निर्मल दृष्टि की प्राप्ति का क्या उपाय हैं ?
संसार में वस्तुओं को प्राप्त करने की उपासना तो अनेक लोग करते है लेकिन जो ईश्वर को ईश्वर के निमित्त प्रेम करता है वही सबसे बड़ा उपासक हैं। जो व्यक्ति ईश्वर की उपासना प्रारंभ करता है उसका विकास क्रम से होता है। इसकी समय सीमा हमारी मन व बुद्धि से जडत्व ( प्रकृति ( संसार प्राप्ती की इच्छा )) से जितनी जल्दी दूरी आप कर सकते हो ईश्वर उतना जल्दी मिल जाता है। जगत तो खेल तुम ईश्वर के साथ खिलाड़ी की तरह खेलों उसमें बिना हार जीत व बिना सुख दुख के उस खेल को दरीद्रो की झोपडी में भी देखना सीखो व विशालतम राज भवन में भी देखना सीखो । पाप व पुण्य के चक्कर में न पड़े। अपना अहं जो जड़त्व है उस को निकाल कर फेकों । तथा अनासक्त (आसक्ति रहित) के पथ पर चलो तभी तुम्हें आश्चर्यजनक रहस्य समझ में आएगा। उसकी क्रियाशीलता में स्पंदन व गहन निश्छल शांति प्राप्त होगी। इस जगत का रहस्य प्रतिक्षण कार्य व प्रतिक्षण शांति है अगर हममें सबलता है (इंद्रजित) तो स्व रुप में स्थित होकर सहज समाधि भाव में पहुँच जाओं ओर अगर इंद्रियों से कमजोर हो तो सभी के हृदय में स्थित परमात्मा की उपासना करो। इंद्रियों के कारण मनुष्य हमेशा प्रकृति का दास रहा है। व दासत्व की मुक्ति के दो ही तरीके है जो उपर बताएँ हैं। आलस्य ही हमारा सबसे बड़ा शत्रु हैं। जिसके कारण पूजा पाठ,ध्यान व ईश्वर की आराधना में बाधा उत्पन्न करता है। अज्ञानी व्यक्ति अपने आप को सबसे ज्यादा बुद्धिमान व वीर मानता है। इसलिए कदम-कदम पर अनुचित फल पाता है। ज्ञानी मनुष्य भावुकता व कर्तव्य में अंतर रखता है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास करता है तथा ज्ञानी को शोक व भय नहीं होता है। अंधविश्वास व आलस्य के सामने घुटने नहीं टेकता है। मन बुद्धि के हाथ में विवेक व स्वभान को नहीं बेचता है। ये निश्चित है कि मनुष्य को कर्म करने के लिए भगवान ने स्वतंत्रता दी है। महापुरुषों के अनुभव का साहित्य व क्षुतिया भी उसके सामने रखी है पर परमात्मा ने ये नहीं कहा कि तुम ऐसा करो या वैसा करो। कर्म के लिए वह स्वतंत्र है इसलिए कर्म के अनुरूप उसको फल की प्राप्ति होती है जो भोगना ही पड़ती हैं चाहे उसमें सुख का अनुभव करें या दुख का। साधक की ऊंचाई पर जाने में सहायता होगी अगर वह अपनी सत्ता से भी परे जाने का प्रयास करे तथा शरीर पर या इंद्रियों पर ( मन,चित्,बुद्धि,अहंकार) अपने आप को स्थिर ना करे अन्यथा ये सारा खेल कब्रिस्तान का है।तुम एक बार खड़े होकर अपनी आत्मा की महिमा को तो देखो। ( सभी इच्छाओं का परित्याग ) तो हमारी इंद्रियां स्थिर प्रज्ञ बन कर बिना कुछ किए ही भीतर में खींच जाएगी और शिवत्व का बोध हो जाएगा।
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