एक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हूं
रामचरितमानस के रचनाकार संत शिरोमणि तुलसीदास के जीवन से उद्धृत एक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हूं!
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ।
दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्मके दिन था।
उस दिन प्रातःकाल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में इस दैवी ग्रन्थ का लेखन सम्पन्न हुआ।
संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके पश्चात् भगवान की आज्ञा से तुलसीदासजी काशी चले आए ।
वहां उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया ।
रात्रिको ग्रंथ विश्वनाथ-मन्दिरमें रख दिया ।
प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो ग्रंथ पर लिखा हुआ पाया गया- ’सत्यं शिवं सुन्दरम्’ जिसके नीचे भगवान् शंकर के हस्ताक्षर (पुष्टि) थे।
उस समय वहां उपस्थित लोगों ने “सत्यंशिवं सुन्दरम्” की ध्वनि भी अपने कानों से सुनी।
इधर काशी के पण्डितों को जब यह ज्ञात हुआ तो उनके मन में ईर्ष्याउत्पन्न हुई ।
वे दल बनाकर तुलसीदासजी की निन्दा और उस ग्रंथ को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे।
उन्होंने ग्रंथ चुराने के लिये दो चोर भी भेजे।
चोरों ने जाकर देखाकि तुलसीदासजी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये सुरक्षा कर रहे हैं।
दोनों युवक बडे ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे।
उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई ।
उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड दिया और भगवान के भजन में लग गये।
तुलसीदासजी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी की सम्पूर्ण सामग्री लुटा दी और ग्रंथ अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दिया।
इसके पश्चात् उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्तिसे एक दूसरी प्रति लिखी।
उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गईं और ग्रंथ का प्रचार दिनों-दिन बढने लगा।
इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस ग्रंथ को दिखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की।
मधुसूदन सरस्वतीजी ने उसे देखकर बडी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी:-
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है:-
”काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता- फिरता तुलसी का पौधा है।
उसकी काव्य- मञ्जरी बडी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।”
पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ।
तब ग्रंथ की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया।
काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान् विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया।
प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है।
अब तो सभी पण्डित बडे लज्जित हुए।
उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
प्रिय मित्रो........
मँगलकामनाओ के साथ सुप्रभात.!
रामचरितमानस के रचनाकार संत शिरोमणि तुलसीदास के जीवन से उद्धृत एक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हूं!
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ।
दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्मके दिन था।
उस दिन प्रातःकाल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में इस दैवी ग्रन्थ का लेखन सम्पन्न हुआ।
संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके पश्चात् भगवान की आज्ञा से तुलसीदासजी काशी चले आए ।
वहां उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया ।
रात्रिको ग्रंथ विश्वनाथ-मन्दिरमें रख दिया ।
प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो ग्रंथ पर लिखा हुआ पाया गया- ’सत्यं शिवं सुन्दरम्’ जिसके नीचे भगवान् शंकर के हस्ताक्षर (पुष्टि) थे।
उस समय वहां उपस्थित लोगों ने “सत्यंशिवं सुन्दरम्” की ध्वनि भी अपने कानों से सुनी।
इधर काशी के पण्डितों को जब यह ज्ञात हुआ तो उनके मन में ईर्ष्याउत्पन्न हुई ।
वे दल बनाकर तुलसीदासजी की निन्दा और उस ग्रंथ को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे।
उन्होंने ग्रंथ चुराने के लिये दो चोर भी भेजे।
चोरों ने जाकर देखाकि तुलसीदासजी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये सुरक्षा कर रहे हैं।
दोनों युवक बडे ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे।
उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई ।
उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड दिया और भगवान के भजन में लग गये।
तुलसीदासजी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी की सम्पूर्ण सामग्री लुटा दी और ग्रंथ अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दिया।
इसके पश्चात् उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्तिसे एक दूसरी प्रति लिखी।
उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गईं और ग्रंथ का प्रचार दिनों-दिन बढने लगा।
इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस ग्रंथ को दिखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की।
मधुसूदन सरस्वतीजी ने उसे देखकर बडी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी:-
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है:-
”काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता- फिरता तुलसी का पौधा है।
उसकी काव्य- मञ्जरी बडी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।”
पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ।
तब ग्रंथ की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया।
काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान् विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया।
प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है।
अब तो सभी पण्डित बडे लज्जित हुए।
उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ।
दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्मके दिन था।
उस दिन प्रातःकाल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में इस दैवी ग्रन्थ का लेखन सम्पन्न हुआ।
संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके पश्चात् भगवान की आज्ञा से तुलसीदासजी काशी चले आए ।
वहां उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया ।
रात्रिको ग्रंथ विश्वनाथ-मन्दिरमें रख दिया ।
प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो ग्रंथ पर लिखा हुआ पाया गया- ’सत्यं शिवं सुन्दरम्’ जिसके नीचे भगवान् शंकर के हस्ताक्षर (पुष्टि) थे।
उस समय वहां उपस्थित लोगों ने “सत्यंशिवं सुन्दरम्” की ध्वनि भी अपने कानों से सुनी।
इधर काशी के पण्डितों को जब यह ज्ञात हुआ तो उनके मन में ईर्ष्याउत्पन्न हुई ।
वे दल बनाकर तुलसीदासजी की निन्दा और उस ग्रंथ को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे।
उन्होंने ग्रंथ चुराने के लिये दो चोर भी भेजे।
चोरों ने जाकर देखाकि तुलसीदासजी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये सुरक्षा कर रहे हैं।
दोनों युवक बडे ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे।
उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई ।
उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड दिया और भगवान के भजन में लग गये।
तुलसीदासजी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी की सम्पूर्ण सामग्री लुटा दी और ग्रंथ अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दिया।
इसके पश्चात् उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्तिसे एक दूसरी प्रति लिखी।
उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गईं और ग्रंथ का प्रचार दिनों-दिन बढने लगा।
इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस ग्रंथ को दिखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की।
मधुसूदन सरस्वतीजी ने उसे देखकर बडी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी:-
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है:-
”काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता- फिरता तुलसी का पौधा है।
उसकी काव्य- मञ्जरी बडी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।”
पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ।
तब ग्रंथ की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया।
काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान् विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया।
प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है।
अब तो सभी पण्डित बडे लज्जित हुए।
उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
प्रिय मित्रो........
मँगलकामनाओ के साथ सुप्रभात.!
रामचरितमानस के रचनाकार संत शिरोमणि तुलसीदास के जीवन से उद्धृत एक प्रसंग प्रस्तुत कर रही हूं!
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ।
दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्मके दिन था।
उस दिन प्रातःकाल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में इस दैवी ग्रन्थ का लेखन सम्पन्न हुआ।
संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके पश्चात् भगवान की आज्ञा से तुलसीदासजी काशी चले आए ।
वहां उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया ।
रात्रिको ग्रंथ विश्वनाथ-मन्दिरमें रख दिया ।
प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो ग्रंथ पर लिखा हुआ पाया गया- ’सत्यं शिवं सुन्दरम्’ जिसके नीचे भगवान् शंकर के हस्ताक्षर (पुष्टि) थे।
उस समय वहां उपस्थित लोगों ने “सत्यंशिवं सुन्दरम्” की ध्वनि भी अपने कानों से सुनी।
इधर काशी के पण्डितों को जब यह ज्ञात हुआ तो उनके मन में ईर्ष्याउत्पन्न हुई ।
वे दल बनाकर तुलसीदासजी की निन्दा और उस ग्रंथ को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे।
उन्होंने ग्रंथ चुराने के लिये दो चोर भी भेजे।
चोरों ने जाकर देखाकि तुलसीदासजी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये सुरक्षा कर रहे हैं।
दोनों युवक बडे ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे।
उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई ।
उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड दिया और भगवान के भजन में लग गये।
तुलसीदासजी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी की सम्पूर्ण सामग्री लुटा दी और ग्रंथ अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहां रखवा दिया।
इसके पश्चात् उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्तिसे एक दूसरी प्रति लिखी।
उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियां तैयार की गईं और ग्रंथ का प्रचार दिनों-दिन बढने लगा।
इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस ग्रंथ को दिखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की।
मधुसूदन सरस्वतीजी ने उसे देखकर बडी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी:-
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है:-
”काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता- फिरता तुलसी का पौधा है।
उसकी काव्य- मञ्जरी बडी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।”
पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ।
तब ग्रंथ की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया।
काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान् विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया।
प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है।
अब तो सभी पण्डित बडे लज्जित हुए।
उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा मांगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
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