गुरु के बिना गति नहीँ होती,ज्ञान नहीँ होता- यह बात कहाँतक ठीक है?
उत्तर- यह बात एकदम ठीक है,सच्ची है; परंतु केवल गुरु बनानेसे अथवा गुरु बनने से कल्याण,मुक्ति हो जाय-यह बात ठीक जँचती नहीँ।यदि गुरुके भीतर यह भाव रहता है कि 'मेरा एक संप्रदाय (टोली) बन जाय,मैँ एक बड़ा आदमी बन जाऊँ' आदि और शिष्यका भी यह भाव रहता है कि 'एक चद्दर,एक नारियल और एक रुपया देनेसे मेरा गुरु बन जायगा,गुरु मेरे सब पाप हर लेगा' आदि, तो ऐसे गुरु-शिष्यके संबंधमात्रसे कल्याण नहीँ होता।कारण कि जैसे सांसारिक माता-पिता,भाई-भौजाई,स्त्री-पुत्र का संबंध है,ऐसे ही गुरुका एक और संबंध हो गया!
जिनके दर्शन,स्पर्श,भाषण और चिँतनसे हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होते हैँ,हमे शांति मिलती है,हमारेमेँ दैवी-संपत्ति बिना बुलाये आती है और जिनके वचनोँसे हमारे भीतरकी शंकाएँ दूर हो जाती हैँ, शंकाओँका समाधान हो जाता है,भीतरसे परमात्माकी तरफ गति हो जाती है,पारमार्थिक बातेँ प्रिय लगने लगती हैँ,पारमार्थिक मार्ग ठीक-ठीक दीखने लगता है,ऐसे गुरुसे हमारा कल्याण होता है।यदि ऐसा गुरु (संत) न मिले तो जिनके संगसे हम साधनमेँ लगे रहेँ,हमारी पारमार्थिक रुचि बनी रहे,ऐसे साधकोँसे संबंध जोड़ना चाहिए।परंतु उनसे हमारा संबंध केवल पारमार्थिक होना चाहिए,व्यक्तिगत नहीँ।फिर भगवान ऐसी परिस्थिति,घटना भेजेँगे कि हमेँ वह संबंध छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा और वहाँ हमेँ अच्छे संत मिल जायँगे! वे संत चाहे साधुवेशमेँ हो,चाहे गृहस्थवेशमेँ,उनका संग करनेसे हमेँ विशेष लाभ होगा।तात्पर्य है कि भगवान प्रधानाध्यापककी तरह हैँ; वे समयपर स्वतः कक्षा बदल देते हैँ।अतः हमेँ भगवानपर विश्वास करके रुचिपूर्वक साधनमेँ लग जाना चाहिए।
गीतामेँ भगवानने कहा है कि 'जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैँ,वे सब कुछ जान जाते हैँ'(7.29)।अतः भगवानपर विश्वास और भरोसा रखते हुए साधन-संबंधी,भगवत्संबंधी बातेँ सुननी चाहिए और सत्कर्म,सच्चर्चा,सच्चिँतन करते हुए तथा सबके साथ सद्भाव रखते हुए साधन करना चाहिए।फिर किसी संतसे,किसी शास्त्रसे,किसी घटना आदिसे अचानक परमात्मतत्त्वका बोध जाग्रत हो जायगा।
यदि गुरु मिल गया और ज्ञान नहीँ हुआ तो वास्तव मेँ असली गुरु मिला ही नहीँ।असली गुरू मिल जाय और साधक साधनमेँ तत्पर हो तो ज्ञान हो ही जायगा।यह हो ही नहीँ सकता कि अच्छा साधक हो,असली संत मिल जाय और बोध न हो! एक कहावत है-
पारस केरा गुण किसा,पलट्या नहीँ लोहा।
कै तो निज पारस नहीँ,कै बिच रहा बिछोहा।।
तात्पर्य है कि यदि शिष्य गुरुसे दिल खोलकर सरलतासे मिले,कुछ छिपाकर न रखे तो शिष्यमेँ वह शक्ति प्रकट हो जाती है,जिस शक्तिसे उसका कल्याण हो जाता है।
गुरु-तत्त्व नित्य होता है और वह कहीँ भी किसी घटनासे,किसी परिस्थितिसे,किसी पुस्तकसे,किसी व्यक्ति आदिसे मिल सकता है।अतः गुरुके बिना ज्ञान नहीँ होता-यह बात सच्ची है।
उत्तर- यह बात एकदम ठीक है,सच्ची है; परंतु केवल गुरु बनानेसे अथवा गुरु बनने से कल्याण,मुक्ति हो जाय-यह बात ठीक जँचती नहीँ।यदि गुरुके भीतर यह भाव रहता है कि 'मेरा एक संप्रदाय (टोली) बन जाय,मैँ एक बड़ा आदमी बन जाऊँ' आदि और शिष्यका भी यह भाव रहता है कि 'एक चद्दर,एक नारियल और एक रुपया देनेसे मेरा गुरु बन जायगा,गुरु मेरे सब पाप हर लेगा' आदि, तो ऐसे गुरु-शिष्यके संबंधमात्रसे कल्याण नहीँ होता।कारण कि जैसे सांसारिक माता-पिता,भाई-भौजाई,स्त्री-पुत्र का संबंध है,ऐसे ही गुरुका एक और संबंध हो गया!
जिनके दर्शन,स्पर्श,भाषण और चिँतनसे हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होते हैँ,हमे शांति मिलती है,हमारेमेँ दैवी-संपत्ति बिना बुलाये आती है और जिनके वचनोँसे हमारे भीतरकी शंकाएँ दूर हो जाती हैँ, शंकाओँका समाधान हो जाता है,भीतरसे परमात्माकी तरफ गति हो जाती है,पारमार्थिक बातेँ प्रिय लगने लगती हैँ,पारमार्थिक मार्ग ठीक-ठीक दीखने लगता है,ऐसे गुरुसे हमारा कल्याण होता है।यदि ऐसा गुरु (संत) न मिले तो जिनके संगसे हम साधनमेँ लगे रहेँ,हमारी पारमार्थिक रुचि बनी रहे,ऐसे साधकोँसे संबंध जोड़ना चाहिए।परंतु उनसे हमारा संबंध केवल पारमार्थिक होना चाहिए,व्यक्तिगत नहीँ।फिर भगवान ऐसी परिस्थिति,घटना भेजेँगे कि हमेँ वह संबंध छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा और वहाँ हमेँ अच्छे संत मिल जायँगे! वे संत चाहे साधुवेशमेँ हो,चाहे गृहस्थवेशमेँ,उनका संग करनेसे हमेँ विशेष लाभ होगा।तात्पर्य है कि भगवान प्रधानाध्यापककी तरह हैँ; वे समयपर स्वतः कक्षा बदल देते हैँ।अतः हमेँ भगवानपर विश्वास करके रुचिपूर्वक साधनमेँ लग जाना चाहिए।
गीतामेँ भगवानने कहा है कि 'जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैँ,वे सब कुछ जान जाते हैँ'(7.29)।अतः भगवानपर विश्वास और भरोसा रखते हुए साधन-संबंधी,भगवत्संबंधी बातेँ सुननी चाहिए और सत्कर्म,सच्चर्चा,सच्चिँतन करते हुए तथा सबके साथ सद्भाव रखते हुए साधन करना चाहिए।फिर किसी संतसे,किसी शास्त्रसे,किसी घटना आदिसे अचानक परमात्मतत्त्वका बोध जाग्रत हो जायगा।
यदि गुरु मिल गया और ज्ञान नहीँ हुआ तो वास्तव मेँ असली गुरु मिला ही नहीँ।असली गुरू मिल जाय और साधक साधनमेँ तत्पर हो तो ज्ञान हो ही जायगा।यह हो ही नहीँ सकता कि अच्छा साधक हो,असली संत मिल जाय और बोध न हो! एक कहावत है-
पारस केरा गुण किसा,पलट्या नहीँ लोहा।
कै तो निज पारस नहीँ,कै बिच रहा बिछोहा।।
तात्पर्य है कि यदि शिष्य गुरुसे दिल खोलकर सरलतासे मिले,कुछ छिपाकर न रखे तो शिष्यमेँ वह शक्ति प्रकट हो जाती है,जिस शक्तिसे उसका कल्याण हो जाता है।
गुरु-तत्त्व नित्य होता है और वह कहीँ भी किसी घटनासे,किसी परिस्थितिसे,किसी पुस्तकसे,किसी व्यक्ति आदिसे मिल सकता है।अतः गुरुके बिना ज्ञान नहीँ होता-यह बात सच्ची है।