अस्तित्व का अभाव ही तो मृत्यु है।
याज्ञवल्क्य ने जाने कितने छात्रों को, जाने कितनी बार पढ़ाया होगा यह सूक्त। कितनी बार दुहराया होगा वह अर्थ जो उन्होंने अपने गुरु से सुना था। पर आज पहला मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, ‘‘न असत् आसीत् न सत् आसीत् तदानीं’’ कि हठात् रुक गये। शिष्यगण विस्मय से उन्हें देख रहे थे। उनके होठ खुले थे पर न तो उनमें कम्पन था न गति। शायद उन्हें यह बोध भी नहीं रह गया था कि उनके सामने उनके शिष्य भी बैठे हुए हैं। वह इस ऋचा पर नहीं रुके थे। पूरा सूक्त एक काली लौ की तरह उनकी चेतना में एक साथ काँप-सा रहा था। काली लौ। किसी को समझाना चाहें तो कितना कठिन होगा। समझेगा धुएँ या कुहासे की बात कर रहे हैं। पर धुएँ और कुहासे को देखने के लिए भी प्रकाश तो चाहिए। यह तो सघन काले अँधेरे के बीच एक काली शिखा के काँपने की अनुभूति थी जो दृष्टिगम्य नहीं थी पर फिर भी अनुभूतिगम्य थी। अनुभूतिगम्य भी नहीं, बोधगम्य।
सत् नहीं, असत् नहीं, वायु नहीं, आकाश नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई गति नहीं, कोई आधार नहीं, मृत्यु नहीं, अमरता नहीं, न रात, न दिन, न प्रकाश, न अन्धकार।
‘‘नहीं, अन्धकार तो था। उबलता हुआ अन्धकार! तरल! अपने में ही छिपा हुआ! अन्धकार तो था।’’ उनके मुँह से निकला पर इस समय भी न तो उन्हें यह बोध था कि उनके शिष्य उनको विस्मय से देख रहे हैं न ही यह कि वह उन्हें पाठ पढ़ाने बैठे थे। वह अपने से आत्मालाप कर रहे थे। आत्मालाप भी नहीं। बोलते हुए सोच रहे थे।
परन्तु इस अन्धकार से पहले। तब, जब अन्धकार भी नहीं रहा होगा। जब कुछ न रहा होगा, तब क्या था? कुछ नहीं के होने को क्या कहेंगे वह? उसे अन्धकार कहना ठीक नहीं लग रहा था और उन्हें उस अवस्था के लिए कोई शब्द मिल नहीं रहा था। सूक्तकार को भी शब्द न मिला होगा। तभी तो अन्धकार कह दिया। भाषा तो उसके रचे हुए संसार को व्यक्त करने का साधन है। उस अरचित, अरूप, अनाकार को कैसे व्यक्त कर पाएगी। और फिर प्रश्न केवल भाषा का था भी नहीं। विकास की उस प्रक्रिया का था जिसका न तो कोई द्रष्टा था, न ज्ञाता। जो केवल अनुमान और ध्यान का विषय था। एक लम्बा समय गुजर गया अपने आप से जूझते। शास्त्रों और श्रुतियों में जो पढ़ा था उसे जोड़ते-मिलाते।
पर तभी, उनकी कल्पना के सामने उपस्थित उस अन्धकार से ही जैसे एक शब्द फूटा, कुछ यूँ कि जैसे अन्धकार ही सिमटकर शब्द बन गया हो, ‘मृत्यु’ उन्हें लगा उन्होंने इस शब्द को सोचा नहीं है, सुना है। एक अस्फुट विस्फोट के रूप में।
‘‘जब कुछ नहीं था तब मृत्यु थी।’’ जैसे कोई समझा रहा हो उन्हें, परम गुरु की भाँति, मृत्यु का कोई रूप या आकार तो है नहीं। अस्तित्व का अभाव ही तो मृत्यु है। रूप का, आकार का, क्रिया का, गति का, किसी का भी न रह जाना। यदि किसी का अस्तित्व था ही नहीं तो वह अन्धकार भी नहीं रहा होगा। मृत्यु ही रही होगी। अन्धकार का भी रूप उसी ने लिया होगा। यदि कोई अपने जन्म से पूर्व की अवस्था को नहीं समझ पाता तो परमेष्ठी कैसे समझ पाते। वह भी अपने पूर्व रूप को समझ न पाये। उस अन्धकार से पहले वह स्वयं मृत्यु रूप ही थे। जीवन और सृजन क्या जो नहीं था उसका हो जाना, जिसका अस्तित्व नहीं था उसका अस्तित्व में आ जाना ही नहीं है।
‘‘सब कुछ मृत्यु से निकला है। मृत्यु ही जीवन का गर्भ है। सृष्टि का मूल।’’ उनके मुँह से निकला। अब वह कुछ आत्मसजग हो गये थे।
शिष्यों पर दृष्टि गयी तो हँसी आ गयी, ‘‘सब कुछ उसी से निकला है। मृत्यु से ही। वही थी। मृत्युना एव इदं आवृतं आसीत्। मृत्यु से ही सब कुछ ढका हुआ था। क्षुधा से ही आवृत था सब कुछ। अशनाया से। अशनाया हि मृत्युः। मृत्यु क्षुधा का ही दूसरा नाम तो है। सब कुछ को निगलती चली जाती है यह। परम क्षुधा। अमिट और अनन्त भूख। इसी का कभी अन्त नहीं होता। सृष्टि से पहले भी यही थी और सृष्टि के बाद भी यही क्रियाशील रहती है। कभी अपने गर्भ में छिपी और कभी अपने को ही उद्घाटित करती। अपने से बाहर आकर अपने को ही ग्रसती।’’
‘‘अनन्त भूख। यही तो मृत्यु की लालसा है। और इसी से सब कुछ पैदा हुआ। मृत्यु की इस लालसा से ही।’’
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