Tuesday, 1 July 2014

तुलसी | Tulsi | Story of Tulsi Marriage

तुलसी के गुणों के विषय में सभी परिचित हैं. दैविक गुणों के साथ इसके औषधीय गुणों के बारे में भी सभी जानते हैं. भारतवर्ष में कोई ही घर होगा जहाँ तुलसी का पौधा ना लगा हो. हर में तुलसी की पूजा की जाती है. तुलसी की उत्पत्ति के बारे में कहा गया है कि जब देव तथा दानव समुद्र मंथन कर रहे थे उस समय जो अमृत धरती पर छलका था, उसी से तुलसी पैदा हुई. उसके बाद ब्रह्मदेव ने तुलसी को भगवान विष्णु को सौंप दिया. भगवान विष्णु, योगेश्वर कृष्ण तथा पांडुरंग(श्री बालाजी) के पूजन के समय तुलसी के पत्तों से बना हार उनकी मूर्तियों को अर्पित किया जाता है.

तुलसी का महत्व | Importance of Tulsi

तुलसी के दर्शन प्रतिदिन करने चाहिए. क्योंकि तुलसी को पाप का नाश करने वाली माना गया है. इसका पूजन करना श्रेष्ठ होता है. इसका पूजन मोक्ष देने वाला होता है. समस्त पूजा तथा धार्मिक कृत्यों में तुलसी का उपयोग किया जाता है. इसके पत्ते से पूजा, व्रत, यज्ञ, जप, होम तथा हवन करने का पुण्य मिलता है. तुलसी की तीन किस्में पाई जाती हैं. पहली कृष्ण तुलसी, दूसरी सफेद तुलसी तथा तीसरी राम तुलसी होती है. इन तीनों तुलसी में से कृष्ण तुलसी सर्वाधिक प्रिय मानी गई है. भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी से बेहद लगाव था. श्रीकृष्ण जी को यदि तुलसी के पत्ते नहीं चढा़ए गए तो उनका पूजन अधूरा समझा जाता है. कार्तिक माह में विष्णु जी का पूजन तुलसी दल से करने का बडा़ ही माहात्म्य है. कार्तिक माह में यदि तुलसी विवाह किया जाए तो कन्यादान के समान पुण्य की प्राप्ति होती है.

तुलसी विवाह की कथा | Tulsi Marriage Story

प्राचीन समय में जालंधर नाम का एक राक्षस था. वह बहुत ही वीर तथा साहसी था. उसने सभी ओर हाहाकार मचा रखा था. राक्षस की वीरता का रहस्य उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म था. अपनी पत्नी के इस धर्म के कारण ही वह सब जगह विजय प्राप्त करता था. कोई उसे मार नहीं पाता था. जालंधर से डरकर सभी ऋषि-मुनि तथा देवता विष्णु जी के पास गए. उन्हें सारा वृतांत सुनाया और अपनी रक्षा के लिए विनय करने लगे. उनकी बात सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का सतीत्व भंग करने का निश्चय किया.
भगवान विष्णु ने अपनी माया से जालंधर जैसा मृत शरीर वृंदा के आंगन में फिकवा दिया. वृंदा अपने पति का शव देखकर उस पर गिरकर रोने लगी. तभी वहाँ से एक साधु गुजरे वह वृंदा को रोते देख बोले कि बेटी तुम विलाप नहीं करो. मैं इस मृत शरीर में जान डाल दूंगा और उसने मृत शरीर को जीवित कर दिया. शरीर के जीवित होते ही वृंदा भावुकता में उसका आलिंगन कर लेती है. इस कारण तभी उसका पतिव्रता धर्म नष्ट हो जाता है. उधर वृंदा का पति जालंधर देवताओं से युद्ध में मारा जाता है.
वृंदा को बाद में भगवान के छल का पता चलता है. वह क्रोध में भरकर विष्णु जी को श्राप देती है कि जिस प्रकार आपने मेरे साथ छल करके मुझे पति-वियोग दिया है, ठीक उसी तरह आप अपनी स्त्री के वियोग में दुखी रहेंगें और इस पत्नी वियोग को सहने के लिए आप पृथ्वी लोक पर जन्म लेगें. इसके बाद वृंदा अपने पति की चिता के साथ ही सती हो जाती है. भगवान विष्णु को अपने व्यवहार पर बाद में पश्चाताप होता है. विष्णुजी, देवी पार्वती से वृंदा की चिता की भस्म में आँवला, मालती तथा तुलसी के पौधे लगवाते हैं. भगवान विष्णु तुलसी को ही वृंदा का रुप समझते हैं. समय बितने पर विष्णु जी राम अवतार में धरती पर जन्म लेते हैं और उन्हें जीवनभर अपनी पत्नी सीता जी का वियोग सहना पड़ता है.
तुलसी विवाह की इस कथा के विषय में एक अन्य मत यह भी है कि वृंदा अपना सतीत्व भंग होने पर विष्णु जी को पत्थर बनने का श्राप देती है. तब विष्णुजी वृंदा से कहते हैं – तुम मुझे लक्ष्मी जी से भी अधिक प्यारी हो. तुम्हारे सतीत्व के फलस्वरुप तुम सदा तुलसी बनकर मेरे साथ रहोगी. जो मनुष्य तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, वह परम धाम को जाएगा. उसी दिन से शालिग्राम की पूजा तुलसी के बिना अधूरी मानी जाती है. शालिग्राम जी विष्णुजी का पत्थर रुप है. इसलिए आज भी तुलसी विवाह का पुण्य फल पाने के लिए मनुष्य कार्तिक माह में तुलसी का विवाह विष्णु जी से अथवा शालिग्राम से रचाते हैं. कार्तिक माह में यह विवाह कराने से पुण्य फलों में वृद्धि होती है.

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