Thursday, 17 July 2014

सद् गुरु जीव की यात्रा कैसे कराता हैं ?

सद् गुरु शिष्य का पहले भेद ज्ञान समाप्त करते है। तभी उसमें स्वयं कर्ता भाव की समाप्ति होती है और जीव चीतात्तमक भाव में रहता है। माया,महामाया के प्रभाव से मुक्त रहता है। शिव कभी शक्ति विहीन नहीं होता है शिव महाप्रकाश है इसलिए नित्य व्यक्त है । इसलिए गुरु शिष्य को शिव के साथ एकता कराने का प्रयास करता है। सद् गुरु में करुणा व जीव के उद्धार की इच्छा होना चाहिए जैसे माता मल मूत्र से भरे बच्चे को स्वच्छ करने में स्वयं को गंदा होने का भान नहीं करती है। इसी तरह गुरु भी होते है। पर शिष्य का अपने गुरु पर कितनी श्रद्धा व विश्वास है ये उस पर निर्भर करता है। वो जीव बड़ा सौभाग्यशाली होता है जिसको सद् गुरु मिल जाए। अनेक जन्मों के भोग विलास के बाद जीव को सद् गुरु की कृपा से निर्वत्ति मार्ग का दरवाजा खुलता है। पूर्ण शिवत्व का ज्ञान तो शिव होने के बाद ही ज्ञात होता है। महाकरुणा का भाव ही गुरु या भगवान का महा प्रेम है। संविद को ही देवीयाँ कहते है तथा इन्हीं संविद से ज्ञान तथा चैतन्य का उदय होता है। मनुष्य अपने पूरे जीवन में ३५ % ही अपनी इच्छाओं को पूरा कर पाता है। यदि हमें शक्ति संपन्न शिव बनना है तो स्थूल,सूक्ष्म,कारण,महाकारण इन सभी स्थितियों को समाप्त करना होगा । केवल विचार से, शिव सोच लेने से हममें कोई शक्ति नहीं होगी। वो केवल खयालों का पुलाव होगा। जिससे हम न तो ज्ञान की दृष्टि से और न विज्ञान की दृष्टि से प्रकृति में न कुछ बना पाएगें न कुछ बिगाड़ पाएगें। जब से हम माँ के पेट में आए है तभी से स्वतंत्रता की समाप्ति हो गई व बंधन प्रारंभ हो गया। बंधन कई है ( योनि बंधन,जाति बंधन,राष्ट्र के नियम,शिक्षा,आजीविका,भूख,प्यास,कामवासना,व्यवसाय आदि) तथा बचपन,युवा,पौढ़,वृद्धा,मृत्यु इन्हीं अवस्थाओं में जीरों से लेकर १०० वर्ष व्यतीत कर देते है। जरा सोच कर देखें क्या मिला। केवल एक साइकिल के पहिये की तरह घूमता हुआ जीवन जिसमें पैडल के हिसाब से उतार व चढ़ाव। कर्मों से बंधा हुआ जीवन दरिद्रता,व्यापार,दौलत,सुख या दुख,दुखमय मृत्यु या मंगलमय मृत्यु क्या जीवन का यही सार है। शून्य से जीव का विकास होता ब्रह्म अवस्था में,विष्णु अवस्था में,रुद्र अवस्था में,ईश्वर अवस्था में तथा सदाशिव अवस्था में पहुँचता है तथा रोधीनि शक्ति ही उसे ९९ कलाओं से परे बिंदु में ले जाती है। तब ही ये बिंदु फूटता है और सिंधु बन जाता है। तब बिंदु सिंधु का अंतर समाप्त हो जाता है। ये सारा खेल माया से प्रारंभ होकर महामाया,योगमाया,ब्रह्मा,विष्णु,महेश,ईश्वर,सदाशिव इन पदों से गुजरता हुआ रोधीनि शक्ति को रौदता हुआ शब्दातीत,ज्ञानातीत,भावातीत,दिव्य अनुभव युक्त पूर्ण अर्मत्व,पूर्ण पूर्णता,ऐकेश्वर वाद ( शुद्ध अद्वैत ) में मिल जाता हैं।

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