Tuesday, 15 July 2014

कर्म का त्याग करना ठीक है की नहीं?

      जैसे की साधु सन्यासी कर्मों का त्याग कर देते हैं लेकिन वास्तव में कर्मों का त्याग नहीं होता है| जब तक देह है कर्म तो लगा ही रहेगा | कर्म को अगर हम सेवा में लगा दे तो वो त्याग से भी बढ़कर है | कर्म करते समय तीन बातों का ख्याल रखना आवश्यक है – कर्म में कामना, दूसरा ममता, तीसरा आसक्ति नहीं होना चाहिये | अगर ये चीजें हैं तो उसका कर्मफल उलझाने वाला होगा | वैसे देह है जब तक शरीर थकता भी है इसलिए विश्राम होना भी आवश्यक है | कर्म करते समय सतत विवेक की प्रधानता होना चाहिए | कोई भी साधक एकांत में रहकर आलस्य, निंद्रा प्रमाद में अपना समय बीताता है तो शरीर का भी पतन होता है तथा ज्ञान का भी पतन हो जाता है | कर्म में कभी राग नहीं होना चाहिए | शरीर से हम कर्मयोगी हो, ज्ञानयोगी हो या भक्तियोगी हो जब तक प्रकृति का अपने ऊपर प्रभुत्व है कर्म तो करना ही पड़ेगा | मन की क्रियाएं भी कर्म के अंतर्गत आती है | जीव जब तक प्रकृति के गुणों से अलग नहीं होता है तब तक तो कर्म करना ही पड़ेगा | प्रकृति की दो अवस्थाएं हैं – स्थूल और सूक्ष्म जो मन को बांधे रहती है | पूर्वजनित संस्कार, राग द्वारा किये गए कर्मों को तो भोगना ही पड़ेगा | योग में आसक्ति नहीं होती है इसलिए योगी प्रकृति पर विजय पाने का प्रयास करता है | 
              कर्म अगर हम दूसरों के हित के लिए करें तो वह कर्मयोग कहलायेगा | कर्म दो प्रकार के होते हैं १. विहित कर्म (व्रत,उपवास,उपासना) २. निषिद्ध कर्म (झूट बोलना, चोरी करना, चिंता करना आदि) अगर हम निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हैं तो विहित कर्म अपने आप होने लग जाएगा | जो स्वार्थ भाव से रहित कर्म किया जाए वह कर्मयज्ञ कहलाता है | कर्म के त्याग में कोई लाभ नहीं होता है अपितु त्यागना है तो स्वार्थ, ममता, फलाशक्ति, कामना, वासना, पक्षपात, अहंकार, इन्द्रिय जन्य भोग आदि को त्यागना चाहिए | तब ही मन की चंचलता में कमी होगी | सूक्ष्म शरीर में मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, अहंकार व प्राण यह सब कारण शरीर में आता है इसलिए इनका त्याग श्रेष्ठ है |

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