते हुए भी गुप्त रहती है।
नाम मंत्र
बीज रहित मंत्रों को नाम मंत्र कहते हैं, जैसे- ‘ú नम: शिवाय’, ‘ú नमो नारायणाय’ एवं ‘ú नमो भगवते वासुदेवाय’ आदि। इन मंत्रों के शब्द उनके देवता, उनके रूप एवं उनकी शक्ति को अभिव्यक्ति देने में समर्थ होते हैं। इसलिए इन मंत्रों को भक्तिभाव से कभी भी सुमिरन किया जा सकता है।
माला मंत्र
कुछ आचार्यो के अनुसार 20 अक्षरों से अधिक और अन्य आचार्यो के अनुसार 32 अक्षरों से अधिक अक्षर वाला मंत्र माला मंत्र कहलाता है, जैसे- ‘ऊँ क्लीं देवकीसुत गोविंद वासुदेव जगत्पते। देहि में तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गत:।’
माला मंत्रों के वर्णो की पूर्व मर्यादा 20 या 32 अक्षर हैं, लेकिन इनकी उत्तर मर्यादा का मंत्रशास्त्र में उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए माला मंत्र कभी-कभी छोटे और कभी-कभी अपेक्षाकृत अधिक लंबे होते हैं।
जीव को कैसे पता लगें की वह परमात्मा के नजदीक जा रहा है?
     ईश्वर की प्रतिष्ठा मनुष्य अपने मानसिक स्तर पर करता है। जो जितने द्ढ़ विश्वास से ईश्वर को अंदर प्रतिष्ठितकरता है। वो उतना ही शक्तिमान होता चला जाता है तथा उसकी दृष्टि निर्मल होती चली जाती है। मल हट जाताहै तथा दिव्य दृष्टि के प्राप्त होने पर विराट स्वरुप का अनुभव होता है। समभाव आने पर परमात्मा के चर्तभुज रुपके दर्शन होते है। मूल रूप से एक के सिवा दुसरा कोई है ही नहीं। माया,महामाया,योग शक्ति के कारण भेद उत्पन्नहुए है इसी कारण ये जीव अज्ञान में उलझकर भेद समझने लग जाता है और भेद के कारण ही 84 लाख योनियोंबनी है और भेद के कारण ही भय बना हैभय के कारण ही सुख दुख का अनुभव होता है। शक्ति के स्वरुप कासमाधान अब तक विज्ञान भी नहीं कर पाया है।
      शक्ति असीम विराट की व्यवस्था है। साधारण तौर पर जीव की इच्छा शक्ति के कारण ही सारा क्रिया कलापहो रहा है तथा इसी के कारण मैं  तू का भेद है मैं शुद्ध अहंकार है तू में करुणा जुड़ी हुई होती है। ( शुद्ध अहंकारकरुणा  ) मैं  तू दोनों एक हो जाने पर असीम सत्ता का अनुभव होने लगता है। आत्मा की स्वरुपा स्थिति कोही मोक्ष  कहते है। जब तक मनुष्य स्वरुपा स्थिति को प्राप्त नहीं करेगा तब तक शुभ अशुभ कर्म करता रहेगा तथाउसमें आसक्ति होने के कारण सुख दुख रुपी फल का बाध्य होकर भोग भोगेगा  आत्मा का पूर्ण तत्व ही ब्रह्मभाव है जो कि अंतरमुखी व्यवस्था होने पर प्राप्त होती है। जो कि या तो भगवत् अनुग्रह या गुरु कृपा ( शक्तिपात )से ही संभव है 
           
अज्ञान से संसार चलता है और अज्ञान की निवृत्ति पर ही जीव शक्ति संपन्न हो जाता है। ये हमेशा यादरखना चाहिए कि कर्म ही कर्म के अधीन है कर्म से ही शरीर चलता है। कर्म प्रकृति की प्रवृत्ति है। जिस समय देहकर्म नहीं करेगी उसी समय शरीर गिर जाएगा।
           
ईश्वर या गुरु की कृपा का अर्थ मन  बुद्धि पर से तीनों गुणों का आवरण हट जाता है तब जीव का बंधनभाव समाप्त हो जाता है। उस समय परमेश्वर नित्य,निर्मल  सर्वज्ञ आभासित होने लगता है। जीव को तमोगुणरुपी शक्ति हमेशा बांधें रहती है। वही सबसे अधिक उसके उद्धार के लिए बाधक है। इस मल उद्धार के लिएशब्दात्मक पवित्र नाम जपा जा सकता है। इससे मल का उद्धार धीमी गति से होता है। दान से भी मल का उद्धारहोता है पर अहंकार नहीं आना चाहिए। ध्यान से भी मल का उद्धार कुछ तीव्र गति से होने लगता है। जब मल काउद्धार होने लगता है तो दोनों बोहों के मध्य प्रकाश दिखाई देने लगता है और यदि संपूर्ण मल का उद्धार हो जाएं तोकण-कण में वह अनुभव होने लगता हैं।