Wednesday, 16 July 2014

वास्तविक प्रेम किसे कहते हैं  ?

  ईश्वर को केवल प्रेम से प्राप्त किया जा सकता है। तुलसीदास जी ने भी भगवान शिव के मुख से कहलाया हैं   
" हरि व्यापक सर्वत्र समाना प्रेमते प्रकट होई मैं जाना  "
      इसका अर्थ ये है कि ईश्वर तो सर्वत्र है लेकिन उसका साक्षात्कार  प्रेम बिना असंभव है। प्रेम की परिभाषा तत्व की दृष्टि से "मैं" से परे हट जाना ही है। प्रेम को समझने के लिए तीन बातों को समझना आवश्यक है प्रेम में किसी प्रकार का क्रय विक्रय नहीं होता है। हम सोचते है कि ये व्यक्ति हमारा प्रेमी है इनसे हमें हर समय मदद की है या नहीं मैनें तो हमेशा इसकी मदद की है ऐसा सोचना भी प्रेम जगत में प्रेम को नहीं समझना है। प्रेमी तो अपने प्रेमी के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देता है उसके बदले में कोई चाह (इच्छा) नाम की बात ही नहीं होती है जैसे उदाहरण के तौर पर वीर हनुमान जी। प्रेम में पुरस्कार भी नहीं होता है न प्रेमी पुरस्कार चाहता है, न प्रशंसा, न किसी प्रकार का आदान प्रदान। यही सच्चे प्रेमी का लक्षण है। प्रेम तो सदा प्रेमी के लिए रोता है वह अपने प्रेमी का सच्चा उत्थान चाहता है जिसमें यदि स्वयं को भी हानि हो तो भी परवाह नहीं। 
          प्रेम का दूसरा तत्व है " भयवश प्रेम नहीं किया जाता है" भय वश प्रेम करना अधम का मार्ग है जैसे बहुत से लोग नरक के डर से भगवान से या हानि लाभ के डर से देवी देवताओं से प्रेम करते है। वह अधम मार्ग है। प्रेम में न तो कोई बड़ा होता है न कोई छोटा।
       "प्रेम इसलिए करो कि परमात्मा प्रेमास्पद है।" 
    प्रेम का तीसरा तत्व "प्रेम में कोई प्रतिद्वंदता नहीं होती है।" सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति से होता है जिसमें मन की शूरता, मन की सौंदर्यता और उदारता कूट-कूट कर भरी हो। सच्चा प्रेमी वह है जो अपने प्रेमी को जिताने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है स्वयं हार कर भी उसको जिताना चाहता है। 
                 ये तीनों बातें जिस जीव या साधक में हो वही परमात्मा से सच्चा प्रेम कर सकता है क्योंकि प्रेम की वाणी मौन होती है तथा आँखों से जल बरसता है और हाथ अपने प्रेमी की सेवा करने के लिए तत्पर रहते है जैसे श्रीकृष्ण व सुदामा । प्रकृति तत्व व ईश्वर तत्व से उदाहरण स्वरुप श्री राधा व श्रीकृष्ण ! श्री राधे ने अपने लिए अपने आराध्य (श्रीकृष्ण) से कुछ नहीं चाहा केवल मात्र अपने आराध्य की इच्छा में अपनी इच्छा। प्रेम तभी सफल होता है जब अपने हृदय के अंदर प्रेमी के प्रति प्रतिद्वंदता,भय या आदान प्रदान रहित होकर प्रेमास्पद बन जाए तो वही प्रेम आनंदमय हो जाता है।

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