सच्चा सन्यासी कौन है ?
मेरा व्यक्तिगत मत है कि यह संसार कायर व पलायनवादि लोगों के लिए नहीं है सफलता असफलता की चिंता नहीं करते हुए जो व्यक्ति निष्काम कर्म करता है तथा अपने को किसी भी मत मतांत्रो के बंधन में नहीं डालते हुए समता भाव में इसी संसार में रहकर आनंदित होता है कोई व्यक्ति जंगल में भी जाकर एकांतवास में भी वासनाओं की जुबाली करता है वह सन्यासी नहीं हो सकता व न ही संत । संसार परमात्मा ने सभी के लिए बनाया है इसलिए गृहस्थ आश्रम या सन्यास आश्रम दोनों में भी मस्ती से जीया जा सकता है। परमात्मा ने सृष्टि में तीन अवस्थाएं बनाई है १ . रुप :- उस रुप से हमारा आकार,वज़न आदि जाने जा सकते है। २ . नाम :- इसके आधार पर हमारा व्यक्तिगत परिवार व जाति का परिचय,राष्ट्र का परिचय,मृत्यु जगत का परिचय आदि किस लोक के है जाना जा सकता है। ३ . भाव :- यही सर्वश्रेष्ठ परमात्मा का दिया हुआ उपहार है भाव सृष्टि का सूक्ष्मतम रुप है। सारा संसार समरस है। कोई भी वैज्ञानिक ये निश्चय पूर्वक नहीं कह सकता है कि समग्र विश्व की उत्पत्ति कौन-कौन से परमाणु तत्व से हुई हो इसलिए भाव ही जानकारी के लिए प्रेरणा का कारण बनता है तथा भाव ही एक ऐसी गति है जो विश्व की हर चेतन जीव को जोड़ने की गति देता है तथा वही बताता है कि तुम ही विश्वआत्मा का एक अंश हो व सारी विश्वआत्मा एक ही है व एक ही तत्व से बनी है। अनादि समय में केवल मात्र प्रकाश की ही पूजा होती थी इसलिए चीटीं से लगाकर ब्रह्म जगत तक कोई भेद नहीं था। सब तरफ समत्व व प्रेम ही प्रेम था। लेकिन हम समत्व से नीचे उतरने लगे तथा नाम रुप के चक्कर में आने लगे तब से भेद भाव प्रारंभ हुआ छोटे बड़े का भेदभाव हुआ। द्वैतवाद,विशिष्टा अद्वैतवाद ( जैसे अवतारवाद,देवी देवता,दानव,मानव,पशु पक्षी,कीट पतंग) राष्ट्रवाद आदि जितने भी भेद किए जाएं काला गौरा पैदा हुए और इन्हीं कारणों से ये जीव फंस कर अशांत तथा लडने झगड़ने वाला हो गया उस असीन ने तो ससीम को तो निर्वाह के लिए ( खाने पीने,रहने ) भूमि,जल,वायु,प्रकाश,शांत आकाश आदि पंच तत्व दिए । उसने किसी प्रकार का भेद नहीं किया। जब से भेद प्रारंभ हुआ तब से ही भय प्रारंभ हुआ। इसलिए सही सन्यासी तो नाम रुप के चक्कर से उपर उठ कर समभाव में स्थिर होता है। वही सही सन्यासी व संत हैं ।
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