~●●●°°° सद्गुरु (महापुरुष) की क्या पहचान है? °°°●●●~
सद्गुरु या महापुरुष को पचानना अति कठिन है| संसार में पुस्तकों को पढ़कर या थोडा बहुत जानकार तथा पुराणों या उपनिषदों के ज्ञान पर प्रवचन देकर व्यक्ति अपने आप को सद्गुरु या संत के पद पर आसीन करवा लेता है| भोले भाले ईश्वर से प्रेम करने वाले व्यक्ति उसके वाणी विलास (लच्छेदार भाषा) के चक्कर में आ जाते हैं तथा ऐसे लोग अपने आप को सद्गुरु घोषित कर स्वयं को पुजाने या सामने वाले से सब कुछ समर्पण करवाने का प्रयास करते है| जिससे भोलेभाले (मोक्ष की चाह रखने वाले) तन मन धन से ठगा जाते है| तथा उनमें सच्चा ज्ञान उदय नहीं होने से ये लोक भी बेकार हो जाता है और आने वाला जन्म बिगाड़ देते हैं| सद्गुरु का ना तो कोई वेश होता है (लाल कपडा, दाढ़ी, मूछ , भगुआ कपड़ा) ना ही कोई विशाल आश्रम और ना ही कोई सम्पदा होती है| वह स्वसिद्ध होते हैं उनकी कोई चाह नहीं होती ना ही वो किसी से कंठ माला पहनता है, वह तो हर वक़्त मस्त मौला फ़कीर होता है जो अपने आप को जीत कर समर्थ होता है| उसके पास कोई वाणी विलास नहीं होती है| सीधी सदाई बात होती है उसको ये भी चिंता नहीं होती है की कोई भी शिष्य बने या न बने, ऐसे लोग बिलकुल एकांत में रहते हैं और उनकी मनोभूमि तुरिदा (अन्मना) होती है| तथा शिष्य को बातों से नहीं बल्कि बीज मंत्र से आत्मानुभूति करवा देते हैं| ये वास्तव में सत्य है की गुरुकृपा बिना निसर्ग का भाव नहीं होता है तथा सारे संशय नीज स्वरुप बिना समाप्त नहीं होते हैं| जब नीज स्वरुप का भान होता है तो माया रहित, गुण रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, आकर निराकार रहित, कर्म रहित,विचार रहित, भाव रहित, इन्द्रियों से परे कालातीत अवस्था को पा जाता है| इसी को निजस्वरूप कहते हैं| सद्गुरु अरबों में एक होता है जिसकी पहचान हमारी बुद्धि से परे होती है और वही ईश्वर स्वरुप होता है| ऐसा व्यक्ति जिसको मिल जाए उसका जीवन तो पारस के सामान हो जाता है| सद्गुरु ब्रह्मशोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ होता है| सत्य तो यह है की वह सब कुछ है और कुछ भी नहीं| वो चोबिसों घंटे आनंद में रहता है और जो भी उसके पास बेठे उसे भी नेस्टिक शान्ति का अनुभव होने लगता हैं| ऐसे गुरु लोग ना तो किसी की बुराई करते हैं ना ही कुछ बुरा सोचते हैं, बल्कि शांत ...परम शांत होते हैं| तथा उनके सम्बन्ध में विचार करना भगवान के सम्बन्ध में विचार करने जैसा होता है| क्योंकि उनके पास ना तो कोई कर्मकाण्ड ना कोई ज्योतिषकाण्ड ना कोई ज्ञानकाण्ड केवल उनके पास तो प्रेम का स्वरुप होता है तथा स्वयं तो सारे बंधन तोड़ चुके होते हैं तथा उनके सान्निध्य में भी जो जाता है उसके भी बंधन तोड़ देते हैं क्योंकि सच्चा प्रेम तो वैराग्य,करुणा और व्याकुलता की भूमि पर ही प्रेम पैदा होता है तब ही व्यक्ति प्रेमास्पद होता है|
ऐसे ही गुरु की चरणों में बेठने पर सारे द्रष्टिकोण बदल जाते हैं और अहम् ब्रह्मास्मि का भाव पैदा हो जाता है| सो अहम्, तत्वमसि प्रज्ञान ब्रह्म ये चारों वेड बिना पढ़ ही पढ़ लेता है | सारे मत मतान्तर और जाति पाति ख़त्म हो जाती है| तप बिना तेज पैदा नहीं होता तथा शून्य भाव में पहुँचने पर ही मन और बुद्धि को विश्रांति मिलती है| ज्ञान तो केवल बुद्धि को साफ़ करता है इसलिए सद्गुरु की ख़ोज नितांत आवश्यक होती है और जब वह मिल जाए तो श्रद्धा और विशवास से उसके चरणों में बेठना ही श्रेष्ठ है| श्रद्धा ही जीव को ईश्वर या गुरु से जोड़ती है और विश्वास ही उसकी प्रतिकुलता को समाप्त करता है| जीव को सबसे अधिक प्रेम परमात्मा ही करता है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है | परमात्मा अति दयालु है वह हमेशा बिना कुछ लिए देता ही रहता है| भगवत कृपा का फल ही परम शान्ति होता है| उसकी कृपा से ही पूर्ण श्रद्धा और विश्वास जमता है| कठिन तपस्या का फल ही विश्वास होता है| जब विश्वास हो जाता है तो परमात्मा के प्रति प्रेम प्रकट हो जाता है | प्रेम ही जीवन में बहार है| वो परमात्मा से उसी से वर्तमान भूतकाल भविष्यकाल तीनों में फल एक जेसा रहता है और संसार का प्रेम तीनों काल में एक जेसा नहीं रहता| ये बदलने वाला है |
सच्चा साधु वह है (सच्चा संत) जो अपने आप को छिपा कर रखता है तब ही वह नेस्टिक आनंद में रहता है| अगर वह अपने आप को प्रकट करता है तो वह अशांति को अपनी ओर आमंत्रित कर लेता है | इन्द्रियों का सुख तात्कालिक सुख है बाद में दुख देने वाला व मन को बैचेन करने वाला है इसलिए सच्चा साधक झूठे रिश्ते नाते व इंद्री सुख में नहीं उलझता है| वह तो अपने आप में खोया रहना ही पसंद करता है |
सद्गुरु या महापुरुष को पचानना अति कठिन है| संसार में पुस्तकों को पढ़कर या थोडा बहुत जानकार तथा पुराणों या उपनिषदों के ज्ञान पर प्रवचन देकर व्यक्ति अपने आप को सद्गुरु या संत के पद पर आसीन करवा लेता है| भोले भाले ईश्वर से प्रेम करने वाले व्यक्ति उसके वाणी विलास (लच्छेदार भाषा) के चक्कर में आ जाते हैं तथा ऐसे लोग अपने आप को सद्गुरु घोषित कर स्वयं को पुजाने या सामने वाले से सब कुछ समर्पण करवाने का प्रयास करते है| जिससे भोलेभाले (मोक्ष की चाह रखने वाले) तन मन धन से ठगा जाते है| तथा उनमें सच्चा ज्ञान उदय नहीं होने से ये लोक भी बेकार हो जाता है और आने वाला जन्म बिगाड़ देते हैं| सद्गुरु का ना तो कोई वेश होता है (लाल कपडा, दाढ़ी, मूछ , भगुआ कपड़ा) ना ही कोई विशाल आश्रम और ना ही कोई सम्पदा होती है| वह स्वसिद्ध होते हैं उनकी कोई चाह नहीं होती ना ही वो किसी से कंठ माला पहनता है, वह तो हर वक़्त मस्त मौला फ़कीर होता है जो अपने आप को जीत कर समर्थ होता है| उसके पास कोई वाणी विलास नहीं होती है| सीधी सदाई बात होती है उसको ये भी चिंता नहीं होती है की कोई भी शिष्य बने या न बने, ऐसे लोग बिलकुल एकांत में रहते हैं और उनकी मनोभूमि तुरिदा (अन्मना) होती है| तथा शिष्य को बातों से नहीं बल्कि बीज मंत्र से आत्मानुभूति करवा देते हैं| ये वास्तव में सत्य है की गुरुकृपा बिना निसर्ग का भाव नहीं होता है तथा सारे संशय नीज स्वरुप बिना समाप्त नहीं होते हैं| जब नीज स्वरुप का भान होता है तो माया रहित, गुण रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, आकर निराकार रहित, कर्म रहित,विचार रहित, भाव रहित, इन्द्रियों से परे कालातीत अवस्था को पा जाता है| इसी को निजस्वरूप कहते हैं| सद्गुरु अरबों में एक होता है जिसकी पहचान हमारी बुद्धि से परे होती है और वही ईश्वर स्वरुप होता है| ऐसा व्यक्ति जिसको मिल जाए उसका जीवन तो पारस के सामान हो जाता है| सद्गुरु ब्रह्मशोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ होता है| सत्य तो यह है की वह सब कुछ है और कुछ भी नहीं| वो चोबिसों घंटे आनंद में रहता है और जो भी उसके पास बेठे उसे भी नेस्टिक शान्ति का अनुभव होने लगता हैं| ऐसे गुरु लोग ना तो किसी की बुराई करते हैं ना ही कुछ बुरा सोचते हैं, बल्कि शांत ...परम शांत होते हैं| तथा उनके सम्बन्ध में विचार करना भगवान के सम्बन्ध में विचार करने जैसा होता है| क्योंकि उनके पास ना तो कोई कर्मकाण्ड ना कोई ज्योतिषकाण्ड ना कोई ज्ञानकाण्ड केवल उनके पास तो प्रेम का स्वरुप होता है तथा स्वयं तो सारे बंधन तोड़ चुके होते हैं तथा उनके सान्निध्य में भी जो जाता है उसके भी बंधन तोड़ देते हैं क्योंकि सच्चा प्रेम तो वैराग्य,करुणा और व्याकुलता की भूमि पर ही प्रेम पैदा होता है तब ही व्यक्ति प्रेमास्पद होता है|
ऐसे ही गुरु की चरणों में बेठने पर सारे द्रष्टिकोण बदल जाते हैं और अहम् ब्रह्मास्मि का भाव पैदा हो जाता है| सो अहम्, तत्वमसि प्रज्ञान ब्रह्म ये चारों वेड बिना पढ़ ही पढ़ लेता है | सारे मत मतान्तर और जाति पाति ख़त्म हो जाती है| तप बिना तेज पैदा नहीं होता तथा शून्य भाव में पहुँचने पर ही मन और बुद्धि को विश्रांति मिलती है| ज्ञान तो केवल बुद्धि को साफ़ करता है इसलिए सद्गुरु की ख़ोज नितांत आवश्यक होती है और जब वह मिल जाए तो श्रद्धा और विशवास से उसके चरणों में बेठना ही श्रेष्ठ है| श्रद्धा ही जीव को ईश्वर या गुरु से जोड़ती है और विश्वास ही उसकी प्रतिकुलता को समाप्त करता है| जीव को सबसे अधिक प्रेम परमात्मा ही करता है क्योंकि वह परमात्मा का अंश है | परमात्मा अति दयालु है वह हमेशा बिना कुछ लिए देता ही रहता है| भगवत कृपा का फल ही परम शान्ति होता है| उसकी कृपा से ही पूर्ण श्रद्धा और विश्वास जमता है| कठिन तपस्या का फल ही विश्वास होता है| जब विश्वास हो जाता है तो परमात्मा के प्रति प्रेम प्रकट हो जाता है | प्रेम ही जीवन में बहार है| वो परमात्मा से उसी से वर्तमान भूतकाल भविष्यकाल तीनों में फल एक जेसा रहता है और संसार का प्रेम तीनों काल में एक जेसा नहीं रहता| ये बदलने वाला है |
सच्चा साधु वह है (सच्चा संत) जो अपने आप को छिपा कर रखता है तब ही वह नेस्टिक आनंद में रहता है| अगर वह अपने आप को प्रकट करता है तो वह अशांति को अपनी ओर आमंत्रित कर लेता है | इन्द्रियों का सुख तात्कालिक सुख है बाद में दुख देने वाला व मन को बैचेन करने वाला है इसलिए सच्चा साधक झूठे रिश्ते नाते व इंद्री सुख में नहीं उलझता है| वह तो अपने आप में खोया रहना ही पसंद करता है |
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